वाणी ईश्वर का अनमोल वरदान है. इसकी वैज्ञानिकता जटिल और अद्भुत है, इसीलिये इसके रचयिता के प्रति नत मस्तक होना पडा था महाकवि कालिदास को -
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये.
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ .
पुस्तक वाचन की प्रक्रिया में अक्षर (लिपि) से वाणी और वाणी से अर्थ तक की यात्रा मस्तिष्क की जटिल प्रक्रियाओं में से एक है और अद्भुत भी.
अक्षर को 'ब्रह्म' कहा है ज्ञानियों ने, यह ऊर्जा का स्थितिज (potential ) रूप है .....वाणी इसका गत्यात्मक (kinetic) रूप है, मन्त्र की शक्ति का यही रहस्य है. मन्त्र सिद्धि की प्रक्रिया स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में रूपांतरित करने की प्रक्रिया है ....किन्तु इस विषय पर फिर कभी. अभी तो वाणी पर ही चर्चा अभीष्ट है.
कभी ध्यान दिया है आपने, भाषण देते या वार्ता करते समय जब शब्द या विचार कहीं खो से जाते हैं तो 'अs' या 'ऊँ s s s ' के सम पर अटक कर कुछ खोजते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं हम सब ......यह एक सहज मानवीय अभ्यास है . किन्तु प्रश्न यह है कि 'अ' या 'ऊँ' ही क्यों ? कोई अन्य अक्षर क्यों नहीं ?
मानवीय वाणी की शरीरक्रिया (physiology of the speech), मानव की सर्व प्राणियों में श्रेष्ठता, स्वर और भाषा की वैज्ञानिकता तथा ईश्वर की रचना-क्रिया के मध्य एक निश्चित सम्बन्ध है. इस सम्बन्ध के चिंतन......विश्लेषण में जब डूबते हैं तो आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहा जाता.
जो संस्कृत एवं आर्य भाषाओं में 'अ' है वही रोमन भाषाओं में 'A ' के रूप में है. मध्य एशिया की भाषाओं में वही 'अलिफ़' है तो ग्रीक भाषा में वही 'अल्फा' बन कर प्रकट होता है.
'अ' आदि है - भाषा का ....स्वर का ....सृष्टि का. 'अ' के अतिरिक्त शेष सभी अक्षर अपूर्ण हैं. 'अ' के मिलने से ही पूर्ण होते हैं सब.
'अ' आदि है और अंत भी; 'अ' जीवन है और मोक्ष भी; 'अ' स्वीकार है और निषेध भी; 'अ' पूर्ण है और पूरक भी. 'अ' अन्धकार में प्रकाश है. अटकने-भटकने पर यही 'अ' मार्ग देता है ....आगे बढ़ने का सेतु बनकर.
'अ' से प्रारम्भ होकर 'अ' में ही विलीन हो जाती है सृष्टि. ब्रह्म है यह, ॐ भी, अल्लाह और आमीन भी. कभी यह आश्चर्यचकित करता है हमें ...और कभी रहस्य प्रकट करके समाधान भी करता है.
देश, जाति, धर्म, रीति......नीति सबसे अप्रभावित 'अ' अखंड है ...अनंत है. चाहकर भी कोई त्याग नहीं सकता इसे.
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को गति देने वाला 'अ' सभी को एक सूत्र में पिरोकर बाँधता है. आश्चर्य है, फिर क्यों बँट गए लोग ...देश के नाम पर ...भाषा के नाम पर ....जाति के नाम पर .....?
'अ' की ऊर्जा के अभाव में किस पूर्णता को पाया जा सकेगा ?
....नहीं ...ब्रह्म के टुकड़े नहीं हो सकते, अखंड को खंडित नहीं कर सकते आप ....जन्म से मृत्यु के मध्य ....कभी नहीं. तब .......? क्यों झगड़ते हैं लोग ..........? क्यों होता है रक्तपात .........? क्यों होते हैं युद्ध ..........? क्यों होती है अनास्था ..........? क्यों उगते हैं वाणी में कंटक .........? प्रेम क्यों नहीं झरता वाणी से ...? वह भी तो हमारे ही हाथ में है न !
