भारतीय कृषि ने दिया विश्व को हल का उपहार
विश्व को हल का उपहार देने वाले भारत को किसी समय अमेरिका से गेहूं का आयात करना पड़ा था, दालों के लिए हम अभी भी आत्मनिर्भर नहीं हो सके हैं...किन्तु यह स्थिति सदा से ऐसे नहीं थी. भारत में उन्नत कृषि के प्रमाणों का संकलन अंग्रेजों द्वारा किया गया है. आज यह सब लिखने का अभिप्राय यह है कि हम यह जानें कि भारत में कृषि प्रणालियों की मौलिकता रही है और शेष विश्व ने भारत से इस ज्ञान को सीखा है. इस गौरव को जानकार कदाचित हमारा स्वाभिमान जागृत हो और हमारा आत्म विश्वास लौट आये. पश्चिमी देशों के पिछलग्गू बने रहने से हमारा काम नहीं चलने वाला. हमें अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ....अपने संसाधनों से अपनी तकनीकें विकसित करनी होंगी.
अलेक्ज़ेंडर वाकर(1734-1839) भारत में आंग्ल सेना में ब्रिगेडियर जनरल थे, उन्होंने टीपू सुलतान के विरुद्ध हुए अंतिम युद्ध में भाग लिया था. अपने भारत प्रवास के अनन्तर वाकर महोदय ने अरबी, फारसी और संस्कृत की बहुमूल्य पांडुलिपियों का संकलन किया था जिन्हें उनके पुत्र सर विलियम द्वारा १८४५ में वोडलेन (ऑक्सफोर्ड) को भेंट कर दिया गया जहाँ ये विशिष्ट संग्रह के रूप में उपलब्ध हैं.
मालाबार में रहते हुए, १८२० में वाकर महोदय ने लिखा -" सामान्यतः हिन्दुओं द्वारा की जाने वाली कृषि को यूरोपीय लोगों द्वारा दोषपूर्ण बताया गया है. उनका यह दृष्टिकोण कितना औचित्यपूर्ण है ? मालाबार का कृषि व्यवसाय उनके अपने इतिहास से अधिक प्राचीन है. उनका पवित्र पशु गाय और बैल के प्रति सम्मान तथा श्रद्धा भाव भी कृषि कर्म के प्रति उनकी सेवा व श्रद्धा के द्योतक हैं. हमें इस तथ्य पर भी अच्छी तरह विचार करना है कि धान भारत का महत्वपूर्ण शस्य है परन्तु उनके लिए हमारी यूरोपीय पद्यति कितनी अनुकूल है ? जबकि धान की कृषि करने का यूरोपियों को कोई अनुभव नहीं रहा है. ....यहाँ केला एक ऐसा फल है जो कि आहार में अत्यंत पौष्टिक होता है. भारत के कई भागों में आलू पैदा किया जाता है. मैंने देखा है कि ब्राह्मण उसका उपयोग भोजन के रूप में करते हैं. घुइयाँ (अरबी, कुचई) भी उतनी ही सुस्वादु और पौष्टिक होती है. मुझे यह समझ में नहीं आता कि भारत को हम इस तरह की क्या भेंट दे सकते हैं ? उनके पास वे सभी अनाज हैं जो हमारे पास हैं, प्रत्युत उससे भी अधिक हैं ..........हमारे अधिकाँश फल अत्यधिक खट्टे होते हैं , तथा वे इस मौसम में अंकुरित ही नहीं होंगे."
