सोमवार, 28 मार्च 2011

ब्लागिंग और साहित्य



        जंगल में किसी के घर बच्चा हुआ, शेर ने सुना तो ऐलान कर दिया कि बच्चे तो सिर्फ शेर के घर में ही पैदा हो सकते हैं और किसी को यह हक है ही नहीं. खबरिया ने कहा- हुज़ूर किसी नए प्राणी के रोने की आवाज़ तो हमने भी सुनी है. शेर ने स्पष्ट घोषणा कर दी  - किन्तु यदि किसी के घर कुछ पैदा हुआ भी है तो  न तो हम उसे  पैदा होने की श्रेणी में रख सकते हैं और न किसी प्राणी की श्रेणी में. जंगल के लोग हैरान-परेशान ....राजा ने तो हमारे अस्तित्व को ही नकार दिया है . कुछ लोगों ने भुनभुना कर कहा ..वाह ऐसा कैसे हो सकता है ! हम भी बच्चे पैदा कर सकते हैं , हमारी बच्चे पैदा करने की घटना को भी "प्रसव " की श्रेणी में लिया जाना चाहिए . और हमें  एक प्राणी की तरह सम्मान मिलना ही चाहिए . पूरे जंगल में अस्तित्व रक्षा का प्रश्न एक बड़ा इश्यू बन गया. 
      नया ज़माना .....नयी तकनीक ........नयी समस्याएं ....नए विमर्श..... नए अस्तित्व ...सब कुछ नया-नया. उठा-पटक चालू आहे. पुराने और नए में एक मौन संघर्ष छिड़ गया है. सुस्थापित और नवागत में स्थापना की ज़द्दोज़हद हो रही है. भारतीय रेल के तृतीय श्रेणी के डिब्बे में भीड़ है. रेल एक स्टेशन पर रुकती है. प्लेटफार्म पर जाने वालों की भीड़ है. बाहर वाले अन्दर घुसना चाहते हैं अन्दर वाले किसी को घुसने नहीं देना चाहते. उन्हें खीझ हो रही है यह रेल आखिर रुकती ही क्यों है कहीं, सीधे चली क्यों नहीं चलती. पर ऐसा संभव नहीं है इसलिए ज़द्दोज़हद चालू आहे.    
     इधर भी मंथन चालू आहे.  इस मंथन से निश्चित ही कुछ नया निकलने वाला है. और जो भी निकलेगा, अच्छा ही होगा. बात है साहित्य और ब्लागिंग की. किसका अस्तित्व है और  किसका नहीं ? कौन साहित्य है और कौन नहीं है ? और अंत में ब्लागिंग को साहित्य का दर्ज़ा दिलाने की ज़द्दोज़हद. शायद नेट न आया होता तो यह विमर्श भी न हुआ होता. तो हम कह सकते हैं कि नेट की सर्वसुलभता ने लेखन / बतकही के नए द्वार खोल दिए हैं. अब बात साहित्य की आ जाती है कि क्या बतकही को साहित्य माना जाय ? 
      एक समारोह में इसी से मिलता-जुलता एक प्रश्न किसी ने उठाया था, क्या क्षेत्रीय बोलियों को भाषा का दर्ज़ा दिया जा सकता है? 
   मेरा तो मत है कि ब्लोगिंग एक खुला रंग मंच है जहाँ  रंग कर्मी और दर्शक आमने-सामने होते हैं, जबकि साहित्य वह रजत पटल है जहाँ लेखक और पाठक के बीच एक निश्चित दूरी होती है. निश्चित ही, ब्लागिंग ......."एक स्तरीय ब्लागिंग" ........रंगमंच की तरह अपनी अलग कठिनाइयों और शर्तों के साथ जीती है. साहित्य की रचना और प्रस्तुतीकरण उतनी दुरूह तो नहीं पर व्ययसाध्य अवश्य है ....समय, बुद्धि, धैर्य, धन ...सबका व्यय. 
    पर यहाँ मेरा स्पष्ट संकेत इस ओर भी है कि रजत पटल को लगभग सारे अच्छे कलाकार रंगमंच से ही मिले  हैं. कारण सीधा सा है, रंग कर्मी को अपने प्रदर्शन में बहुत सावधान रहना होता है ..वहां रीटेक की कोई गुंजाइश नहीं. जो एक बार सामने आ गया वह बन्दूक की गोली की तरह अब वापस नहीं जाएगा. रजत पटल के लिए अभिनय करना रंगमंच के अभिनय की अपेक्षा सरल है. 
