कोई देश जब पराधीन होता है तो वहाँ के निवासी सबसे पहले अपने स्वाभिमान, संस्कृति और इतिहास को विस्मृत करने के लिये बाध्य होते हैं । उस पराधीन देश का इतिहास, गौरव और आदर्शपुरुष विजेता देश के अधीन हो जाते हैं । युद्धों और पराधीनता का यही सत्य है ।
इस्लामिक पराधीनताकाल में भारत के गुरुकुल और विश्वविद्यालय नष्ट किये गये किंतु ब्रिटिशकाल में गुरुकुलों को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया । विदेशी शक्तियों द्वारा हमें यह पढ़ने और सीखने के लिये बाध्य किया गया कि भारत के वर्तमान आर्य वास्तव में विदेशी प्रवासी थे जो ईसवी सन् से पंद्रह सौ वर्ष पूर्व मध्य एशिया से भारत आकर बस गये थे ।आर्यों की पहचान में बताया जाता रहा कि वे कृषक थे, योद्धा थे, प्रवासीप्रवृत्ति के थे; मध्य एशियायी देशों यथा - ईरान, ऑस्ट्रिया और रूस के क्षेत्रों से अफ़गानिस्तान के मार्ग से भारत में प्रवेश कर सरस्वती नदी के किनारे बस गये । वे घोड़ों और रथों पर बैठ कर भारत आये; अपनी संस्कृति, सभ्यता, योरोप की संस्कृतभाषा, वेद और परम्परायें भी साथ लेकर आये । विदेशी आर्यों ने भारत के मूलनिवासियों से सम्बंध स्थापित किये और एक मिश्रित नृवंश की उत्पत्ति की जो वर्तमान भारत के निवासी हैं ।
विश्वासघाती विद्वानों और धूर्तों द्वारा रचित नव-इतिहास में आर्यों को विदेशी और आक्रमणकारी लिखा जाता रहा, पर अब तो काले अंग्रेजों द्वारा यह भी लिखा जाने लगा है कि वेदों की रचना द्रविणों और आदिवासियों ने की जिनपर विदेशी आर्यों ने अपना अधिकार कर लिया ।
विश्व के प्राचीनतम् लिखित अभिलेखों में मान्य वैदिक संहिताओं, वैदिकोत्तर ग्रंथों, स्मृतियों, पुराणों, उपनिषदों, श्रीमद्भाग्वद्, रामायण और साहित्यिक ग्रंथों आदि में समाये भारत के वास्तविक इतिहास को नष्ट करने के लिए कृत्रिम युगपुरुषों के षड्यंत्रों द्वारा स्थापित किये गये उपाय तो स्वाधीन भारत में भी अनवरत् हैं ही, देखना यह है कि बंदी इतिहास कब मुक्त हो पाता है ! तब तक तो “धूर्तता ही कलियुग की विद्वता है” का डंका बजता रहेगा ।
*सनातनियों के नरकंकाल*
जिस देश में शवदाह संस्कार की परम्परा रही हो वहाँ खनन में सैकड़ों की संख्या में प्राप्त होने वाले सहस्रों वर्ष प्राचीन नरकंकाल किन लोगों के हैं ? ऐसे नरकंकालों के आनुवंशिक अध्ययन से मिलने वाले तथ्य क्या प्रमाणित कर सकते हैं, क्या यह कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे, प्रत्युत् वे मध्य-एशिया या रूस से आकर भारत में बस गये थे ?
भारत पर चीन और फारस जैसे सीमावर्ती देशों द्वारा आक्रमण होते रहे हैं, सुदूर यूनान द्वारा भी आक्रमण किये गये । भारत के साथ एशिया, अफ़्रीका और यूरोप के सुदूर देशों से व्यापारिक सम्बंध भी रहे हैं, स्पष्ट है कि उनमें परस्पर आवागमन भी होता रहा है । इन सभी विदेशियों में शवदाह की परम्परा न तब थी और न अब है, उनके शवों का भूमिगत संस्कार ही किया जाता रहा है । भारत की भूमि पर आकर परलोक सिधारने वाले विदेशी सैनिकों और व्यापारियों में से कितने लोगों के शव उनके देश वापस ले जाये गये, और कितने शव यहीं समाधिस्थ किये गये, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकना असम्भव नहीं है । क्या इन समाधियों ने निकले नरकंकालों से भारत के मूलनिवासियों के नृवंशीय आनुवंशिक इतिहास का पता लगाया जा सकना सम्भव है ?
सूक्ष्मदर्शी और इलेक्ट्रॉन-सूक्ष्मदर्शी के आविष्कार के पश्चात् आनुवंशिकी अध्ययन में भी एक क्रांति आयी । विज्ञान की स्थूल से सूक्ष्म की ओर ज्ञान-यात्रा प्रारम्भ हुयी । आयुर्वेदोक्त गुणसूत्रीय ज्ञान को पुनर्व्यवस्थित किया गया, Mitochondrial DNA lineages (Genes located in the 37-gene) को पाकर वैज्ञानिक उत्साहित हुये और उन्होंने नृवंश के विकास एवं विस्तार पर पुनः कार्य करना प्रारम्भ किया । उन्हें ज्ञात हुआ कि mt-DNA की अनुवंशिकता पूरी तरह माँ पर निर्भर करती है, पिता पर नहीं । अर्थात् माइटोकॉन्ड्रियल डी.एन.ए. से माँ के पूर्वजों का तो पता लगाया जा सकता है, पर पिता के पूर्वजों का नहीं, फिर चाहे वे भारतीय हों या विदेशी ।
टीवी वार्ताओं में छाये रहने वाले भारतीय राजनेताओं, प्रवक्ताओं, साहित्यकारों और इतिहासकारों को किसी वैज्ञानिक तथ्य या तार्किक चिंतन की आवश्यकता नहीं होती, वे जो भी चीख-चीख कर कहते हैं वही परम सत्य होता है । लोकतंत्र में झूठ के महिमामंडन की स्वतंत्रता और सत्य को बंदी बनाकर रखने की व्यवस्था होती है इसलिये वार्ताओं में झूठों और दुष्टों का बोलबाला रहता है, वे यह मान कर चलते हैं कि द्रविण, आदिवासी, बौद्ध और मुसलमान ही भारत के मूलनागरिक हैं, शेष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बाहर से आकर बसे आर्यों की संतानें हैं इसलिये उन्हें तो भारत से भगा देना चाहिये पर बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों को भारतीय नागरिकता दी जानी चाहिये ।
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