" हिन्दुओं ने एक बड़े लम्बे समय से वपित्र (फालयुक्त हल) का आविष्कार किया हुआ है. मालाबार के लोग कृषि कार्यों के उद्देश्यों के अनुरूप विभिन्न यंत्रों-उपकरणों का प्रयोग करते आये हैं जो हमारे आधुनिक सुधारों के कारण अब इंग्लैण्ड में भी प्रयुक्त होने लगे हैं. भारतीय कृषकों के कुछ कृषि उपकरणों को अपूर्ण सिद्ध करने की बात की जा सकती है पर यथार्थ यह है कि वे अपनी कला में पूर्णता प्राप्त हैं. ................हिन्दू कृषकों के हलों की तरह ग्रीक व मिस्रवासियों के हलों में फाल नहीं होती. दक्षिण फ्राँस तथा उष्ण देशों में इसी प्रकार के हल प्रयुक्त होते हैं. इसी अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि खेत जोतने का आरम्भ भी उन्हीं देशों ने किया होगा जिनकी भूमि हलकी तथा गीली मिट्टी युक्त रही होगी. ग्रीकवासी कृषि के आविष्कर्ता के रूप में 'बच्छू' नामक पुरुष को मानते हैं. उनकी मान्यता के अनुसार 'बच्छू' ही पहला व्यक्ति था जो भारत से यूरोप में सर्वप्रथम बैलों को लेकर आया."
'बच्छू' शब्द वत्स या बछड़े का अपभ्रंश सा प्रतीत होता है. संभव है कि भारत से गायों के बछड़ों को यूरोप ले जाने वाले व्यक्ति को उन्होंने 'बच्छू ' नामसे संबोधित किया हो .
" पूरे यूरोप में हल का पहली बार प्रयोग ऑस्ट्रिया देश के केरेंथिया नामक स्थान पर जोसेफ लोकाटेली नामक व्यक्ति द्वारा सन १६६२ में किया गया था. इंग्लैण्ड में इसका प्रयोग सन १७३० में प्रारम्भ तो हुआ पर इसके व्यापक रूप में प्रचलन में आने में लगभग ५० वर्ष और लग गए."
आज इक्कीसवीं शताब्दी के सन्दर्भ में देखें तो यूरोपियों का झुकाव जैविक कृषि की ओर होता जा रहा है. रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर गोबर, नीम की खली एवं केचुओं से निर्मित उर्वरकों के प्रयोग को महत्त्व दिया जाने लगा है. जैव तकनीक से बीजभाग में रूपांतरित (जेनेटिकली मोडीफाइड) शस्यों के दुष्प्रभावों से पश्चिमी जगत ने तो सबक सीख लिया,पर दुर्भाग्य से भारत यह सबक अभी तक नहीं सीख सका. विश्व को कृषिकार्य सिखाने वाला भारत कृषि के लिए इज़रायल एवं पश्चिमी देशों की ओर देख रहा है. कोई आश्चर्य नहीं कि इस शताब्दी के उत्तरार्ध तक यूरोप में ट्रेक्टर के स्थान पर बैलों का प्रचलन बढ़ जाय, क्योंकि यह अधिक प्राकृतिक एवं कल्याणकारी है. और अब वे लोग इसे समझने लगे हैं बस जिस दिन वे इसे स्वीकार भी कर लेंगे कृषि का पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा.
यूरोप में 1662 से पूर्व हल के अभाव में कृषि कैसे की जाती रही होगी इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है. तब अमेरिका में तो हल और भी बाद में गया होगा. और आज स्थिति यह है कि खाद्यान के मामले में हम पूरी तरह आत्म निर्भर नहीं हो सके हैं. यह लज्जास्पद स्थिति है. हमारे देश की आवश्यकताओं के अनुरूप अपना विकास करने में हम सक्षम हैं ...यह आत्मगौरव जगाना होगा.
मालाबार में रहते हुए, १८२० में वाकर महोदय ने लिखा -" सामान्यतः हिन्दुओं द्वारा की जाने वाली कृषि को यूरोपीय लोगों द्वारा दोषपूर्ण बताया गया है. उनका यह दृष्टिकोण कितना औचित्यपूर्ण है ? मालाबार का कृषि व्यवसाय उनके अपने इतिहास से अधिक प्राचीन है. उनका पवित्र पशु गाय और बैल के प्रति सम्मान तथा श्रद्धा भाव भी कृषि कर्म के प्रति उनकी सेवा व श्रद्धा के द्योतक हैं. हमें इस तथ्य पर भी अच्छी तरह विचार करना है कि धान भारत का महत्वपूर्ण शस्य है परन्तु उनके लिए हमारी यूरोपीय पद्यति कितनी अनुकूल है ? जबकि धान की कृषि करने का यूरोपियों को कोई अनुभव नहीं रहा है. ....यहाँ केला एक ऐसा फल है जो कि आहार में अत्यंत पौष्टिक होता है. भारत के कई भागों में आलू पैदा किया जाता है. मैंने देखा है कि ब्राह्मण उसका उपयोग भोजन के रूप में करते हैं. घुइयाँ (अरबी, कुचई) भी उतनी ही सुस्वादु और पौष्टिक होती है. मुझे यह समझ में नहीं आता कि भारत को हम इस तरह की क्या भेंट दे सकते हैं ? उनके पास वे सभी अनाज हैं जो हमारे पास हैं, प्रत्युत उससे भी अधिक हैं ..........हमारे अधिकाँश फल अत्यधिक खट्टे होते हैं , तथा वे इस मौसम में अंकुरित ही नहीं होंगे."
