राजनीति के अजगर ने सेमिनार्स को निगल लिया है. देश में कहीं भी सेमीनार हो यह अजगर वहाँ पहुँच ही जाता है तभी तो आज तक कभी भी मैं सेमीनार से खुश होकर नहीं लौट पाया. मरते हुए सेमिनार्स को देख कर कोई कैसे खुश हो सकता है ? विशेषज्ञों के निदान के अनुसार भारतीय राजनीति को भस्मक रोग हो गया है .....हर चीज़ पचा जाने की अद्भुत क्षमता .....और उसकी भूख है कि कभी शांत ही नहीं होती. धर्म, संस्कृति, नैतिकता, चरित्र, धन, खनिज, जंगल, ...किस-किस को गिनाएं .......इस अजगर की पकड़ में जो भी आया बच नहीं सका. सब भस्म हो जाता है.
दो दिन के सेमीनार में पहला आधा दिन झट से निगल जाने वाली राजनीति दूसरे दिन फिर आ धमकती है...समापन समारोह के लिए...गोया पहला दिन खाकर अभी पेट भरा नहीं उसका. वैज्ञानिक सत्र के नाम पर आयोजित होने वाले इन सेमिनार्स के प्रथम दिन का प्रथमार्ध और दूसरे दिन का उत्तरार्ध निगलने वाली राजनीति का इस आँगन में औचित्य आज तक नहीं समझ सका मैं. राजनीति के लिए तो कई मंच हैं पर वैज्ञानिकों के लिए मिल बैठ कर अपनी बात कहने के कितने मंच हैं ? क्यों आवश्यक है वैज्ञानिक सत्रों में उदघाटन और भाषण देने के लिए और फिर अंतिम दिन उनका आशीर्वाद लेने के लिए राजनीतिज्ञों को बुलाना. ? क्या कोई शीर्ष वैज्ञानिक ही उदघाटन नहीं कर सकता ? क्या कोई वरिष्ठ वैज्ञानिक ही आशीर्वाद नहीं दे सकता ? प्रथम दिन के उदघाटन के बाद जब तक वैज्ञानिक सत्र प्रारम्भ हो समय इतनी तेज़ी से भाग चुका होता है कि आयोजकों को चेयरपर्सन के कान में बारम्बार एक सूत्री मन्त्र दोहराने को विवश होना पड़ता है " सर ! १० मिनट ही दीजिएगा, बस ऑब्जेक्टिव के बाद फ़ाइनडिन्ग्स और फिर सीधे काँक्ल्यूजन." .....और फिर अगले दिन मन्त्र में थोड़ा परिवर्तन और- "सर ! केवल ६ से ८ मिनट".
अब वैज्ञानिक सत्र का दृश्य देखने योग्य होता है -
शोध वैज्ञानिक का मंच पर प्रवेश. चेयरपर्सन की गूंजती हिदायत- "कृपया ६ मिनट में ही अपनी बात ख़त्म करें, समापन समारोह ठीक ३ बजे प्रारम्भ होना है."
शोधपत्र वाचन के लिए आये हुए वैज्ञानिक हैरान-परेशान हैं ....वर्षों तक किये शोध की बात ६ मिनट में !
वह मन में हिसाब लगाता है ...६ मिनट तो केवल फाइंडिंग्स में ही निकल जायेंगे. चलो ठीक है काँक्ल्यूजन ही बता देते हैं.
शोधपत्र का वाचन प्रारम्भ होता है . उधर आयोजक चेयर पर्सन के कान में एक बार फिर वही मन्त्र उड़ेल जाता है- " सर ! समय का ध्यान रखियेगा."
हड़बड़ाकर चेयरपर्सन घंटी बजा देता है. शोध वैज्ञानिक हैरान है अभी तो तीन मिनट ही हुए हैं. वह शब्दों को निगलते-उगलते अपना काँक्ल्यूजन थूक देता है -"पिच्च".
प्रोजेक्टर धाँय से एक "धन्यवाद" स्क्रीन पर फेकता है. अगले शोध वैज्ञानिक हिसाब में डूबे हुए हैं -"कितना बोलूँ ?"
पूरे देश से आये हुए श्रोता बने शोधवैज्ञानिक कुछ समझते हैं कुछ अनुमान लगाने को विवश होते हैं. सब कुछ हाइपोथेटिकल हो गया है.
चेयरपर्सन बड़ी ही विनम्रता से या कहिये कि बड़े ही अहसानमंद से होकर धन्यवाद देते हैं और लगभग गिड़गिड़ाते हुए से बोलते हैं - "कृपया अपनी शंकाओं के लिए शोधकर्ता से बाद में भोजन के समय संपर्क करने का कष्ट करें"
हर शोधवैज्ञानिक दुखी है. प्रेजेंटेशन ठीक से नहीं हो सका.
