बुधवार, 5 नवंबर 2025

अल-तकिया

 अरबी शब्द अलतकिया (प्रच्छन्नता) का दुरुपयोग – 

अरब के लोग प्रच्छन्नता (अल-तकिया) को प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यक्तिगत सुरक्षा के लिये प्रशस्त उपाय मानते रहे हैं । यह एक सुरक्षात्मक उपाय है जिसे केवल प्रतिकूल परिस्थितियों में ही किसी अन्याय या अत्याचार से बचने के लिये उपयोग में लाया जाता था, किंतु भारतीय उपमहाद्वीप में यह उसी रूप में नहीं है ।
विषम स्थितियों में योजनापूर्वक संस्कारित(Medically modified)विष का उपयोग चिकित्सा जगत में किया जाता रहा है, यह सामान्य चिकित्सा के लिये नहीं है । सामान्य स्थितियों में इसका प्रयोग किया जाना कभी भी शुभ नहीं हो सकता । प्रारम्भ में यही सिद्धांत अल-तकिया(प्रच्छन्नता) के लिये भी व्यवहृत किया जाता रहा है जिसे अब धर्मसम्मत अनिवार्यता बना दिया गया । आज पूरे विश्व में अल-तकिया का दुरुपयोग अन्य सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के उन्मूलन के लिये किया जाने लगा है ।  

भारत में निवास करने वाले जो विद्वेषीहिंदू और विदेशी घुसपैठिये भारतीय संस्कृति और सभ्यता को निकृष्ट मानकर उसके उन्मूलन में लगे हुये हैं उनके लिये ऋग्वेद का यह मंत्र नेत्रोन्मीलक हो सकता है – 
“कृधी न ऊर्ध्वान् चरथाय जीवसे” – ऋग्वेद, १-३६-१४
हमें उन्नति और सुखद् जीवन के लिए उत्कृष्ट बनाइए, Make us noble for progress and happy life. …उत्कृष्ट बनाइये, उत्पीड़क और नरसंहारक नहीं, और इस कामना के लिये प्राकृतिक शक्तियों से प्रार्थना की गयी है । क्या यह वैदिक संस्कृति की उत्कृष्टता का प्रमाण नहीं!

इतिहास में मैं

 “मैं छह हजार साल पुराना पश्तून हूँ, एक हजार साल पुराना मुसलमान और सत्ताइस साल पुराना पाकिस्तानी हूँ“ – अब्दुल गनी खान ।


“मैं मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही सनातनी हूँ, वैदिक युग से हिन्दू हूँ; मैं लाखों वर्षों से अजनाभीय, आर्यावर्ती, भारतीय, जम्बूद्वीपीय और हिंदुस्थानी भी हूँ; मैं विश्वबंधु हूँ, प्रकृतिप्रेमी हूँ और सभी प्राकृतिक शक्तियों का उपासक हूँ इसीलिये मेरा संवाद असुरों से भी है और राक्षसों से भी, दैत्यों से भी है और देवों से भी, सोवियत रूस से भी है और अमेरिका से भी; मैं महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों के योद्धाओं के लिये बिना किसी पूर्वाग्रह और भेदभाव के भोजन की व्यवस्था करने वाला उडुपीनरेश पेरुंजोत्रुथियन भी हूँ; मैं आपातकाल में अपने शत्रुदेशों को भोजन और औषधि प्रदाता दानी भी हूँ; मैं चीनियों के लिये तियानझूवासी हूँ और हेरोडोट्स के लिये मात्र दो-सहस्र-दो-सौ-पच्चीस वर्ष पुराना इंडियन हूँ:....और यह भी स्मरण दिला दूँ कि मैं तुम्हारा जीजा धृतराष्ट्र भी हूँ”– मोतीहारी वाले मिसिर जी ।