" हिन्दुओं ने एक बड़े लम्बे समय से वपित्र (फालयुक्त हल) का आविष्कार किया हुआ है. मालाबार के लोग कृषि कार्यों के उद्देश्यों के अनुरूप विभिन्न यंत्रों-उपकरणों का प्रयोग करते आये हैं जो हमारे आधुनिक सुधारों के कारण अब इंग्लैण्ड में भी प्रयुक्त होने लगे हैं. भारतीय कृषकों के कुछ कृषि उपकरणों को अपूर्ण सिद्ध करने की बात की जा सकती है पर यथार्थ यह है कि वे अपनी कला में पूर्णता प्राप्त हैं. ................हिन्दू कृषकों के हलों की तरह ग्रीक व मिस्रवासियों के हलों में फाल नहीं होती. दक्षिण फ्राँस तथा उष्ण देशों में इसी प्रकार के हल प्रयुक्त होते हैं. इसी अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि खेत जोतने का आरम्भ भी उन्हीं देशों ने किया होगा जिनकी भूमि हलकी तथा गीली मिट्टी युक्त रही होगी. ग्रीकवासी कृषि के आविष्कर्ता के रूप में 'बच्छू' नामक पुरुष को मानते हैं. उनकी मान्यता के अनुसार 'बच्छू' ही पहला व्यक्ति था जो भारत से यूरोप में सर्वप्रथम बैलों को लेकर आया."
'बच्छू' शब्द वत्स या बछड़े का अपभ्रंश सा प्रतीत होता है. संभव है कि भारत से गायों के बछड़ों को यूरोप ले जाने वाले व्यक्ति को उन्होंने 'बच्छू ' नामसे संबोधित किया हो .
" पूरे यूरोप में हल का पहली बार प्रयोग ऑस्ट्रिया देश के केरेंथिया नामक स्थान पर जोसेफ लोकाटेली नामक व्यक्ति द्वारा सन १६६२ में किया गया था. इंग्लैण्ड में इसका प्रयोग सन १७३० में प्रारम्भ तो हुआ पर इसके व्यापक रूप में प्रचलन में आने में लगभग ५० वर्ष और लग गए."
आज इक्कीसवीं शताब्दी के सन्दर्भ में देखें तो यूरोपियों का झुकाव जैविक कृषि की ओर होता जा रहा है. रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर गोबर, नीम की खली एवं केचुओं से निर्मित उर्वरकों के प्रयोग को महत्त्व दिया जाने लगा है. जैव तकनीक से बीजभाग में रूपांतरित (जेनेटिकली मोडीफाइड) शस्यों के दुष्प्रभावों से पश्चिमी जगत ने तो सबक सीख लिया,पर दुर्भाग्य से भारत यह सबक अभी तक नहीं सीख सका. विश्व को कृषिकार्य सिखाने वाला भारत कृषि के लिए इज़रायल एवं पश्चिमी देशों की ओर देख रहा है. कोई आश्चर्य नहीं कि इस शताब्दी के उत्तरार्ध तक यूरोप में ट्रेक्टर के स्थान पर बैलों का प्रचलन बढ़ जाय, क्योंकि यह अधिक प्राकृतिक एवं कल्याणकारी है. और अब वे लोग इसे समझने लगे हैं बस जिस दिन वे इसे स्वीकार भी कर लेंगे कृषि का पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा.
