शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

.......और काम कर गयी मैकाले की धमकी

       विकास के दो प्रमुख सोपान हैं -शिक्षा और संस्कार. बल्कि मैं इसे संस्कारयुक्त शिक्षा कहना अधिक पसंद करूंगा. औद्योगिक क्रान्ति ने आधुनिक शिक्षा में परिवर्तन और प्रयोग की आवश्यकता पर बल दिया जिसके कारण समय-समय पर शिक्षा में अनेकों परिवर्तन और प्रयोग किये जाते रहे हैं. प्रयोगधर्मिता मनुष्य का विकासात्मक गुण है इसलिए प्रयोग किया जाना आवश्यक है ......किन्तु विकास की दिशा सुनिश्चित करना उससे भी अधिक आवश्यक है. आज शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग ही प्रयोग हो रहे हैं .....पर अभी तक कोई अच्छा परिणाम सामने नहीं आ पाया. बल्कि परिणाम के नाम पर भटकाव ही अधिक मिला है. शिक्षा का गिरता स्तर, गिरते मानवीय मूल्य, बढ़ता भ्रष्टाचार ...इन सबने हमारी वर्त्तमान शिक्षा के औचित्य पर एक सवाल खड़ा कर दिया है. शिक्षा के क्षेत्र में हमारा अतीत गौरवशाली रहा है. विदेशी आक्रान्ताओं ने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप जहाँ बहुत सारी तत्कालीन व्यवस्थाओं में परिवर्तन किया वहीं शिक्षाप्रणाली में भी परिवर्तन किया. आज जब हम स्वतन्त्र हैं तब भी क्या हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा में परिवर्तन नहीं किये जाने चाहिए ?   
       आज हम सब यह जानकार गौरवान्वित होते हैं कि १८ वीं शताब्दी के भारत में लाखों की संख्या में प्राथमिक विद्यालय हुआ करते थे. प्रति चार सौ की जनसंख्या पर एक विद्यालय संचालित किया जाता था. शासन व जन सहयोग से संचालित किये जाने वाले इन विद्यालयों की संचालन व्यवस्था अद्भुत थी. उस समय प्राथमिक शिक्षा सभी के लिए स्वेच्छा से अनिवार्यतः स्वीकार्य थी. स्वतंत्रता प्राप्ति की छह शताब्दियों के बाद हम शिक्षा की ऐसी सुदृढ़ व्यवस्था अभी तक नहीं कर पाए हैं. तत्कालीन अंग्रेज भारत में शिक्षा की इतनी सुदृढ़ व्यवस्था को समाप्त कर भारत को सदा के लिए अपना उपनिवेश बना लेना चाहते थे . लौंग, कालीमिर्च, इलायची, अदरक और दालचीनी जैसे मसालों तथा हीरों व सोने के आकर्षण ने पूरे विश्व के लोगों को भारत पर आक्रमण के लिए लालायित किया था. विदेशियों द्वारा, यहाँ लम्बे समय तक लूटते रहने के उद्देश्य से भारत की आतंरिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन की आवश्यकता का अनुभव किया गया. भारतीय ज्ञान-विज्ञान, कला एवं संस्कृति से अचंभित यूरोपियों का झुकाव भारत की ओर होना इंग्लैण्ड के लिए दूरगामी शुभ परिणामकारी नहीं था. मैकाले जैसे साम्राज्यवादियों का इससे चिंतित होना स्वाभाविक था. उस समय यूरोप के अनेक विद्वानों द्वारा भारत की सराहना किये जाने से यह आशंका बलवती होने लगी थी कि शक-हूणों की तरह यूरोपीय भी भारत में घुलमिलकर कहीं अपना अस्तित्व ही न खो बैठें. ब्रिटेन और ब्रिटिशों का अस्तित्व बनाए रखना यूरोप के लिए आवश्यक था. भारत आने वाले विदेशियों ने अपनी-अपनी रुचियों व उद्देश्यों से भारत का अपने-अपने तरीकों से सर्वेक्षण कर अपने-अपने हितों के निष्कर्ष निकाले, इसी कारण कभी-कभी उनके निष्कर्षों में परस्पर भिन्नता व विरोधाभास भी दिखाई देता है. स्पष्टतः , कुछ यूरोपीय लोग भारतीय ज्ञान-विज्ञान की तत्कालीन सुस्थापित परम्पराओं के मूल्यांकन के साथ न्याय नहीं कर सके. मैकाले इनमें अग्रणी था ....पर कदाचित यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि मैकाले की भारत के प्रति उपेक्षित दृष्टि का कारण उसके अन्दर पनपा भारत के प्रति भय और ईर्ष्या का भाव था. प्लेफेर, ला-प्लास, डेलाम्ब्रे आदि विद्वानों के साथ-साथ ही ब्रिटिश सत्ताधारियों के कई कर्मचारियों के भी मन में भारतीय ज्ञान-विज्ञान के प्रति सम्मान व समर्थन था. इससे व्यग्र होकर मैकाले ने आलोचना करते हुए कहा था -