रविवार, 2 नवंबर 2025

हमने तो देखा है

जो बनाते रहते हैं मुँह
दूसरों के बनावटीपन से
उन्हीं श्वेतकेशियों को
हमने तो बाल रँगते देखा है  
कौवों को
हंस के वेश में देखा है    
जो थकते नहीं बातें करते
दूरियाँ मिटाने की
उन्हीं लोगों को
दूरियाँ बढ़ाते देखा है ।
ट्रम्प को चाहिये पुरस्कार
शांति की स्थापना का
पर हमने तो
उन्हें दुनिया भर के देशों को
धमकियाँ देते देखा है
कौन नहीं जानता
कि दुनिया भर को अहर्निश
अशांत करने वाला भूरेलाल 
वाशिंगटन डीसी में बैठा है ।
हमने तो रावण को साधु के वेश में
स्त्री का अपहरण करते देखा है
धूर्त लेखकों को
भारत का इतिहास रँगते देखा है
घृणा के पात्र हैं जो
उन्हें प्रशंसा पाते देखा है । 
हमने तो
निर्लिप्त रहने का
सुना है जिन्हें उपदेश देते
उन्हें भी
भोग में सर्वाङ्ग लिप्त देखा है ।
वंचना के विरोधियों को
उन्हीं के वंचक चरित्र के साथ झेला है ।
हमारी निर्धनता दूर करने की
शपथ लेने वालों को
हमारा ही धन लूटते देखा है ।
जो करते हैं
संविधान की रक्षा का प्रचार
उन्हें ही
संविधान की हत्या करते देखा है ।
और ...
जिन्होंने बंदी बना कर रखा है
घर की स्त्रियों को
ओढ़ाकर आपादमस्तक वस्त्र
उन्हीं के उपदेशक, मार्गदर्शक और पूज्य के
वंशजों की स्त्रियों को 
सचल बंदीगृह से मुक्त होते देखा है । 
दुनिया ऐसी ही है
इतनी ही चित्र और विचित्र
इतने ही रंगों से रँगी
और इतनी ही बि-रंगी भी ।

भीड़ और पहचान

“पूर्वी चम्पारण से आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुस्लिमीन के प्रत्याशी राणा रणजीत सिंह विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं । सिर पर गोल टोपी, माथे पर तिलक और हाथ में कलावा बाँधकर जय श्रीराम, जय बजरंगबली और आई लव मोहम्मद का नारा लगाने वाले राणा जातिवाद को कैंसर मानते हैं, जिसे वे समाप्त करना चाहते हैं । मोहनदास और भीमराव को अपना आदर्श मानने वाले राणा जी सामाजिक दूरियाँ मिटाना चाहते हैं” ।

