अरबी शब्द अलतकिया (प्रच्छन्नता) का दुरुपयोग –
अरब के लोग प्रच्छन्नता (अल-तकिया) को प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यक्तिगत सुरक्षा के लिये प्रशस्त उपाय मानते रहे हैं । यह एक सुरक्षात्मक उपाय है जिसे केवल प्रतिकूल परिस्थितियों में ही किसी अन्याय या अत्याचार से बचने के लिये उपयोग में लाया जाता था, किंतु भारतीय उपमहाद्वीप में यह उसी रूप में नहीं है ।विषम स्थितियों में योजनापूर्वक संस्कारित(Medically modified)विष का उपयोग चिकित्सा जगत में किया जाता रहा है, यह सामान्य चिकित्सा के लिये नहीं है । सामान्य स्थितियों में इसका प्रयोग किया जाना कभी भी शुभ नहीं हो सकता । प्रारम्भ में यही सिद्धांत अल-तकिया(प्रच्छन्नता) के लिये भी व्यवहृत किया जाता रहा है जिसे अब धर्मसम्मत अनिवार्यता बना दिया गया । आज पूरे विश्व में अल-तकिया का दुरुपयोग अन्य सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के उन्मूलन के लिये किया जाने लगा है ।
भारत में निवास करने वाले जो विद्वेषीहिंदू और विदेशी घुसपैठिये भारतीय संस्कृति और सभ्यता को निकृष्ट मानकर उसके उन्मूलन में लगे हुये हैं उनके लिये ऋग्वेद का यह मंत्र नेत्रोन्मीलक हो सकता है –
“कृधी न ऊर्ध्वान् चरथाय जीवसे” – ऋग्वेद, १-३६-१४
हमें उन्नति और सुखद् जीवन के लिए उत्कृष्ट बनाइए, Make us noble for progress and happy life. …उत्कृष्ट बनाइये, उत्पीड़क और नरसंहारक नहीं, और इस कामना के लिये प्राकृतिक शक्तियों से प्रार्थना की गयी है । क्या यह वैदिक संस्कृति की उत्कृष्टता का प्रमाण नहीं!
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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.