      " किसी अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक टांड़  ( LoFT  ) ही भारत और अरब देशों के समग्र देशी साहित्य के बराबर मूल्यवान है. .......मुझे लगता है कि पूर्व के लेखक साहित्य के जिस क्षेत्र में सर्वोच्च हैं, वह क्षेत्र काव्य का है. पर मुझे अभी तक ऐसा एक भी पूर्वी विद्वान नहीं मिला है जो यह कह सके कि महान यूरोपीय राष्ट्रों की कविता के साथ अरबी और संस्कृत काव्य की तुलना की जा सकती है. ............मेरा तो यह मानना है कि संस्कृत में लिखे गए समग्र साहित्य में संकलित ज्ञान का ब्रिटेन की प्राथमिक शालाओं में प्रयुक्त छोटे से लेखों से भी कम मूल्य है. " 
   यहाँ ध्यातव्य है कि भारतीय साहित्य को एकदम से नकार पाना मैकाले के भी वश की बात नहीं थी. ब्रिटिशों   के बीच भारतीय ज्ञान-विज्ञान और कला के प्रति आदरभाव पर कुठाराघात करते समय मैकाले के मन में भी भारतीय श्रेष्ठता का दबा-ढंका भाव था ही. इसी कारण काव्य के लिए उसके मुंह से सर्वोच्चता की स्वीकारोक्ति निकल ही गयी. तथापि उसने भारतीय शिक्षा प्रणाली एवं ज्ञान-विज्ञान से प्रभावित यूरोपीय विद्वानों का सम्मोहन भंग करने के उद्देश्य से भारतीय शिक्षा प्रणाली के प्रति अपना विरोध प्रकट करते हुए ब्रटिश सत्ता को धमकी तक देने का दुस्साहस किया था. देखिये, ब्रिटेन में उसके वक्तव्य का एक अंश - 
  "........यदि सरकार भारत की वर्त्तमान शिक्षा पद्यतियों को ज्यों का त्यों बनाए रखने के पक्ष में है तो मुझे समिति के अध्यक्ष पद से निवृत्त होने की अनुमति दें. मुझे लगता है कि भारतीय शिक्षा पद्यति भ्रामक है, इसलिए हमें अपनी ही मान्यताओं पर दृढ रहना चाहिए .  ..........वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में हमें सार्वजनिक शिक्षा मंडल जैसा प्रतिष्ठापूर्ण नाम धारण करने का कोई अधिकार नहीं है ."
   मैकाले एक कुटिल साम्राज्यवादी विचारधारा का पोषक था. सदियों तक किसी विदेशी धरती पर राज्य करने के लिय उसके पास जो अचूक नुस्खे थे, शिक्षा के माध्यम से उस देश की सांस्कृतिक जड़ों को खोखला कर देना उनमे  से एक था. ब्रिटिश शासनोपरांत स्वतन्त्र भारत के कुटिल परवर्ती शासकों ने बड़ी ही कुटिलता से उस परम्परा को बनाए रखने में अपनी पीढ़ियों की भलाई का भविष्य सुनिश्चित देख लिया था. और आज भी ऐसे ही लोग परिवर्तन के नाम पर उल्टे सीधे प्रयोगों से देश की जनता को भ्रमित किये हुए हैं. 
   किन्तु ब्रिटिशों में भी सभी तो मैकाले नहीं हो सकते न ! मैकाले के विपरीत वाल्टर महोदय ने यह स्वीकार किया है कि भारत अपने "क़ानून और विज्ञान" के लिए प्रसिद्ध है.  भारत की प्रभूत संपत्ति को संचित कर यूरोप ढो ले जाना ही यूरोपीय लोगों  के मन में समाया उनका लक्ष्य था. उनकी इस वृत्ति की आलोचना करते हुए वाल्टर महोदय ने यह भी स्वीकार किया है कि ........" भारतीय लोग तातार और हमारे(यूरोपीय ) जैसे लोगों से अपरिचित रहे होते तो वे दुनिया के सबसे सुखी लोग होते "