यूरोप में 1662 से पूर्व हल के अभाव में कृषि कैसे की जाती रही होगी इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है. तब अमेरिका में तो हल और भी बाद में गया होगा. और आज स्थिति यह है कि खाद्यान के मामले में हम पूरी तरह आत्म निर्भर नहीं हो सके हैं. यह लज्जास्पद स्थिति है. हमारे देश की आवश्यकताओं के अनुरूप अपना विकास करने में हम सक्षम हैं ...यह आत्मगौरव जगाना होगा.
हमारे पास संसाधन है । मैन पॉवर है , फिर भी हम पिछड़े हुए हैं । निश्चय ही आत्मगौरव जगाने की ज़रुरत है।
जवाब देंहटाएंभारत में कृषि प्रणालियों की मौलिकता रही है और शेष विश्व ने भारत से इस ज्ञान को सीखा है. इस गौरव को जानकार कदाचित हमारा स्वाभिमान जागृत हो और हमारा आत्म विश्वास लौट आये. पश्चिमी देशों के पिछलग्गू बने रहने से हमारा काम नहीं चलने वाला. हमें अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ....अपने संसाधनों से अपनी तकनीकें विकसित करनी होंगी.
जवाब देंहटाएंविचारणीय पोस्ट ....!!
सिर्फ़ हल ही क्यों, बहुत से आविष्कारों में भारत अग्रणी रहा है और विश्व को बहुत सी सौगातें भारत भूमि से मिली हैं। हमारा दुर्भाग्य है कि हम लोगों की बौद्धिक कंडीशनिंग इस तरह की हो चुकी है कि अपनी हर चीज हमें पिछड़ी हुई लगती है। उसी बात पर जब बाहरी दुनिया की मुहर लग जाती है तो फ़िर बेशक कुछ तत्व नजर आये।
जवाब देंहटाएंअभी तो ग्लोबलाईज़ेशन के रंग में ऐसे रंगे हैं हम लोग कि आत्मगौरव बहुत दूर की कौड़ी लगती है।
आपके आह्वान को हमारी शुभकामनायें।
मेरा भारत महान!
जवाब देंहटाएंकेवल प्राचीन काल में?! जब योगियों ने 'शून्य' दिया संसार को,,, संख्या ० से ९ ही नहीं ( १, सूर्य यानी अदिति का, और ९ सूर्यपुत्र शनि का!) अपितु शून्य काल से सम्बंधित निराकार नादब्रह्म का ज्ञान भी!,,,
और शून्य से आरम्भ कर विष्णु के अवतार अनंत 'कृष्ण' के मुंह में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाया होना भी! ...
द्वापर युग की 'महाभारत' की कथा में, मानव रूप में अनंत शिव के प्रतिरूप कृष्ण ने भी धनुर्धर अर्जुन (सूर्य के प्रतिरूप) को 'निमित्त मात्र' कहते दर्शाया ज्ञानियों ने,,,संकेत करते कि हर युग में हर युग के प्रतिनिधि समान यंत्र हो सकते हैं जैसे आज कलयुग में कई जेनेरेशन के कल, यानि मशीन व कम्प्यूटर पाए जाते हैं (हल से ट्रैक्टर आदि)...
त्रेता युग में राजा जनक ने भी हल चला सीता को घड़े में रखा पाया था!
जबकि आज महाराष्ट्र में ही पिछले १३ वर्षों में लगभग २ लाख किसान आत्म हत्या कर चुके हैं!...आदि आदि...
सोचने के लिये मज़बूर करता आलेख.......बधाई....
जवाब देंहटाएंऐतिहासिक तथ्यों के माध्यम से आपने बहुत ही नई जानकारी दी।
जवाब देंहटाएंडॉक्टर साहब!अकूत संपदा के ढेर पर बैठे हुए भिखारियों सी स्थिति है हमारी... काश आपकी बातें उन तक पहुँच पातीं जिन्हें इस महानता का भान तभी होता है जब चचा सैम अपना ठप्पा लगा दें..
जवाब देंहटाएंअनमोल लिख है यह!!