हाँ ! यह अहम् है ...निज का अहम्............खंड का अहम् ........अखंड की सत्ता को स्वीकार न करने का अहम्. इसी अहम् की रक्षा के लिए बनते और टूटते हैं देश, बँटते हैं लोग ...और बिगड़ते हैं सम्प्रदाय. आज, भूमंडलीकरण के इस युग में यदि 'अ' की आस्था से डिग गए हम .....तो हमारा अंत अधिक दूर नहीं रह जाएगा. ............और इस बार जब प्रलय होगी तो व्यापक होगी वह.
आस्था के संकट से उबर कर बाहर आना होगा सबको- जीवन की रक्षा के लिए .....जीवन की सुन्दरता के लिए .......ईश्वर की सृष्टि के लिए. और इसके लिए सहज-सरल उपाय है वाणी की मधुरता.
मानवीय वाणी की शरीरक्रिया (physiology of the speech), मानव की सर्व प्राणियों में श्रेष्ठता, स्वर और भाषा की वैज्ञानिकता तथा ईश्वर की रचना-क्रिया के मध्य एक निश्चित सम्बन्ध है. इस सम्बन्ध के चिंतन......विश्लेषण में जब डूबते हैं तो आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहा जाता.
जो संस्कृत एवं आर्य भाषाओं में 'अ' है वही रोमन भाषाओं में 'A ' के रूप में है. मध्य एशिया की भाषाओं में वही 'अलिफ़' है तो ग्रीक भाषा में वही 'अल्फा' बन कर प्रकट होता है.
'अ' आदि है - भाषा का ....स्वर का ....सृष्टि का. 'अ' के अतिरिक्त शेष सभी अक्षर अपूर्ण हैं. 'अ' के मिलने से ही पूर्ण होते हैं सब.
'अ' आदि है और अंत भी; 'अ' जीवन है और मोक्ष भी; 'अ' स्वीकार है और निषेध भी; 'अ' पूर्ण है और पूरक भी. 'अ' अन्धकार में प्रकाश है. अटकने-भटकने पर यही 'अ' मार्ग देता है ....आगे बढ़ने का सेतु बनकर.
'अ' से प्रारम्भ होकर 'अ' में ही विलीन हो जाती है सृष्टि. ब्रह्म है यह, ॐ भी, अल्लाह और आमीन भी. कभी यह आश्चर्यचकित करता है हमें ...और कभी रहस्य प्रकट करके समाधान भी करता है.
देश, जाति, धर्म, रीति......नीति सबसे अप्रभावित 'अ' अखंड है ...अनंत है. चाहकर भी कोई त्याग नहीं सकता इसे.
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को गति देने वाला 'अ' सभी को एक सूत्र में पिरोकर बाँधता है. आश्चर्य है, फिर क्यों बँट गए लोग ...देश के नाम पर ...भाषा के नाम पर ....जाति के नाम पर .....?
'अ' की ऊर्जा के अभाव में किस पूर्णता को पाया जा सकेगा ?
....नहीं ...ब्रह्म के टुकड़े नहीं हो सकते, अखंड को खंडित नहीं कर सकते आप ....जन्म से मृत्यु के मध्य ....कभी नहीं. तब .......? क्यों झगड़ते हैं लोग ..........? क्यों होता है रक्तपात .........? क्यों होते हैं युद्ध ..........? क्यों होती है अनास्था ..........? क्यों उगते हैं वाणी में कंटक .........? प्रेम क्यों नहीं झरता वाणी से ...? वह भी तो हमारे ही हाथ में है न !
हाँ ! यह अहम् है ...निज का अहम्............खंड का अहम् ........अखंड की सत्ता को स्वीकार न करने का अहम्. इसी अहम् की रक्षा के लिए बनते और टूटते हैं देश, बँटते हैं लोग ...और बिगड़ते हैं सम्प्रदाय. आज, भूमंडलीकरण के इस युग में यदि 'अ' की आस्था से डिग गए हम .....तो हमारा अंत अधिक दूर नहीं रह जाएगा. ............और इस बार जब प्रलय होगी तो व्यापक होगी वह.