   परन्तु मैकाले की साम्राज्यवादी शोषक बुद्धि में तो कुछ और ही गणित चल रहा था, उसने भारत के प्रति आग उगलते हुए और तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों के प्रति रोष प्रकट करते हुए अपना वक्तव्य दिया - "........हास्यास्पद इतिहास (पुराणेतिहास ), मूर्खतापूर्ण आध्यात्म शास्त्र, विवेक बुद्धि के लिए अग्राह्य धर्मशास्त्र के बोझ से लदी हुयी, शिक्षण काल में अन्य लोगों पर निर्भर और इस शिक्षा को प्राप्त करने के पश्चात या तो भूखों मरने या जीवन भर दूसरों के सहारे जीने की विवशता वाले ...और इस प्रकार विवश बना देने वाले निर्मूल्य विद्वानों की श्रेणियां तैयार करने वाले शिक्षण में धन का दुर्व्यय ही किया जा रहा है .............यदि अपनी समग्र कार्य पद्यति बदली नहीं जाती तो मैं संस्था के लिए सर्वथा निरुपयोगी ही नहीं अपितु अवरोध बन जाऊंगा. अतः मैं इस संस्था के सभी उत्तरदायित्वों से मुक्त होना चाहता हूँ."
  मैकाले के इस ईर्ष्यापूर्ण प्रलाप में प्रच्छन्न रूप से यूरोपीय समाज की प्राथमिक आवश्यकताओं तथा पारिवारिक संघटन की स्पष्ट झलक मिल जाती है. उसने शिक्षा को ज्ञान का नहीं अपितु बड़े गर्व से धनोपार्जन का माध्यम स्वीकार किया है. भारत में परिवार के उत्तरदायित्व यूरोपीय परिवारों से अलग हैं. बल्कि वहाँ तो परिवार की अवधारणा ही भारत से बिलकुल भिन्न है. यहाँ विद्यार्थी को परिवार या समाज पर बोझ नहीं माना जाता बल्कि उत्तरदायित्व समझ कर प्रसन्नता पूर्वक उसका पालन किया जाता है. तभी तो प्राचीन भारत में विश्व के पाँच-पाँच विश्व विख्यात विश्वविद्यालयों का संचालन बड़ी सफलतापूर्वक किया जाता रहा. इन सारी परम्पराओं को यूरोपीय परिवार या वहाँ के समाज के ढाँचे में रहकर समझ पाना संभव नहीं है. जहाँ तक इतिहास की बात है तो भारतीय पुराणेतिहास से ब्रिटेन के लोगों का क्या लेना-देना ? परन्तु हमारे लिए तो वह गौरवपूर्ण एवं प्रेरणास्पद होने से अत्यंत महत्वपूर्ण है. धर्म और आध्यात्म के प्रति मैकाले के नकारात्मक विचार उसके अपने हैं और नितांत व्यक्तिगत हैं जिन्हें उसने पूरे यूरोपीय समाज पर थोपने का असफल प्रयास किया. उस समय मैकाले भले ही अपनी धूर्तता में सफल रहा पर भारतीय ज्ञान-विज्ञान, कला, संस्कृति, धर्म और आध्यात्म के प्रति यूरोप के आकर्षण को आज तक समाप्त नहीं कर सका. 
      इस सम्पूर्ण काल में गुरुकुल प्रणाली के समाप्त होने के पश्चात भारतीय समाज ने अपनी ओर से शिक्षा के स्वरूप पर कभी कोई चिंता प्रकट नहीं की. वह पूरी तरह शासन पर ही निर्भर रहा है. जब जैसा मिल गया तब वैसा स्वीकार कर लिया. भारतीयों की यह आत्मघाती प्रवृत्ति है जिसके दुष्परिणाम भी उसे ही भोगने पड़ रहे हैं. भारतीय समाज को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसे कैसी शिक्षा चाहिए  ...किसमें उसका कल्याण निहित है ...शोषण मूलक शिक्षा या सर्व कल्याणकारी शिक्षा ?  यदि उसे अपनी प्राचीन गौरवशाली परम्परा के साथ कल्याणकारी श्रेयस्कर जीवन की चाह है तो शासन का मुंह देखे बिना स्वयं उसे ही आगे आना होगा ...एक सर्व कल्याणकारी शैक्षणिक क्रान्ति के लिए . 
सुधीजन यदि इच्छुक हों तो वे धर्मपाल की लिखी पुस्तक - "१८ वीं शताब्दी के भारत में विज्ञान एवं तंत्र-ज्ञान  " का अवलोकन कर सकते हैं. इस लेख के लिए उसी पुस्तक से जानकारी ली गयी है.                   