     खेत और खलिहान के बीच की लड़ाई को मैं एक व्यर्थ की लड़ाई मानता हूँ.  ब्लागिंग एक उर्वर खेत की तरह है जिसमें कुछ भी बोया जा सकता है ....यह बात अलग है कि जो बोया गया है वह कितना उपादेय और कालजयी है ? यहाँ जुताई-बोवाई और निराई-गुडाई से लेकर फसल की गहाई तक की व्यवस्था है. जो जैसा बोयेगा वह वैसा ही काटेगा. यहाँ अफीम की खेती भी है और गेहूं और गुलाब की भी. पर इतना तय है कि इस बदलते परिदृश्य में परिभाषाएं कुछ तो बदलेंगी ही. बदलते ज़माने के साथ लोगों ने समझौता किया और बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राजनीति के रिहर्सल के लिए नए बछड़ों को छात्र-संघ के चुनाव में कुदा दिया गया. अब लोग सारे तिकड़म सीखकर राजनीति में कदम रखते हैं . अब उन्हें चुनाव के हथकंडों में कुछ भी नयापन नहीं लगता. कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में साहित्य सृजन के अभिलाषियों को रिहर्सल के लिए पहले ब्लागिंग में उतरना पड़े. बहरहाल, ब्लागिंग को साहित्य के एक नए आयाम की उर्वर भूमि मानने में कोई हर्ज़ नहीं है. और आने वाले समय में इसी ब्लागिंग के खेत से कालजयी साहित्यकार जन्म लेने वाले हैं इसमें कोई संशय नहीं है.  
   चलते-चलते एक बात और, साहित्य सृजन का क्षेत्र भी अब खुली प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार हो गया है. ज़ाहिर है कि प्रतिस्पर्धाओं से गुणात्मकता में चार चाँद लगते ही हैं. प्राचीन भारतीय कालजयी साहित्य जब रचा गया तब .आम आदमी  की सहभागिता  वाला लोक साहित्य (उस ज़माने की ब्लागिंग कह सकते हैं आप) भी खूब प्रचलित था ....आज वैसा कालजयी साहित्य कहाँ मिलता है ! लोकगीत तो लगभग समाप्त ही हो गए हैं अब. कालजयी साहित्य को पोषण कहाँ से मिलेगा ? पर अब आज की आधुनिक ब्लागिंग से प्रकाश की एक किरण दिखाई दे रही है मुझे. शर्त यह है कि सर्जक अपनी भूमिका और प्राथमिकताएं तय कर अपनी श्रेष्ठता के साथ मैदान में उतरे.  

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!
    एकदम नए सोच के साथ उत्तम समीक्षा पेश की है आपने। मन खुश गहो गया पढकर।
    आपकी हरेक बात से सहमत।

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  2. ‘ब्लागिंग और साहित्य’ ...बड़ी बारीकी से व्याख्यायित किया है आपने।

    आपको हार्दिक बधाई।

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  3. एक नया विषय जुड गया है यह भी.. आपका भी विश्लेषण देखा और पसंद आया.. सहमत हूँ आपके विचारों से!!

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  4. ब्लोगिंग और साहित्य पर श्रेष्ठ मंथन. सभी को पसंद आने वाली नपी-तुली समीक्षा. नये विचारों की झलक मिली आपके विश्लेषण में.

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.