कमाल है ! .....जिस उद्देश्य के लिए सारा आयोजन किया जाता है उसी के लिए समय नहीं है ? उदघाटन सत्र में अतिथियों की प्रतीक्षा के लिए समय है. अतिथियों को भाषण देने के लिए बेशुमार समय है. समापन सत्र में अतिथियों की प्रतीक्षा के लिए फिर समय है....समय ही समय है ...नहीं है तो केवल शोध वैज्ञानिकों के लिए समय नहीं है. शोध वैज्ञानिक आपस में विमर्श कर सकें इसके लिए समय नहीं है.
और हम वादा करते हैं कि इस अनावश्यक और निहायत घटिया परम्परा को त्यागने के बारे में कभी सोचेंगे भी नहीं. राजनीति का अजगर विज्ञान की गरिमा और गंभीरता को निगल रहा है ...निगलने दीजिये. सेमीनार ख़त्म हो गया है .
खेल ख़तम पैसा हज़म. बच्चो ! बजाओ ताली .
हम लोग परम्परावादी हैं, सब वैज्ञानिक टीवी में दिखाई देना चाहते हैं, रेडियो तक में नहीं बोलना चाहते क्यूंकि हमारे रिश्तेदार कोई अब रेडिओ सुनते ही नहीं!...
जवाब देंहटाएंसारा चक्कर प्रचार का है, जिसका माध्यम मीडिया है, और इस देश में 'स्वतंत्रता' मिली ही समाचार पत्रों के द्वारा 'नेताओं' द्वारा प्रचार कर, सुप्त प्राय / लुप्त प्राय जनता को जागृत कर...
अपना कोइ ४-५ वर्ष इस से सम्बंधित अनुभव यही रहा कि मीडिया वाले बिगड़े रईस समान परम्परानुसार तभी आते हैं जब उनको आप कुछ गिफ्ट दें - सूटकेस आदि, और किसी बड़े 'नेता' को निमंत्रित करें, और खान पान का भी प्रबंध करें :)
और वैसे सच कहा जाए तो अपनी यह परंपरा रही थी कभी कि सभी गंगा के घाटों, काशी आदि में बैठ चर्चा करो, उसका अपने क्षेत्र में लौट मौखिक प्रचार करो... १२ वर्ष बाद फिर फिर मिलो और कुछ त्रुटी सुधार यदि आवश्यक हो तो, फिर लौटो और प्रचार करो...
हमारी कथा कहानियों में सारा ज्ञान भरा पड़ा है... किन्तु वो सांकेतिक भाषा में हैं, जिस कारण केवल वो सत्य जान पाता है जिसका उस से प्राकृतिक सम्बन्ध है, शेष अन्य भी उनका अपनी अटकल लगा कार्य कठिन कर देते हैं, और इसी कारण यह कथन, "हरी अनंत हरी कथा अनंता...",,, सो अब नदीजल द्वारा लाये रेत में से सोने के कण छान के धीरे धीरे निकाल एकत्रित करने होंगे, जिसके लिए धैर्य, और लगन के साथ साथ समय आवश्यक हैं, और समय किसी के पास आज है ही नहीं :)
कौशलेन्द्र जी सिर्फ वैज्ञानिक सेमिनारों में ही नहीं बल्कि हर जगह यही हाल है....वैसे जे सी जी कि इस बात में तथ्य तो है कि आयोजकों से लेकर वक्ता तक सभी कवरेज पाना चाहते हैं और इसी चक्कर में मीडिया को लुभाने के लिये नेताओं को बुला लेते हैं...प्रसिद्धी के स्तर से उपर उठकर जब तक विशुद्ध ज्ञान और चर्चा की भावना से इस तरह के सेमिनारों का आयोजन न होगा तब तक इस समस्या से मुक्ति नहीं पाई जा सकती.....एक और तरीका भी है पर उसे व्यापक तौर पर स्वीकारना जरूरी है ....अच्छे वक्ता ऐसे किसी भी सेमिनार में पेपर रीडिंग के लिये तैयार ही ना हों जिसमें नेताओं को मुख्य अतिथी के रूप में बुलाया जाय।उस विषय से जुड़े हुए विद्वानों को ही अतिथी के रूप में आमंत्रित किये जाने पर अपनी स्वीकृति प्रदान करें.....शायद इससे आयोजकों की आँख खुल सके.....हाल ही में हमारी युनिवर्सिटी का युवक महोत्सव सम्पन्न हुआ....मंच पर 10-12 अतिथी विराजमान थे पर आयोजक संस्था नें सिर्फ अध्यक्ष और मुख्य अतिथी को ही बोलने का अवसर प्रदान किया(जो कि नेता नहीं बल्कि शिक्षणविद थे)वह भी सिर्फ 10 मिनिट बोलने की ताकीद के साथ ताकि अधिक से अधिक समय युवा विद्यार्थियों को उनकी विविध स्पर्धाओं के लिये दिया जा सके....यह तरीका सब को बेहद पसंद आया ....