परी कथायें बच्चों को आकर्षित करती हैं, बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तब उन्हें परीकथाओं की कथा समझ में आ जाती है । धार्मिक सौहार्द्य, भाईचारा, आत्मशासित समाज, सीमाविहीन देश, शोषणमुक्त समाज, श्रम और पूँजी में सामंजस्य …जैसे आदर्शों को लेकर विश्व भर में चर्चायें होती रही हैं जिनका हमारे सामने एक यूटोपियन इतिहास है । यूरोप और एशिया के साम्यवादी देशों में भी इस तरह की चर्चायें हुयीं पर धरातल पर कुछ विशेष दिखायी नहीं दिया । कहीं-कहीं “नो रिलीजन” अस्तित्व में है, पर हम उसे भी ‘भीड़’ नहीं मान सकते । रिलीजन को लेकर मोहनदास के विचारों और परस्पर विरोधाभासी चरित्र को हम देख चुके हैं । तमिलनाडु, केरल और प.बंगाल आदि राज्यों के साम्यवादियों के चरित्र को भी हम देख चुके हैं, देख रहे हैं ..।
जाति को कैंसर मानने वालों की कमी नहीं है, लोग जातिव्यवस्था पर वैचारिक प्रहार करते रहे हैं । दूसरी ओर चुनाव में जातीय समीकरण के महत्व को कोई भी नेता अस्वीकार नहीं कर पाता । जनता भी आरक्षण के लोभ में अपनी विशिष्ट जातीय पहचानों को खोना नहीं चाहती । कई बार तो वे आरक्षित जाति में स्वयं को सम्मिलित करने के लिये आंदोलन भी करते रहे हैं । मेरी स्मृति में आज तक एक भी आंदोलन ऐसा नहीं हुआ जिसमें अगड़ी जाति में स्वयं को सम्मिलित किये जाने की माँग रखी गयी हो । वह बात अलग है कि कोई सतनामी अपने नाम के साथ पांडेय, उपाध्याय, तोमर, भदौरिया और बघेल उपनाम धारण करके भी अनुसूचितजाति के प्रमाणपत्र का मोह छोड़ नहीं पाता । सरकारें भी अनुसूचित-जनजाति और अनुसूचित-जातियों में परिवर्तन करती रहती हैं । जातियाँ बनाती हैं सत्तायें और गालियाँ दी जाती हैं ब्राह्मणों को (यह भी बरजोरी (Obsessive compulsive political behavior) का एक सामाजिक उदाहरण है)।
असदुद्दीन के दल में राणा रणजीत सिंह के अतिरिक्त पंडित मनमोहन झा, रविशंकर जायसवाल, विकास श्रीवास्तव, विनोद कुमार जाटव, ललिता जाटव और गीता रानी जाटव जैसे और भी कई नेता हैं । ये सभी लोग सामाजिक और धार्मिक समरसता के लिये जातिवाद और कुरीतियों को समाप्त कर, एक सेक्युलर देश की स्थापना करना चाहते हैं, …क्या लेनिन और स्टालिन की तरह, या ममता बनर्जी और लालू की तरह, या मुलायम सिंह और रौल विंची की तरह, या शेख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती की तरह, या ...!
विश्लेषण करके देखिये, क्या ये सभी बाहुबली राजनेता पहचान मिटाकर पहचान बनाने में विश्वास नहीं रखते, वंश मिटाकर वंश स्थापित करने के लिये संघर्षरत नहीं होते, भीड़ मिटाकर भीड़ नहीं बनाना चाहते... विरोधाभास दूर कर विरोधाभास को स्थायी नहीं करना चाहते ! ...यही है कूट चालों से किया जाने वाला सत्तासंघर्ष, हम इसे लोकहितकारी राजनीति स्वीकार नहीं कर सकते ।
व्यक्तियों और समुदायों की विशिष्ट पहचानों को समाप्त कर सबको भीड़ बनाने वाले स्वयं कभी भीड़ नहीं बनते, वे किसी न किसी रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर रखते हैं । यह सामाजिक महत्वाकांक्षा का सत्य है, कोई भीड़ नहीं बनना चाहता, हर कोई अपनी विशिष्ट पहचान के साथ स्थापित होना चाहता है । क्या भेदभाव मिटाने के लिये किसी नेता को विश्रामगृह के स्थान पर एक दिन के लिये भी जेल में ठहराया जाता है ? क्या आपने कभी धान, गेहूँ और जौ को एक साथ एक ही खेत में बोया है? राई, सरसों और लाही को एक साथ एक ही खेत में बोया है? क्या कोई किसान आलू, प्याज, लहसुन, टमाटर, गेहूँ, सूरजमुखी आदि सारी उपज एक साथ एक ही स्थान पर मिश्रित कर रखता है ? ..इसे भी छोड़िये, क्या आप अपने फ़्रिज में आलू-प्याज एक ही पॉलीथिन में एक साथ रखते हैं? …यह भी छोड़िये, क्या आप भोजन पकाते समय दाल, तरकारी, कढ़ी, खीर, करेला, चावल, बेसन, आटा आदि की भीड़ एक ही पात्र में मिलाकर एक साथ पकाते हैं ?
पहचान मिटाने वाली सत्ताओं ने समाज को कई पहचानें दी हैं – अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अगड़ा. पिछड़ा, दलित, आरक्षण, अनारक्षण, मनुवाद, साम्यवाद, अम्बेडकरवाद, …। नयी-नयी पहचानें बनाना इनकी आवश्यकता है, पहचान मिटाने की बातें करना इनका आदर्श है । सत्ताधीशों की यही वास्तविक पहचान है ।