22 टिप्‍पणियां:

  1. अत्यंत तथ्यपरक एवं सारगर्भित लेख के लिये बहुत बहुत आभार !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी... आप अख़बारआदि में जन-जागृति हेतु इस से संबन्धित कुछ लिखतीं क्यूँ नहीं है.. दरअसल आम हिंदुस्तानियों को इस बात का किंचित मात्र भी ईल्म नहीं है कि किसी के द्वारा या अंग्रेज़ों के द्वारा या थॉमस बैबीग्टन मैकोले के द्वारा & मेक्स म्यूलर के द्वारा हमारी शिक्षा-नीति शिक्षा-पद्धति आदि को भ्रष्ट-नष्ट कर दिया है... मेक्स म्यूलर etc ने तो हमारे साहित्य, शास्त्र, इतिहास को आक्षेपित, विक्षेपित किया है... यहाँ तक कि बहुत दस्तावेज़, साहित्य, इतिहास यह लोग नष्ट भी कर चुके है... भारत की शिक्षा व्यवस्था से दिन-ब-दिन भारत किस गर्त में जा रहा है इसका किसी को भी किंचित्र मात्र भी ईल्म नहीं है.... अपने भारत की सभ्यता-संस्कृति दिन-प्रति-दिन भ्रष्ट-नष्ट होतीं जा रहीं हैं... संस्कार कि तो आज कि तारीख़ में बात ही नहीं कर सकता... संस्कारों की बातें करने वाला तो आज अव्वल दर्ज़े का बेवकूफ़ कहलाएगा....

      हटाएं
    2. अख़बार में ऐसे लेख भेजे थे, किसी ने भी प्रकाशित नहीं किए ।

      हटाएं
    3. Aap sahi bol rh ho aaj humari haalat eshe kr diye gaye ki hum chah kr bhi nirod nh kr pate aaj hum jo sikhsha prapt kr rh hai bo bebuniyad hai esh se sirf desh me bhrastachari ko hi badava diya ja skta hai aaj hume jagna hoga jo itne saalo se nh jage mekole to bharat pr raj kr tha eshliye apni shikhsha ko badava diya pr hume huamari purani sikhsha ko apnana hoga esh se desh ka kalyan hoga jai hind jai bharat

      हटाएं
  2. महत्वपूर्ण विषय। शैक्षणिक क्रांति की आवश्यकता है लेकिन दुखद बात ये है कि इसके आसार नहीं दिखते।
    मूल्य बदल गये हैं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मूल्य बदलें नहीं... बदल दिये गए हैं... शिक्षा ने ही... और सरकारों ने ही...

      हटाएं
  3. अंग्रेज़ यानि 'पश्चिम' के गोरों के बस का नहीं था, न होगा शायद कभी (वर्तमान हिन्दू के भी?), समझ पाना कि 'हिंदु' मूर्ती-पूजक क्यूं हैं, भले ही वो परंपरा वश ही क्यूँ न हो ?! और उन्होंने मानव को भी 'माटी का पुतला' क्यूँ कहा या माना?!
    कोई 'जन्म से हिन्दू' भी आज कहेगा कि जब अनेक-डिग्री-प्राप्त-डॉक्टर कहता है कि हर ४ घंटे में ३ फलां-फलां गोली खानी है तो हम साधारणतया प्रश्न नहीं करते (अज्ञानतावश?),,, और उसका अनुपालन भक्ति भाव से करते हैं,,,उसी प्रकार जब हमारे पहुंचे हुए गुरु लोगों को हमने जिस विधि-विधान से पूजा आदि करते पाया तो हम, समयाभाव के कारण, बिना प्रश्न किये, उनकी नक़ल करते चले आ रहे हैं,,,किन्तु इससे मना नहीं कर सकते कि केवल ऐसा करने से भी कुछ न कुछ मानसिक शांति तो मिलती है ही!
    'रामलीला' में, यदि कुबड़ी दासी मंथरा न होती, या उसकी बुद्धि न मारी जाती, तो राम का बनवास न होता ,,,और बनवास के समय लक्ष्मण सूर्पणखा की नाक नहीं काटता तो सीता हरण न होता, और न लंका दहन,,,और अंततोगत्वा रावण बध! ...

