मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, विक्रम संवत् २०८२
सम्प्रदायप्रेमी मदनानी जीत गया, अमेरिकाप्रेमी ट्रम्प हारकर गहन विषाद में चला गया । न्यूयार्क के मुसलमान अल्ला-हू-अकबर के नारे लगा रहे हैं, वे आश्वस्त हैं कि अब न्यूयार्क में उन्हें कोई अपनी मनमानी करने से नहीं रोक सकेगा, क्योंकि अब उनका अपना शासन प्रारम्भ हो गया है । कुछ लोगों ने अमेरिका के झण्डे नोच कर फेक दिये, उनके साथियों ने इस्लामिक झण्डे लगा दिये । मदनानी ने मुसलमानों को यह भी आश्वस्त किया है कि यदि नेतन्याहू कभी न्यूयार्क आये तो वे उन्हें बंदी बना लेंगे । कट्टरपंथी मदनानी की जीत से उत्साहित अमेरिका के एक मौलवी ने तो यह भी माँग कर डाली कि अब न्यूयार्क में काफ़िरों पर जिजिया लगा देना चाहिये । यह पूरी तरह न्यायसंगत है और कुर-आन के दिशा निर्देशों के अनुसार भी । जो काफ़िर हमें जिजिया देंगे हम उनके जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा का उन्हें वचन देंगे, और उनके दिये जिजिया से अपने इस्लाम को और भी सुदृढ़ करेंगे ।
मुस्लिम राष्ट्रों के लोगों को मदनानी के रूप में एक ख़लीफ़ा मिल गया है, पर क्या अरब के मुसलमान भी यही सोचते हैं ? कदाचित् नहीं, वे तो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, अमेरिका, यूरोप और अफ़्रीका के मुसलमानों को मुसलमान ही नहीं मानते ।
ट्रम्प ने भारतीयों का अपमान किया, वीजा को लेकर भारतीय युवकों को बेड़ियों में जकड़कर सामग्री की तरह वापस भेजा; भारतीय उद्योगों को अपने नियंत्रण में लेने के लिये टैरिफ़ और अर्थदण्ड लगाया; भारत के प्रधानमंत्री का बारम्बार अपमान ही नहीं किया प्रत्युत उन्हें सत्ता से हटाने और यहाँ तक कि उनकी हत्या तक के प्रयास किये । ट्रम्प पूरे विश्व के लिये खलनायक बन गया । न्यूयार्क के भारतीयों ने ट्रम्प से प्रतिकार लेने के लिये मदनानी को चुना; इसलिये नहीं कि उन्हें मदनानी से कोई प्रेम है, प्रत्युत इसलिए कि उन्हें ट्रम्प से बैर है, …ठीक भारत में आपातकाल के पश्चात् हुये आमचुनावों की तरह । जनतादल से जो भी प्रत्याशी खड़ा हो गया, जनता ने उसे ही वोट दिया । जनता का उद्देश्य जनतादल को जिताने से अधिक कांग्रेस को हराना था । यह भीड़ की सहज प्रतिक्रिया का परिणाम था । जनतादल को सत्ता मिली पर अगले चुनाव में कांग्रेस पुनः सत्ता में वापस आयी जिसके दुष्परिणाम भारत की जनता को अद्यतन भोगने पड़ रहे हैं ।
आक्रोश में लिया जाने वाला प्रतिकार प्रतिक्रियात्मक होने से प्रायः कल्याणकारी नहीं होता । भीड़ की प्रतिक्रिया में गुण-दोष विवेचना, दूरदर्शिता और लोककल्याण के उद्देश्यों का अभाव होता है । न्यूयार्क के भारतीयों और यहूदियों की तरह ही सन् सात सौ बारह में भी सिंध के बौद्धों ने अपने राजा दाहिर को सत्ता से हटाने के लिये दाहिर के शत्रु मोहम्मद-इब्न-कासिम का सिंध में स्वागत किया जिसके दुष्परिणाम अखण्ड भारत के लोग आज तक भोग रहे हैं ।
ममदानी की माँ मीरा नायर वामपंथी विचारों से प्रेरित रही हैं जिन्हें मुम्बई के मुसलमानों का दुःख तो दिखायी दिया पर धारावी में रहने वाले दक्षिण भारतीय हिंदुओं का दुःख द्रवित नहीं कर सका । उन्होंने सलाम बॉम्बे, कामसूत्र और मिसीसिपी जैसी चर्चित और धनवर्षा करने वाली फ़िल्में बनायीं । वे फ़िलिस्तीन की समर्थक रही हैं, यहूदियों की नहीं, गोया कोई भारतीय पाकिस्तान का तो समर्थक हो पर भारत का नहीं । यह अपने पूर्वजों के तिरस्कार और विदेशी आक्रमणकारियों के स्वागत की कहानी है जो लगभग एक समान रूप से इज़्रेल और भारत में चित्रित होती रही है । सनातनी वंश में जन्म लेने वाली मीरा नायर कभी भारतीय नहीं हो सकीं, उनका पुत्र भी भारतीय हितों का घोर विरोधी है, यही कारण है कि ममदानी की विजय पर पूरे पाकिस्तान में हर्ष की उद्दाम लहरें हिलोरें मारने लगी हैं ।
वामपंथ ‘स्थापित परम्पराओं’ से विद्रोह कर ‘नयी परम्पराओं’ की स्थापना में विश्वास रखता है । कुछ धवल हो या न हो पर वह नित नवल अवश्य होना चाहिये, फिर वह रक्तक्रांति हो या छद्माक्रमण, पक्षपातपूर्ण आचरण हो या एकांगी दृष्टि, लिव-इन-रिलेशन हो या पतियों का आदान-प्रदान ।
पुनः न्यूयार्क वापस चलते हैं जहाँ कट्टरपंथी उत्साहित हैं और उदारपंथी भयभीत । समर्थन और विरोध की प्रतिक्रियायें सामने आ रही हैं, ट्रम्प अपनी सारी चालों के बाद अब हतप्रभ है और अदूरदर्शी न्यूयार्कियन भारतवंशी एवं यहूदी न्यूयार्क को मोहम्मद-इब्न-कासिम का विजित सिंध बनाकर मौन हो गये हैं; उन्हें पूर्ण विश्वास है कि वृक्ष कोई भी लगाया जाय, उसमें खिलेंगे तो पारिजात के ही पुष्प । वैचारिक पक्षाघात से ग्रस्त न्यूयार्क के भारतीयों और यहूदियों को अभी बहुत कुछ देखना और भोगना शेष है । जो अपने इतिहास की उपेक्षा करते हैं, समय उनकी उपेक्षा करता है । न्यूयार्क में जो हुआ, जो हो रहा है, जो होगा ...वह सब इतिहास के पृष्ठों में पहले भी लिखा जा चुका है, इस बार तो केवल पुनरावृत्ति ही होगी, कोई नवीनता नहीं ।
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