जाति को कैंसर मानने वाले राणा जी जैसे विचारकों की कमी नहीं है, राजनेता और साहित्यकार जातिव्यवस्था पर वैचारिक प्रहार करते रहे हैं । दूसरी ओर चुनाव में जातीय समीकरण के महत्व को कोई भी नेता अस्वीकार नहीं कर पाता । जनता भी आरक्षण के लोभ में अपनी विशिष्ट जातीय पहचानों को खोना नहीं चाहती । कई बार तो वे आरक्षित जाति में स्वयं को सम्मिलित करने के लिये आंदोलन भी करते रहे हैं । मेरी स्मृति में आज तक एक भी जनआंदोलन ऐसा नहीं हुआ जिसमें अपने से अगड़ी जाति में स्वयं को सम्मिलित किये जाने की माँग की गयी हो । वह बात अलग है कि कोई सतनामी अपने नाम के साथ पांडेय, उपाध्याय, तोमर, भदौरिया और बघेल जैसे उपनामों से आकर्षित होकर इन उपनामों को धारण करके भी अनुसूचितजाति के प्रमाणपत्र एवं उसके आधार पर मिलने वाली भौतिक सुविधाओं का मोह छोड़ नहीं पाता । सरकारें भी अनुसूचित-जनजाति और अनुसूचित-जातियों में परिवर्तन करती रहती हैं । जातियाँ बनाती हैं सत्तायें और गालियाँ दी जाती हैं ब्राह्मणों को (यह भी बरजोरी (Obsessive compulsive political behavior) का एक सामाजिक उदाहरण है)।
असदुद्दीन के दल में राणा रणजीत सिंह के अतिरिक्त पंडित मनमोहन झा, रविशंकर जायसवाल, विकास श्रीवास्तव, विनोद कुमार जाटव, ललिता जाटव और गीता रानी जाटव जैसे और भी कई नेता हैं । ये सभी लोग सामाजिक और धार्मिक समरसता के लिये जातिवाद और कुरीतियों को समाप्त कर, एक सेक्युलर देश की स्थापना करना चाहते हैं, …क्या लेनिन और स्टालिन की तरह, या ममता बनर्जी और लालू की तरह, या मुलायम सिंह और रौल विंची की तरह, या शेख अब्दुल्ला और अरविंद केजरीवाल की तरह, या अरुंधती राय और रोमिला थापर की तरह, या ...!
विश्लेषण करके देखिये, क्या ये सभी बाहुबली राजनेता, साहित्यकार और इतिहासलेखक पहचान मिटाकर पहचान बनाने में विश्वास नहीं रखते, वंश मिटाकर वंश स्थापित करने के लिये संघर्षरत नहीं होते, भीड़ मिटाकर भीड़ नहीं बनाना चाहते... विरोधाभास दूर कर विरोधाभास को स्थायी नहीं करना चाहते ! ...यही है कूट चालों से किया जाने वाला सत्तासंघर्ष, कोई भी विवेकशील व्यक्ति इसे लोकहितकारी राजनीति स्वीकार नहीं कर सकता ।
व्यक्तियों और समुदायों की विशिष्ट पहचानों को समाप्त कर सबको भीड़ बनाने वाले स्वयं कभी भीड़ नहीं बनते, वे किसी न किसी रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर रखते हैं । यह सामाजिक महत्वाकांक्षा का सत्य है, कोई भीड़ नहीं बनना चाहता, हर कोई अपनी विशिष्ट पहचान के साथ स्थापित होना चाहता है । क्या भेदभाव मिटाने के लिये किसी नेता को विश्रामगृह के स्थान पर एक दिन के लिये भी जेल में ठहराया जाता है ? क्या अभियांत्रिकी, चिकित्सा, साहित्य और संगीत के विद्यार्थियों को एक ही व्याख्यान से शिक्षित किया है? …क्या आपने कभी धान, गेहूँ और जौ को या राई, सरसों और लाही को एक साथ एक ही खेत में बोया है? क्या कोई किसान आलू, प्याज, लहसुन, टमाटर, गेहूँ, सूरजमुखी आदि की सारी उपज एक साथ एक ही स्थान पर मिश्रित कर रखता है ? ..इसे भी छोड़िये, क्या आप अपने फ़्रिज में आलू-प्याज एक ही पॉलीथिन में एक साथ रखते हैं? …यह भी छोड़िये, क्या आप भोजन पकाते समय दाल, तरकारी, कढ़ी, खीर, करेला, चावल, बेसन, आटा आदि की भीड़ एक ही पात्र में मिलाकर एक साथ पकाते हैं?
पहचान मिटाने वाली सत्ताओं ने समाज को कई पहचानें दी हैं – अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अगड़ा, पिछड़ा, दलित, आरक्षण, अनारक्षण, मनुवाद, साम्यवाद, अम्बेडकरवाद, …। नयी-नयी पहचानें बनाना इनकी आवश्यकता है, पहचान मिटाने की बातें करना इनका आदर्श है । सत्ताधीशों की यही वास्तविक पहचान है ।
हमारे शरीर ने प्लास्टिक के नैनो पार्टिकल्स की विशिष्ट पहचान को स्वीकार करने से मना कर दिया, अपने-पराये का भेद मिटाकर उन अनुपयोगी विदेशी घुसपैठियों को शरीर की कोशिकाओं के समान स्वीकार कर लिया, परिणामतः हमारा शरीर उन नैनोपार्टिकल्स के कूड़े का ढेर बनता जा रहा है । तैयार रहिये ...एक अकल्पनीय व्याधि विस्फोट के लिये ।
हमारे शरीर ने कोशिकीय विभाजन पर अपना विशिष्ट नियंत्रण समाप्त कर उन्हें पूर्ण स्वैच्छिक कर दिया, छीन के दे दी आज़ादी, पेरियार वाली आज़ादी, लेनिन वाली आज़ादी …जानते हैं फिर क्या हुआ ! कैंसर हो गया, वह भी मैलिग्नेंट वाला कैंसर । अब जाइये, करवाइये सर्जरी, कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी ...फिर अंत में एक दिन ...अब और कोई उपाय शेष नहीं,...मेटास्टेसिस तो पहले ही हो चुकी है, घर ले जाइये, जितने दिन साँसें चलें उतने दिन सेवा करके पुण्य लूट लीजिये ।
ये खोखले आदर्श और यूटोपियन बातें करने वाले स्वयंभू राजनीतिक-बरजोर वैज्ञानिक-तथ्यों को भी धता बता देने की निर्लज्जता अपने अंदर कैसे उत्पन्न कर लेते हैं! “पुरुषोऽयं लोकसंमितः”, अर्थात् “लोकोऽयं ब्रह्माण्ड संमितः” और “ब्रह्माण्डोऽयं विज्ञानसंमितः”, …किंतु आप राजनीतिक सिद्धांतों को इस सार्वकालिक और सार्वदेशज सत्य से छिपाकर रखना चाहते हैं ! जो सृष्टि अपने द्वैत स्वरूप में है उसे समय से पहले ही अद्वैत स्वरूप में देखना चाहते हैं? अद्भुत् बरजोरी है!    