आस्था के संकट से उबर कर बाहर आना होगा सबको- जीवन की रक्षा के लिए .....जीवन की सुन्दरता के लिए .......ईश्वर की सृष्टि के लिए. और इसके लिए सहज-सरल उपाय है वाणी की मधुरता.
थोडा सा भिन्न है मेरा मत
जवाब देंहटाएंॐ अपूर्ण नहीं है..मेरी जानकारी के अनुसार पृथ्वी के अपने धुरी पर घुमने से जो स्वर निकलता है वो हैं ॐ..
इसको योगियों नए ध्यान लगाकर योग की शक्ति से पाया था..
सुन्दर रचना..हमेशा अलग कुछ मिलता है आप के ब्लॉग पर
आशुतोष की कलम से....: मैकाले की प्रासंगिकता और भारत की वर्तमान शिक्षा एवं समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :
सरल भाषा में एक जटिल विषय की अद्भुत प्रस्तुति.. वाणी की मधुरता का महत्व जो समझ गया वही ज्ञानी है..
जवाब देंहटाएंऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय,
औरन को सीतल करे, आपहू सीतल होय!!
निसंदेह वाणी की मधुरता से जग जीता जा सकता है। और वाणी में मिठास , ह्रदय में स्नेह होने पर ही आती है।
जवाब देंहटाएंजानकारी से परिपूर्ण लेख.....
जवाब देंहटाएंसंसार में न कुछ भला है न बुरा, केवल वाणी ही उसे भला-बुरा बना देते हैं। बहुत सुंदर आलेख।
जवाब देंहटाएंअनूठी जानकारी से भरा बेहद ही रोचक आलेख.....
जवाब देंहटाएंसच में वाणी की महिमा अपरंपार है........देखिये ना कौशलेन्द्र जी यह भी आपकी वाणी का ही तो कमाल है कि हम सब उसे सुनने आपके इस जंगल में चले आते हैं.........
बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंकिन्तु जैसा ज्ञानी कह गए, शब्द सत्य का वर्णन करने में असमर्थ हैं :(और "समझदार के लिए इशारा ही काफी है")
इस कारण हमें शायद ध्यान देना होगा कि हमारे पूर्वज प्राचीन हिन्दुओं ने, जिन्होंने 'माता सरस्वती' की कृपा से अनंत के वर्णन के लिए वर्णमाला भी गूंथी, नादबिन्दू परम ब्रह्मा निराकार सृष्टिकर्ता, द्वारा रचित 'माया', अथवा 'योगमाया', शब्दों का प्रयोग कर हमें चेताया था कि यद्यपि हम सभी निराकार ईश्वर का प्रतिरूप (शक्ति और शरीर के योग) हैं, हम साधारणतया मायाजाल को तोड़ पाने में अक्षम हैं,,,उन्होंने यह भी जाना कि मायाजाल को तोड़ पाना भी सभी प्राणीयों में केवल मानव रूप में ही संभव है,,, किन्तु उस का जीवन काल सीमित है,,, और क्यूंकि 'प्रलय' भी कभी भी हो सकती है, हर व्यक्ति का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वो, जितनी जल्दी संभव हो, 'माया' से पार पाले ("जो काल करे सो आज कर/ आदि")...और यद्यपि ईश्वर शून्य भी है और अनंत भी, 'अनंत वाद' हमें भटकाता है, आवश्यकता है उसके सार में पहुँचने की ("हरी अनंत/ हरी कथा अनंता,,, आदि ",,, "सत्यम शिवम् सुंदरम")...
हाँ ! यह अहम् है ...निज का अहम्............खंड का अहम् ........अखंड की सत्ता को स्वीकार न करने का अहम्. इसी अहम् की रक्षा के लिए बनते और टूटते हैं देश, बँटते हैं लोग ...और बिगड़ते हैं सम्प्रदाय.
जवाब देंहटाएंbaba....ab aapke likhe ko aaaknaa yaa uspe koi coment denaa...main khudm ko is layak nhi smjhti,..........
hmeshaa ki trhaa prbhaawshaali
haan...ye chundiaaa liness ...mujhe bahutttttt jydaaaaaaa psnd aayi