    जवाब देंहटाएं
  4. बाबा जी ! ॐ नमोनारायण ! ! ! भारतीय दर्शन में आप्त वचन और ऐतिह्य विवरणों को भी प्रमाण स्वीकार किया गया है. आज मॉडर्न ह्यूमन फिजियोलोजी में हम जो भी पढ़ते हैं उसे बिना प्रत्यक्ष दर्शन के ही एवं आप्तवचन न होते हुए भी सत्य स्वीकार कर लेते हैं जबकि बहुत से सिद्धांत अभी भी अनुमान के आधार पर ही मान्य व प्रचलित हैं. निरंतर हो रहे शोधों में इन्हीं का खंडन-मंडन होता रहता है.
    @ संजय जी ! शैक्षणिक क्रांति तो हो कर रहेगी ...समय कितना भी लग जाय ...क्यों कि कुछ चीजें ऐसी हैं जिन्हें होना ही है उन्हें रोका नहीं जा सकता.
    @ मनोज जी ! धर्मपाल जी की पुस्तक में और भी रोचक व आश्चर्यजनक जानकारियाँ हैं जो अंग्रेजों द्वारा ही लिखी गयी हैं, धर्मपाल जी ने तो उनका यत्न पूर्वक संकलन ही किया है, यह पुस्तक हमारे भारतीय गौरव का वास्तविक इतिहास है जिसे हर भारतीय को पढ़ना चाहिए.
    @ डाक्टर शरद जी ! आप उत्साहपूर्वक ब्लॉग का अवलोकन करती हैं .....धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  5. baba,,,mujhe bahut garv mehsus ho rhaa he..aapka lekh pr ke........iske liye bahut bahut dhanywaad.........

    जवाब देंहटाएं
  6. कौशलेन्द्र जी साहित्य में भले ही कोलोनियलिस्म के बाद पोस्ट कोलोनियलिस्म आ गया हो पर क्या हम आज तक इस कोलोनाइज़ेशन से मुक्त हो सके हैं....?.....किसी भी देश की अगर जड़ें कमजोर कर डालनी हो,.....लोगों के सोचने-विचारने की दिशा ही बदल डालनी हो,......उन्हें अपने तरीके से सोचने पर मजबूर कर देना हो तो इसे अंजाम देने की पहली सीढ़ी है उस देश के लोगों को दिया जाने वाला शिक्षण......और मैकाले यह बात बहुत अच्छे से जानता था.........वह सफल रहा और आज तक सफल है.......हर साल देश में लाखों की संख्या में डिग्रीधारी ,विचारशून्य,लक्ष्यहीन नवयुवकों की फौज तैयार हो जाती है.....सरकार से,शासन से कोई उम्मीद रखना व्यर्थ है.......चिंगारियाँ तो उठ ही रही हैं.......एक दिन शोले जरूर भड़्केगें.....

    जवाब देंहटाएं
  7. यदि अपनी प्राचीन गौरवशाली परम्परा के साथ कल्याणकारी श्रेयस्कर जीवन की चाह है तो शासन का मुंह देखे बिना स्वयं उसे ही आगे आना होगा ...एक सर्व कल्याणकारी शैक्षणिक क्रान्ति के लिए । ....

    बहुत सुन्दर बात कही आपने । सार्थक आलेख ।

    .

    जवाब देंहटाएं
  8. इस लेख को पढ़कर सबसे ज्यादा मैं खुश हुआ...
    मैने काफी ढूंढा था इस मैकाले की व्योस्था परिवर्तन को अंतर्जाल पर ज्यादा नहीं पा सका अब काफी कुछ मिल गया ..
    बिलकुल सत्य है...लेकिन हमें ये भी सोचना चाहिए की मैकाले ने जो विचार इतने सालो पहले किया था उसका परीशोधन हम अब तक नहीं कर सके..
    .............
    सुन्दर रचना

    जवाब देंहटाएं
  9. इतिहासकारों के माध्यम से हम यह तो जान लेते हैं कि भारत कभी एक खुशहाल देश था,,, जो आज वैसा नहीं रहा (समय के प्रभाव से? क्यूंकि "परिवर्तन प्रकृति का नियम है" और प्राचीन हिन्दुओं के अनुसार 'काल चक्र' मुद्रिका रेल अथवा बस के समान सतयुग से कलियुग की ओर घूमता है,,, और एक महायुग के पश्चात ही फिर एक नया सतयुग आ जाता है ,,, ऐसा भी कुछ लोग जानते हैं और इस कारण आशा करते हैं सब ठीक होगा 'सही समय' आने पर)...