इस विषय पर मोतीहारी वाले मिसिर जी बड़ी दृढ़ता से बताते हैं – “सामाजिक स्तर पर सामान्य और विशिष्ट की अपनी सीमायें हैं जिनमें बहुत कठोरता नहीं है पर इतनी तरलता भी नहीं है कि उनकी अपनी पहचान ही समाप्त हो जाय । सत्य यह है कि पहचान मिटाने या उसे मिश्रित करने की बातें कितनी भी कर ली जायँ पर वास्तव में आप किसी की पहचान नहीं मिटा सकते, वह पहचान जो उसे प्रकृतिप्रदत्त है”।

शनिवार, 1 नवंबर 2025

देशभक्ति का प्रमाण पत्र नहीं चाहिए

*डरे हुये लोग*
१.
बिहार विधानसभा चुनाव-२०२५, विधानसभा क्षेत्र- बलरामपुर, जनता से चुनावपूर्व रुझान पूछते हुये टीवी पत्रकार । उत्साहित जनता का रुझान – “बलरामपुर में हम लोग का ७० फीसदी आबादी है, हिंदू लोग तीसये पर्सेंट नू है, कहाँ से जीतेगा भाजपा! ...सब लोग तेजस्विये को नू देगा भोट”।
...और यह भाजपा है जो हिंदू-मुसलमान करके देश को बाँटने का काम करती है, बाबा साहब के संविधान की हत्या करती है । देश को जोड़ने का काम तो केवल बलरामपुर की सत्तर प्रतिशत जनता ही करती है ।

२.
समाचार है कि “मंदिर में घुसकर युवक ने मूर्ति पर बरसाये जूते”।
...लोग बड़े ठसके से कहते हैं कि -"अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें बाबा साहब के संविधान ने दी है, देश तुम्हारे बाप का नहीं है, हम अपने धर्म का पालन कर रहे हैं, जो हमें कोई नहीं रोक सकता, जो रोकेगा उसका सर तन से जुदा कर देंगे”।

भारत का यह स्वरूप देखकर जवाहरलाल और मोहनदास की आत्मायें प्रसन्न हो रही होंगी, मीलॉर्ड्स भी प्रसन्न हो रहे होंगे । आज यदि मोहनदास जीवित होते तो हिंदुओं को अपना रटा-रटाया परामर्श देते- हिंदुओं को यदि इससे दुःख होता है तो उन्हें मर जाना चाहिये ...और इसके लिये उन्हें मुसलमानों का कृतज्ञ होना चाहिये कि उन्हें मृत्यु वरण का सुअवसर प्राप्त हो रहा है।
(जिन्हें प्रमाण देखने की उत्सुकता हो, वे कृपया यशपाल रचित "गांधीवाद की शवपरीक्षा" और "संपूर्ण गांधी वांग्मय" का अवलोकन करने की कृपा करें)
३.
*गाय खाऊँगी, काट के खाऊँगी*
*डरे हुये लोग केस-मुकदमे से नहीं डरते* इसलिये ग़ाजियाबाद में टोपी और दाढ़ी वालों से घिरी एक दुबली-पतली लड़की फरजाना को भी पूरा देश जानने लगा है । वह डरे हुये लोगों के समुदाय की है और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री एवं भारत के गृहमंत्री को चीख-चीख कर गंदी-गंदी गालियाँ देती हुयी अपनी वीडियो बनवा रही है – “...गली में घूमने वाला टकला...। गाय खायेंगे, काट के खायेंगे, जो केस करना हो कर लेना । तुलसी निकेतन ५५५ में आ जाना, जल्दी आना”।
पुलिस के लोग फ़रजाना को ऐसा कहने से रोकते हैं, डरी हुयी लड़की पुलिस वालों से भिड़ जाती है । यह डर बहुत अद्भुत् है जिससे मीलॉर्ड लोग बहुत द्रवित रहते हैं ।
...और कुछ अतिविद्वान लोग ताल ठोककर प्रायः यह कहते हुये सुने जाते हैं कि आर.एस.एस. और हिंदू लोग आतंकवादी होते हैं । आतंकवादियों के चिन्हांकन का यह ज्ञान मीलॉर्ड्स को भी कदाचित् अच्छा लगा होगा ।

