शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

हम तो सर्वज्ञ हैं और आप ?

भारतीय इस मामले में अन्यों से विशेष हैं कि वे प्रायः सर्वज्ञ होते हैं...और न केवल सर्वज्ञ बल्कि न्यायाधीश भी. मुझे ऐसे कई लोगों से मिलने का सौभाग्य मिला है जिनकी अकादमिक उपलब्धियां भले ही कुछ न हों पर वे सर्वज्ञ होते हैं. आप जिस भी विषय पर उनसे चर्चा करें वे उसके निष्णात पंडित होते हैं. ऐसे लोगों को मैंने मेडिकल, इंजीनियरिंग, विधि, साहित्य, संगीत, दर्शन, आध्यात्म.....दुनिया में जितने भी ज्ञान के विषय हैं सभी में पारंगत देखा है. इतने पारंगत कि इन विषयों के उपाधिधारकों को भी धूल चटाने में नहीं हिचकते. ऐसे लोग न्यायाधीश भी होते हैं. किसी भी प्रकार के विवाद के अंतिम निपटारे के लिए भारत सरकार को इनकी सेवायें लेनी चाहिए. ...स्वैच्छिक निःशुल्क सेवायें. पर दुर्भाग्य उनका कि ऐसे विद्वानों को कोई पूछता ही नहीं. यह मात्र संयोग की बात है कि लोगों द्वारा उपेक्षित ऐसे बहुमुखी प्रतिभा संपन्न विद्वानों को अंततः अपनी प्रतिभा प्रदर्शन के लिए बिन  बुलाये मेहमान की तरह दूसरों के प्रकरणों में हस्तक्षेप के लिए बाध्य  होना पड़ता है. 
   विदेशों में ऐसे मार्गगामी ( "राह-चलते" थोड़ा सस्ता सा शब्द लगता है इसलिए इसे किंचित गरिमामय बनाने के लिए इस "मार्गगामी" शब्द का चयन यहाँ किया गया है ) विशिष्ट ज्ञान की सहज सुविधा की कल्पना तक नहीं की जा सकती. आप इस बात को यूँ भी कह सकते हैं कि विदेशों में लोग अत्यल्प ज्ञानी होते हैं जिन्हें अपनी किताबों के अतिरिक्त और कुछ भी पता नहीं होता. हमारे छत्तीसगढ़ में तो और भी विद्वान लोग रहते हैं. ऐसे ही एक विद्वान से ज्ञान का लाभ मैं भी प्राप्त कर चुका हूँ.  आपकी खिदमत में पेश है ज्ञान प्राप्ति का यह नायाब और असली किस्सा .
हुआ यूँ कि एक बार अलस्सुबह, होटल से नीचे उतर  मैं रायपुर में फूलचौक की तलाश में संयोग से फूलचौक तक पहुँच कर भी अज्ञानतावश यह जानने के लिए कि अभी फूलचौक कितनी दूर और है एक चाय वाले की दूकान पर पहुँच गया. पूछा - भैया अभी फूलचौक कितनी दूर और है ? उसने बड़ी गंभीर मुद्रा में पहले कुछ क्षण चिंतन किया,  इधर -उधर देखा जैसे कि कुछ तलाश कर रहा हो फिर पूछा -"आपको फूलचौक जाना है ?" मैंने उत्तर दिया -हाँ भैया ! वह फिर कुछ क्षण चुप रहा ......फिर गंभीर मुद्रा में कहा- " आप एक काम करो, यहाँ से एक रिक्शा ले लो वह आपको फूलचौक पहुंचा देगा " 
मैंने पूछा - पर होटल वाले ने तो यहीं कहीं बताया था .....५-७ मिनट की दूरी पर ही.
उसने कहा -आप नए आदमी लगते हैं ....कहाँ-कहाँ पूछते रहोगे ...रिक्शा कर लीजिये वही ठीक रहेगा. 
इतनी सुबह रिक्शा खोजना भी मुश्किल. 
जैसे-तैसे कर एक रिक्शे वाले को रोका, झट से चढ़कर बैठ गयाऔर बोला फूलचौक ले चलो.
अब रिक्शेवाले ने मेरी और देखा और अपनी सीट से उतर कर बोला - बाबू सुबह-सुबह क्यों मज़ाक करते हैं, फूलचौक तो यही है ...किसके यहाँ जाना है ?   



मंगलवार, 27 सितंबर 2011

सेंड्रा के मार्ग में.....