जवाब देंहटाएंFrom Dr.Suneel Qamra [suneelqamra@gmail.com], Scientist (ICMR), Jabalpur- "Yes I do agree with you in this voice and not only this speaker/guest speaker /special lecture should be related to the seminar,s subject and not to please some one. Essentail to raise voice. To the extent expenditure should alos be kept before the house and fund raised. Seminar etc should not be source of earning."
जवाब देंहटाएंमालिनी जी ! जानकर अच्छा लगा कि आपके यहाँ का कार्यक्रम अच्छी तरह संपन्न हुआ. काश ! यही व्यवस्था सभी लोग लागू कर पाते ताकि एक स्वास्थ्य परम्परा बन पाए.
जवाब देंहटाएंजे.सी.जी ! ॐ नमोनारायण ! हिमालय की उपत्यिकाओं में ऋषियों की संभाषा परिषदें आयोजित किये जाने का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है जिसमें लगभग पूरे एशिया के विद्वान भाग लिया करते थे. उसी सभा में चेयरपर्सन द्वारा अंतिम निष्कर्ष भी दिया जाता था.जिसे सभी ऋषी अंतिम रूप से स्वीकार करते थे. बाद में, जैसा कि आपने कहा सभी लोग अपने -अपने क्षेत्रों में जाकर उस ज्ञान का प्रचार किया करते थे. तब शोध वैज्ञानिकों में अपना नाम देने की प्रथा नहीं थी बल्कि वे जिस संस्था/गुरुकुल से आते थे उसी का नाम लिया जाता था. ज्ञान व्यक्तिगत न होकर संस्थागत हुआ करता था. इसीलिए भारतीय आर्ष ज्ञान इतना समृद्ध हो सका. वेदों को भी इसीलिए "श्रुत" कहा गया है . वेदों का कोई एक ऑथर नहीं था, कई लोगों ने उसे अपने ज्ञान से समृद्ध किया था. आज भी "ग्रे" की एनाटोमी के नाम से मेडिकल के विद्यार्थी जिस किताब को पढ़ते हैं वह कई विद्वानों के ज्ञान का सम्पादन है. आज प्रसिद्धि के लोभ ने ज्ञान की शुचिता को नष्ट कर दिया है. यहाँ हालात ऐसे हैं कि हम पूरा जीवन शोध के लिए अवसर अनुकूल करने में ही व्यतीत कर देते हैं. अब जिसे आग होगी वह तो बाहर भूमि तलाश करेगा ही. फिर सब ब्रेनड्रेन-ब्रेनड्रेन चिल्लाते हैं.
काम्रा जी ! सेमीनार को भी आय का साधन बनाने वालों के लिए क्या कहा जाय ? ...इन्हें बुद्धिजीवियों की श्रेणी में रखना इस समुदाय को कलंकित करना है. वैसे मैंने आवाज़ बुलंद कर दी है. आशा करूंगा कि और लोग भी अपने-अपने स्टार से इस आवाज़ को बुलंद करेंगे. हर गलत परम्परा का विरोध होना ही चाहिए.
मालिनी जी की यह बात भी ध्यातव्य है कि वैज्ञानिक सेमिनार्स में यदि नेताओं को आमंत्रित किया जाय तो वैज्ञानिकों को उसका बहिष्कार कर देना चाहिए. प्रेजेंटेशन के समय होने वाली फजीहत से बचने का अच्छा उपाय है.
डॉक्टर साहब!
जवाब देंहटाएंकमाल की नज़र है.. अभी दो चार दिन पहले ही गुजारा हूँ इस भयंकर पीड़ा से.. हिन्दी दिवस समारोह में मुझे ज़बरदस्ती (मेरे ना करने के बावजूद भी) कविता पाठ के लिए बुलाया. और जैसे ही मैं मंच पर पहुँच कर गर्दन सीधी कर, अभिवादन के बाद अपनी कविता का शीर्षक ही बोलने चला हूँ कि पीछे से किसी ने कुर्ता खींच लिया.. आप कविता पढ़िए, जल्दी से बस २ मिनट का समय है. जल्दी-जल्दी 'फोन अ फ्रेंड' वाले स्टाइल में कविता निपटाए और मंच से उतर आये. मेरे बाद वाले कवि (संयोजिका के प्रिय पात्र) पूरा महाकाव्य भाषा-टीका सहित पढ़ गए!
इसीलिये मैं तो ये सेमीनार और मीत वगैरह से दूर ही रहता हूँ!! बिलकुल सटीक ऑब्जर्वेशन है डॉक्टर साहब!!
सेमिनार्स के कच्चे चिट्ठे के लिए बधाई...वाकई यही सच है.
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