४.
*मंदिर में मोहम्मद*
मंदिरों की भित्ति से लगी मस्जिदों का निर्माण। रेलवे प्लेटफार्म पर दरगाह का निर्माण, सड़क पर नमाज, मंदिर में नमाज के प्रयास...।
मोहनदास ने भी मंदिर में नमाज पढ़ने के लिये अपने युग में नमाजियों को आमंत्रित किया था । इससे भारत के लोगों को यह संदेश दिया गया कि सामाजिक समरसता के लिये मंदिर में नमाज पढ़ना आवश्यक एवं न्यायसंगत है पर मस्ज़िद में हनुमानचालीसा या गीता का पाठ करना पापपूर्ण और अल्पसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं का अपमान करने वाला कृत्य है ।
मोहनदास और जवाहरलाल का स्वप्न सच करने के लिए कांग्रेस ही नहीं, अन्य भी कई राजनीतिक दल सक्रिय हो चुके हैं । प्रसन्न होकर नृत्य कीजिये, लड्डू बाँटिये ।

५. *धर्म की अनुमति नहीं*
समाजवादी पार्टी के माननीय अबू आजमी साहब ने विद्यालयों में राष्ट्रगीत “वंदेमातरम्...” का विरोध किया है । वंदे मातरम् गीत गाने के लिये उनका “धर्म” उनके “डरे हुये विद्यार्थियों” को “अनुमति नहीं देता”।
...इसलिये विद्यालयों में धर्म को अपवित्र करने वाला गीत नहीं गाया जाना चाहिये, भले ही उस गीत को गाने के लिये इस देश के अन्य लोगों को उनका धर्म अनुमति देता हो । अर्थात् सेक्युलरिज़्म केवल सनातनियों के लिये है, डरे हुये लोगों के लिये नहीं ...बाबा साहब के संविधान में ऐसा ही लिखा गया होगा !

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

प्रकट से अप्रकट की ओर, A journey from gross to subtle

- आज की पीढ़ी ने नहीं देखे चाबी वाले टेलीफ़ोन और घड़ी, ट्रांजिस्टर और रेडियो, ऊपर से धुआँ और नीचे से भाप छोड़ती छुक-छुक रेलगाड़ी, सिचाईं के लिये बैलों से खीचे जाने वाले पुर, …और भी बहुत कुछ । ये सब बीते युग की कहानियाँ बन चुकी हैं । कल जो था वह आज नहीं है, आज जो है वह आने वाले कल नहीं रहेगा ।

- यह एक अनवरत यात्रा है, …चमत्कारों की यात्रा ...जो एक दिन अदृश्य होकर भी अपने अस्तित्व के साथ हमसे जुड़ी रहेगी । विश्वास नहीं होता न!
- हम सूक्ष्म शक्तियों के स्वामी बनते जा रहे हैं । एक दिन रिमोट कंट्रोल नहीं होगा पर कंट्रोल होगा, एटीएम कार्ड नहीं होगा पर मुद्रा का आदान-प्रदान होगा, आपके हस्ताक्षर और पासवर्ड नहीं होंगे पर आपकी पहचान होगी और ताले आपकी इच्छा से संचालित होंगे । सुरक्षा के लिये अदृश्य लक्ष्मण रेखायें होंगी । आपके घर में दिखायी देने वाली बहुत सी चीजें सूक्ष्म होते-होते एक दिन अदृश्य हो जायेंगी, …पर वे अपना कार्य करती रहेंगी ।
- जो प्रकट अस्तित्ववान है वह अप्रकट अस्तित्ववान हो जायेगा ...प्राचीन ऋषियों के आशीर्वाद, वरदान और श्राप की तरह ।
यह भी अविश्वसनीय सा लगता है, पर एक दिन आप देखेंगे कि मंत्र पढ़ते ही महासंहारक आयुध अग्निवर्षा करने लगेंगे, …और इस तरह स्थूल आयुध नहीं बल्कि सूक्ष्म आयुध इस स्थूल जगत को समाप्त कर देगें ।
- प्रकृति की व्यवस्था के अनुसार समीकरण तो वही होगा,  E = mc2, पर उसे लिखने की दिशा वही नहीं होगी, हमारी सारी गतिविधियाँ उसे प्रतिलोम दिशा mc2 = E की ओर ले जा रही हैं ।