आज से बीस साल पहले लिखी गयी एक कविता -

दूर घने जंगल में 
बेशऊरों के गाँवमें
साहब को जाना था
वंचितों की सेवा का 
राजा के दरबार में 
डंका बजवाना था.
थी राह टेढ़ी-मेढ़ी और ड्रायवर अनाडी 
भटक गयी जंगल में साहब की गाडी.
साहब को प्यास लगी 
ड्रायवर से बात कही.
किन्तु वहाँ जंगल में कहाँ धरा पानी ?
ऊपर से भटकन की ये परेशानी.
साहब ने रुमाल से पसीने को पोछा
कुछ सोचा....कुछ समझा 
ड्रायवर को रोका
फिर नीचे उतर कर इधर-उधर देखा.

थी वहाँ अधनंगी काली एक माया 
देखकर शहरी को घबड़ाई वनबाला.
लोगों से सुनती थी
मन में फिर गुनती थी
कि बैठ, चलते-फिरते घर में
साहब कोई आता है 
देख, जंगल की पैंकी को
गाना भी गाता है.
आज सचमुच देख लिया 
चलता हुआ घर भी 
और एक साहब भी.

देखकर साहब को और उनके रंग-ढंग को 
भोली उस लड़की ने मन में यह सोच लिया 
कि होकर भी मर्द 
नीचे से ऊपर तक 
क्यों इतने कपड़ों को 
है इसने लाद लिया ?
मेरे तो पारे में इतने ही कपड़ों से 
सारे मर्दों की 
कमरें ढँक जायेंगी.
यह मर्द नहीं, अनहोनी है 
शायद इस पारे में विपदाएं आयेंगी.
क्षण भर में भीत हुयी 
जंगल की बाला
भागी वह छोड़-छाड़ 
तीर-धनुष-भाला.

सभ्य ने असभ्य को इशारे से बुलाया
है रास्ता किधर 
वह जोर से चिल्लाया
भाग गयी लड़की, नहीं मिली छाया
फिर तो साहब का क्रोध भड़क आया
दी गंदी गाली और ऐसा बोले -
"ये जंगल के वासी 
पशु हैं सब साले ".

बैठकर जीप में साहब तो चला गया
जीप ने धुआँ छोड़ा 
खुद प्रश्न छोड़ गया -
कि आज इस दुनिया में 
सचमुच कौन भटका है 
साहब 
या वनवासी ?
प्रश्न यद्यपि छोटा है 
किन्तु बहुत उलझा है 
जवाब दे सको 
तो मेरे साहब को दे देना
मैं दूंगा तो वे नाराज़ हो जायेंगे.
आपकी बात और है 
आपका मोहकमा और है 
वे नाराज भी होंगे 
तो आपका क्या बिगाड़ लेंगे !  




सम्माननीय पाठको ! नमस्कार !
कुछ विशेष कारणों से टिप्पणियों का विकल्प हटा दिया है. जानता हूँ, इससे विमर्श की संभावनाओं पर पूर्ण विराम लग जाता है और लेखन एक पक्षीय हो कर रह जाता है. तथापि, लेखन में यदि आपको कभी कुछ विशेष आलोचना के  योग्य प्रतीत हो तो ०९४२४१३७१०९ पर संपर्क कर अपना मत प्रकट कर सकते हैं. 
विशेष कर आक्रोशों का स्वागत है .............. 


   


शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

उपलब्धि का अपहरण


धरती की पुत्री सीता को धरती ने ही अपने अंक में समा जाने की जगह देकर प्रकृति के एक शाश्वत नियम की ओर संकेत किया था. 
बुद्धिमान मनुष्य अपनी बुद्धि के अहम् में चूर रहा ....उस संकेत को समझ नहीं सका. या यह भी हो सकता है कि सबकुछ समझ कर भी वह प्रकृति के स्वभाव को चुनौती देने की चेष्टा करता रहा. 
परिणाम सामने है.....पूरा विश्व भयातुर है. 
पूरी मानव सभ्यता विनाश, अनिश्चितता, संदेह और अशांति के कगार पर आ खड़ी हुयी है. कब क्या हो जाय कोई नहीं जानता. मनुष्यकृत या प्रकृतिकृत किसी भी प्रकार का विनाश या खंडविनाश कभी भी हो सकता है.  