    जवाब देंहटाएं
  10. हमारे लिए यह बड़ी ख़ुशी की बात है की बात है की हमारा देश इतना समर्द्ध था. हम लोगो को आज जग जाना चाहिए वरना इसके बड़े भयंकर परिणाम भुगतने पद सकते है/

    जवाब देंहटाएं
  11. शैक्षणिक क्रान्ति लाने हेतु कोई ठोस उपाय सुझाने की कृपा
    करें

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. यह कई चरणों में होने वाली एक दीर्घकालीन क्रांति होगी जिसका प्रारम्भ वैचारिक शुद्धता के संकल्प के साथ होगा । शाला में प्रवेश की पात्रता, पाठ्यक्रम, अध्यापन व अध्ययन की प्रक्रिया, मूल्यांकन, औपाधिक निष्ठा एवं आत्मनिर्भरता जैसे चिंतनीय बिंदुओं पर गम्भीर चिंतनोपरांत नयी शिक्षा व्यवस्था स्थापित करनी होगी जिसमें शासन और सत्ता की कोई भूमिका नहीं होगी ।

      हटाएं
  12. माकाले देश भक्त था !ईगंलैनड का! मैकाले ने वही कीया जो उसे निर्देश दिया गया था!वह देश भक्ति था का परिचय दिया था उससे हम देश वासिवो को सीखना चाहीए बजाए आपस मे लरने की!

    जवाब देंहटाएं
  13. मै एक थिएटर आर्टिस्ट हूँ मेरे मन में बहुत से सवाल थे की ये ऐसा कैसे क्यों हो रहा है क्या सब कुछ अंत के करीब है और मुझे सबसे ज्यादा स्कूल के इस सिस्टम से तकलीफ थी हमेशा से ही मुझे हमेशा यही लगा की कुछ कमी है फिर ग्रेजुएशन के बाद केरल चला गया गुरुकुल में पढनें के लिए वहा जाकर कलरी पयाट्टू जो की पहला मार्शलआर्ट फॉर्म है वहां रहकर कुड़ीअट्टम और कथकली का प्रशिक्षण लिया उसके बाद कर्नाटका चला गया और ऐसे ही पूरी इंडिया में जहाँ भी गुरुकुल है समय के अनुसार मै गया मुझे ये समझ नही आ रहा था की यहाँ सब कुछ होने इ बावज़ूद वेस्टर्न कल्चर को फॉलो क्यों करते है कई लोग मेरे धोती पहन कर घुमने से हस्ते थे और कहते नही थे कि नाटक कर रहा है कुछ काम नही है उसी दौरान मैकाले के बारे में मेरे बड़े भईया से पता चला तो पढना शुरू किया मैनें अभी मैकाले के बारे में ही पढ़ रहा हूँ सर बहुत ख़ुशी हुई ये पढ़ कर आपका बहुत बहुत धन्यवाद सर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. भारतीय जीवनशैली अब और अधिक उपेक्षित नहीं रह सकेगी । कोरोना सबको सिखा देगा, जो नहीं सीखेंगे उन्हें अपने हठ का मूल्य चुकाना होगा । प्रकृति के दण्ड से कोई बच नहीं पाता ।
      अच्छा लगा यह जानकर कि आप एक थियेटर आर्टिस्ट हैं और कलियरि पट्टु जैसी दुर्लभ कला में निष्णात हैं । कला हमें प्रकृति और ईश्वर के समीप ले जाती है । मेरी मङ्गलकामनाएँ ! कल्याणमस्तु ! यशस्वी भव !

      हटाएं
  14. मैकाले के बारे में लंबे समय से सुनते आ रही हूं और इस कोरोना युग में सेकंड लॉक डाउन के समय देश में जो कुछ हो रहा है उससे बेहद क्षुब्ध और बिगड़ते माहौल को लेकर दुखी हूं ,मैकाले ने जो काम भारत के साथ पूर्व में किया कहीं ना कहीं वही काम भारत के मुसलमानों के साथ वर्तमान सरकार या हम हिंदू कर रहे हैं मैकाले ने अपनी शिक्षा व्यवस्था थोपने के लिए बहुजन समाज का को हथियार बनाया और वह दिन दूर नहीं जब गल्फ कंट्रीज के उलेमा और मुसलमान वजीर ए आजम भारत के मुसलमानों को अपना सानिध्य देकर भारत के ही खिलाफ भड़काएंगे और ऐसा हो भी क्यों ना जब उनके ही घर में उनको तिरस्कृत किया जा रहा है ।

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.