- हम आज भी विद्युत-चुम्बकीय सूक्ष्म तरंगों के महासमुद्र में अहर्निश डूबे हुये हैं । ये तरंगें बढ़ती ही जा रही हैं, …हम फिर भी चमत्कारों और शक्तिसम्पन्न होने का मोह छोड़ नहीं पा रहे हैं ।
- ऊर्जा की शक्ति हर किसी को आकर्षित करती रही है । यह आकर्षण युद्ध को आमंत्रित करता है ।
- दशकों से मध्यएशिया के देश नरसंहार और यौनदुष्कर्म से पीड़ित रहे हैं, आज भी हैं । हर कोई शक्ति और अधिकार से सम्पन्न होने की दौड़ में सम्मिलित हो चुका है । ट्रम्प को पूरे विश्व की हर मूल्यवान और उपयोगी चीज पर नियंत्रण चाहिये । पाकिस्तानियों को पूरे विश्व पर शरीया का साया चाहिये । वामपंथियों को एक काल्पनिक विश्व-व्यवस्था चाहिये जिस पर उन्हीं का पूर्ण अधिकार हो ।
- इस बीच भारत में, एक ओर न्यायमूर्ति अपने कर्मप्रभाव से सम्मानशून्य होने की प्रतिस्पर्धा में लगे रहे तो दूसरी ओर सात वामपंथी विदेश जाकर भारत की सत्ता को बेचने की जुगाड़ में लगे रहे ।
- एक अदृश्य सत्ता बड़ी सावधानी के साथ यह सब देख रही है, कर्मों के सूक्ष्म अभिलेख तैयार होते जा रहे हैं ...इधर षष्ठी के भिनसारे सोनपुर में कटि से ऊपर तक गंगाजी के शीतल जल में निमज्जित सूर्योदय की प्रतीक्षा करती स्त्रियों के समूह यह आश्वासन दे रहे हैं कि भारत अभी भी अदृश्य सत्ता को ही जगत का आधार मानता है ।
- उधर हिमालय में विचरण करने वाले मोतीहारी वाले मिसिर जी षष्ठी महापर्व के अनुष्ठानों, गीतों और दृश्यों को स्मरण कर स्वयं पर नियंत्रण खो उठते हैं और उनके नेत्रों से गंगा-जमुना उमड़ पड़ती हैं ।

सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

सृष्टि के चेतन स्वरूप उगते सूर्य देव को अर्घ्य देने का पर्व

प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाने वाला सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने का महापर्व, वर्षा ऋतु के पश्चात उत्तम कृषि उपज की कामना का पर्व, नयी पीढ़ी के उत्तम भविष्य की प्रार्थना का पर्व, …बिहार की उत्कृष्ट संस्कृति का महापर्व “छठ-पूजा” के नाम से देश-विदेश में विख्यात है ।