कथानक है कि रावण ने ऋषियों से टैक्स के रूप में उनका रक्त लिया था जिसके जींस से जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा उसने एक सर्वगुण संपन्न टेस्टट्यूब बेबी का निर्माण किया था. अपने समय के प्रख्यात बालरोग विशेषज्ञ तथा स्त्री एवं प्रसूति विज्ञान  विशेषज्ञ रावण की जैव वैज्ञानिक उपलब्धि थी सीता जो अंतत रावण की मृत्यु का कारण बनी. 
आज भी हमारी बहुत सी वैज्ञानिक उपलब्धियां हमारे विनाश के लिए तैयार बैठी हैं. हमारी खोजें  हमारे लिए ही विनाश का कारण बनती जा रही हैं . 
गड़बड़ी कहाँ है / शोध  में या उसकी  उपलब्धि  में ...या उसके  प्रयोजन  में ...? 
उपलब्धि की सफलता अहंकार को जन्म दे सकती है ..और यह अहंकार उपलब्धि के प्रयोजन को दूषित कर देता है. 
प्रयोजन की शुचिता और मर्यादा को बनाए रखने के लिए विवेक और कल्याण की भावना का होना अनिवार्य है अन्यथा प्रयोजन अकल्याणकारी हो जाता है. 
सीता रावण की उपलब्धि थी. अपनी ही उपलब्धि का अपहरण  किया रावण ने और अपने विनाश को आमंत्रित किया. 
वैज्ञानिक उपलब्धियाँ यदि व्यक्तिगत लाभ के लिए व्यवहृत की जाने लगें तो उनके दुरुपयोग की ही संभावनाएं अधिक बलवती हो जाती हैं.
नाभिकीय ऊर्जा पर कुछ  लोग अपना वर्चस्व चाहते हैं ....यह वर्चस्वता अधिकार के दुरुपयोग का स्पष्ट संकेत है. 
सीता जहाँ से आयी वहीं चली गयी. पृथिवी से निकली थी ...पृथिवी में समा गयी. प्रकृति का दुरुपयोग होगा तो प्रकृति उसे अपने में समेटने का प्रयास करती है.
यह संकेत है प्रकृति का ....कि संभल जाओ . 
नदियाँ  ...पर्वत ....धरती ....जल ....जंगल ....जो भी हमारे होने में कारण हैं उनका असम्मान न करो.....असम्मान करोगे तो रावण की तरह विनाश को प्राप्त हो जाओगे. 
क्या वैज्ञानिक , सत्ताएं और आम आदमी इस दिशा में इमानदारी से सोचने और फिर सोच को अपनाने का प्रयास करेंगे ?       

