जो बनाते रहते हैं मुँह
दूसरों के बनावटीपन से
उन्हीं श्वेतकेशियों को
हमने तो बाल रँगते देखा है
कौवों को
हंस के वेश में देखा है
जो थकते नहीं बातें करते
दूरियाँ मिटाने की
उन्हीं लोगों को
दूरियाँ बढ़ाते देखा है ।
ट्रम्प को चाहिये पुरस्कार
शांति की स्थापना का
पर हमने तो
उन्हें दुनिया भर के देशों को
धमकियाँ देते देखा है
कौन नहीं जानता
कि दुनिया भर को अहर्निश
अशांत करने वाला भूरेलाल
वाशिंगटन डीसी में बैठा है ।
हमने तो रावण को साधु के वेश में
स्त्री का अपहरण करते देखा है
धूर्त लेखकों को
भारत का इतिहास रँगते देखा है
घृणा के पात्र हैं जो
उन्हें प्रशंसा पाते देखा है ।
हमने तो
निर्लिप्त रहने का
सुना है जिन्हें उपदेश देते
उन्हें भी
भोग में सर्वाङ्ग लिप्त देखा है ।
वंचना के विरोधियों को
उन्हीं के वंचक चरित्र के साथ झेला है ।
हमारी निर्धनता दूर करने की
शपथ लेने वालों को
हमारा ही धन लूटते देखा है ।
जो करते हैं
संविधान की रक्षा का प्रचार
उन्हें ही
संविधान की हत्या करते देखा है ।
और ...
जिन्होंने बंदी बना कर रखा है
घर की स्त्रियों को
ओढ़ाकर आपादमस्तक वस्त्र
उन्हीं के उपदेशक, मार्गदर्शक और पूज्य के
वंशजों की स्त्रियों को
सचल बंदीगृह से मुक्त होते देखा है ।
दुनिया ऐसी ही है
इतनी ही चित्र और विचित्र
इतने ही रंगों से रँगी
और इतनी ही बि-रंगी भी ।
सच कहूँ तो ये कविता हकीकत का आईना लगती है, यार। हर पंक्ति जैसे समाज की परतें उधेड़ देती है। झूठे मुखौटों, बनावटी अच्छाइयों और दोहरे चरित्र वाले लोगों की सटीक तस्वीर खींच दी है। पढ़ते-पढ़ते गुस्सा भी आता है और हँसी भी, क्योंकि सब कुछ इतना सटीक है कि झूठ नहीं बोल सकते।
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