बिहार में मनाये जाने वाले इस पर्व के साथ बिहारियों की भावनायें कहीं बहुत गहराई से जुड़ी हुयी हैं । वे जहाँ भी गये, अपनी भावना और अपनी संस्कृति साथ लेकर गये । मारीशस, सूरीनाम, गुयाना और अफ़्रीकी देशों से लेकर योरोपीय देशों तक ....जहाँ-जहाँ बिहारी हैं, वहाँ-वहाँ सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह महापर्व भी है ...और प्रकृतिपूजा का वैश्विक संदेशप्रसारण भी।
छठ पर्व की विशेषता उसके निष्ठापूर्वक मनाये जाने वाली परम्पराओं, अनुष्ठानों और लोकगीतों में अंकित है । यह अनुभव का विषय है जो हृदय की गहराइयों से हिलोरें मारता हुआ मन को श्रद्धा और करूणा से आप्लावित कर देता है ।
यद्यपि कृषिप्रधान बिहार की धरती को नदियों और सूर्य का विशेष अनुदान प्राप्त है तथापि ब्रिटिश पराधीनता के युग में युवकों को स्वावलम्बन के लिये बंगाल और वर्मा जाना पड़ता था । छठपूजा पर पत्नी के साथ पति की सहभागिता आवश्यक मानी जाती है, इससे जहाँ दाम्पत्य बंधन को और दृढ़ता मिलती है वहीं शेष विश्व को भारतीय पारिवारिक परम्पराओं का एक संदेश भी मिलता है । यही कारण है कि छठपूजा पर लोग एन-केन-प्रकारेण अपने घर जाने का प्रयास अवश्य करते हैं । अनुष्ठान में सूर्य को अर्पित किये जाने वाले स्थानीय फल, कंद और पुष्प प्रवासी बिहारियों को अपनी मातृभूमि से जोड़ते हैं । सतपुतिया और शकरकंद जैसी चीजें हमारे लिये बहुत साधारण हैं पर प्रवासियों से पूछिये इनका रागात्मक महत्व ! 
छठ पर्व पर गाये जाने वाले गीत कृतज्ञता, करुणा, भक्ति और मनोकामना से परिपूर्ण होते हैं । बहुत साधारण से शब्दों और भावों में रचे-बसे छठ गीत जितना आकर्षित करते हैं, उतने अन्य भक्तिगीत नहीं । इन गीतों में भक्त और भगवान के मध्य की दूरी सिमटती हुयी दिखायी देती है । यहाँ किसी विद्वतापूर्ण संवाद या अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं होती । अँजुरी में भरे जल के साथ उगते सूर्य को अर्घ्य देने के लिये शीतल जल में खड़े होकर प्रतीक्षा करने वाली स्त्री जब सूर्य से परिवाद करती है तो भक्त की यह निश्छलता उसकी निष्ठा का प्रमाण बन जाती है – “जल बिच खड़ा होई दरसन लऽ असरा लगावेलि हो । सितली बयरिया सितल दूजे पऽनिया । कब देबो देवता तू आके दरसनिया” और “उगा हो सुरुज देव अरघ के बेरिया भऽइल”।
#अक्षरासिंह के गाये इस गीत – “काँच हि बाँस के बऽहँगिया, बऽहँगी लचकत जाय । होई ना बलम जी कहरिया, बहँगी घाटे पहुँचाय” ने तो योरोप तक अपनी पहुँच बना ली है वहीं #अनुदुबे के गाये गीत – “कोसी भरे चलली अमिता देई । नौलखा हार भीजे । अ भीजता त हार मोरा भीजे देहु । कोसा मोरा नाहीं भीजे” ने भी ...गर्दा उड़ा देले बा ।
परदेश गये पति की प्रतीक्षा करती पत्नी के विरह भावों ने छठगीतों को भी प्रभावित किया है – “...पिया के सनेहिया बऽनइहा, मइया दिहऽ सुख सार”।  
ससुराल में पहली बार छठ का निर्जला व्रत करने वाली नवोढ़ा का यह गीत – “पहिले-पहिले हम कऽइनी छठि मैया बरत तोहार । दिहऽ असिस हजार, बऽढ़े कुल परिवार..” #निवेदितानिष्ठा के स्वरों में बहुत अच्छा बन पड़ा है ।
उगते सूर्य की प्रतीक्षा में गंगाजी के शीतल जल में खड़ी युवती के लिये यह कठिन व्रत और भी कठिन हो जाता है तब वह सूर्य देव को झिड़की देने से भी नहीं चूकती । भक्त की अपने इष्ट के प्रति निश्छल प्रेम की यह पराकाष्ठा बिहारियों में अच्छी तरह देखने को मिलती है – “उगा हो सुरुज देव भेल भिनसरवा, अरघ केरे बेरवा पूजन केरे बेरवा हो, बड़की पुकारे देव दुनु कर जोरवा...”  #स्वातिमिश्रा के मधुर स्वर में गाये इस गीत के शब्द मनोहारी हैं ।
छठपूजा के इन लोकगीतों को भोजपुरी और मैथिली के लालित्य ने बड़ी दृढ़ता से बाँध रखा है, आज हम इनके बिना छठपूजा के गीतों की कल्पना भी नहीं कर पा रहे हैं । कदाचित् ही अन्य किसी बोली में ये गीत उतने प्रभावी और आकर्षक हो सकें । 
एक बात और, गंगा जी हर गाँव से तो होकर बहती नहीं, पर छठपूजा और सूर्य को अर्घ्य देने की परम्परा हर गाँव में है, इसलिये छठपूजा के दिन गाँव के तालाब भी गंगाजी हो जाते हैं । हमें गर्व है कि विप्लवों से घिर कर भी हम अपनी श्रेष्ठ संस्कृति के वाहक बन पा रहे हैं ।