रविवार, 18 सितंबर 2011

सेमिनार्स को निगलती राजनीति

राजनीति के अजगर ने सेमिनार्स को निगल लिया है. देश में कहीं भी सेमीनार हो यह अजगर वहाँ पहुँच ही जाता है  तभी तो आज तक कभी भी मैं सेमीनार से खुश होकर नहीं लौट पाया. मरते हुए सेमिनार्स को देख कर कोई कैसे खुश हो सकता है ? विशेषज्ञों के निदान के अनुसार भारतीय राजनीति को भस्मक रोग हो गया है .....हर चीज़ पचा जाने की अद्भुत क्षमता .....और उसकी भूख है कि कभी शांत ही नहीं होती. धर्म, संस्कृति, नैतिकता, चरित्र, धन, खनिज, जंगल, ...किस-किस को गिनाएं .......इस अजगर की पकड़ में जो भी आया बच नहीं सका. सब भस्म हो जाता है. 
दो दिन के सेमीनार में पहला आधा दिन झट से निगल जाने वाली राजनीति दूसरे दिन फिर आ धमकती है...समापन समारोह के लिए...गोया पहला दिन खाकर अभी पेट भरा नहीं उसका. वैज्ञानिक सत्र के नाम पर आयोजित होने वाले इन सेमिनार्स के प्रथम दिन का प्रथमार्ध और दूसरे दिन का उत्तरार्ध निगलने वाली राजनीति का इस आँगन में औचित्य आज तक नहीं समझ सका मैं. राजनीति के लिए तो कई मंच हैं पर वैज्ञानिकों के लिए मिल बैठ कर अपनी बात कहने के कितने मंच हैं ?  क्यों आवश्यक है वैज्ञानिक सत्रों में उदघाटन और भाषण देने के लिए और फिर अंतिम दिन उनका आशीर्वाद लेने के लिए राजनीतिज्ञों को बुलाना. ? क्या कोई शीर्ष वैज्ञानिक ही उदघाटन नहीं कर सकता ? क्या कोई वरिष्ठ वैज्ञानिक ही आशीर्वाद नहीं दे सकता ? प्रथम दिन के उदघाटन के बाद जब तक वैज्ञानिक सत्र प्रारम्भ हो समय इतनी तेज़ी से भाग चुका होता है कि आयोजकों को चेयरपर्सन के कान में बारम्बार एक सूत्री मन्त्र  दोहराने को विवश होना पड़ता है " सर ! १० मिनट ही दीजिएगा, बस ऑब्जेक्टिव के बाद फ़ाइनडिन्ग्स और फिर सीधे काँक्ल्यूजन." .....और फिर अगले दिन मन्त्र में थोड़ा परिवर्तन और-  "सर ! केवल ६ से ८ मिनट". 
अब वैज्ञानिक सत्र का दृश्य देखने योग्य होता है - 
शोध वैज्ञानिक का मंच पर प्रवेश. चेयरपर्सन की गूंजती हिदायत- "कृपया ६ मिनट में ही अपनी बात ख़त्म करें, समापन समारोह ठीक ३ बजे प्रारम्भ होना है." 
शोधपत्र वाचन के लिए आये हुए वैज्ञानिक हैरान-परेशान हैं ....वर्षों तक किये शोध की बात ६ मिनट में !
 वह मन में हिसाब लगाता है ...६ मिनट तो केवल फाइंडिंग्स में ही निकल जायेंगे. चलो ठीक है काँक्ल्यूजन ही बता देते हैं. 
शोधपत्र का वाचन प्रारम्भ होता है . उधर आयोजक चेयर पर्सन के कान में एक बार फिर वही मन्त्र उड़ेल जाता है- " सर ! समय का ध्यान रखियेगा." 
हड़बड़ाकर चेयरपर्सन घंटी बजा देता है. शोध वैज्ञानिक हैरान है अभी तो तीन मिनट ही हुए हैं. वह शब्दों को निगलते-उगलते अपना काँक्ल्यूजन थूक देता है -"पिच्च". 
प्रोजेक्टर धाँय से एक "धन्यवाद" स्क्रीन पर फेकता है. अगले शोध वैज्ञानिक हिसाब में डूबे हुए हैं -"कितना बोलूँ ?"  
पूरे देश से आये हुए श्रोता ने शोधवैज्ञानिक कुछ समझते हैं कुछ अनुमान लगाने को विवश होते हैं. सब कुछ हाइपोथेटिकल हो गया है. 
चेयरपर्सन बड़ी ही विनम्रता से या कहिये कि बड़े ही अहसानमंद से होकर धन्यवाद देते हैं और लगभग गिड़गिड़ाते हुए से बोलते हैं - "कृपया अपनी शंकाओं के लिए शोधकर्ता से बाद में भोजन के समय संपर्क करने का कष्ट करें"  
हर शोधवैज्ञानिक दुखी है. प्रेजेंटेशन ठीक से नहीं हो सका.
कमाल है ! .....जिस उद्देश्य के लिए सारा आयोजन किया जाता है उसी के लिए समय नहीं है ? उदघाटन सत्र में अतिथियों की प्रतीक्षा के लिए समय है. अतिथियों को भाषण देने के लिए बेशुमार समय है. समापन सत्र में अतिथियों की प्रतीक्षा के लिए फिर समय है....समय ही समय है ...नहीं है तो केवल शोध वैज्ञानिकों के लिए समय नहीं है. शोध वैज्ञानिक आपस में विमर्श कर सकें इसके लिए समय नहीं है. 
और हम वादा करते हैं कि इस अनावश्यक और निहायत घटिया परम्परा को त्यागने के बारे में कभी सोचेंगे भी नहीं. राजनीति का अजगर विज्ञान की गरिमा और गंभीरता को निगल रहा है ...निगलने दीजिये. सेमीनार ख़त्म हो गया है . 
खेल ख़तम पैसा हज़म. बच्चो ! बजाओ ताली .           

शनिवार, 3 सितंबर 2011

नहीं अब वक्त है उनका.



हंसी बेशर्म है उनकी, करम बेशर्म है उनका 
वतन को बेचते हैं वो, धरम बेशर्म है उनका. 

खुदी में डूब कर खुद को, खुदा ही मान बैठे जो 
बता औकात दे उनकी, नहीं अब वक्त है उनका.

ज़माने से उन्हें हमने, ज़रा भी है नहीं छेड़ा .
उन्होंने हर समय फिर भी, जी भर-भर के दिल तोड़ा .

हदों को ढूँढते हैं हम, हदें फिर भी नहीं मिलतीं .
हदें उनके इशारों पे, न जाने अब कहाँ रहतीं 

सुना है तोड़कर सारी, हदें मरघट में हैं फेकी 
अपनी रोटियाँ जी भर, शवों की आँच पर सेकी .

मंदिर की दिवारों पर, न होगा नाम अब तेरा 
छलक कर आ गया बाहर, भरा है पाप घट तेरा