मंगलवार, 27 सितंबर 2011

सेंड्रा के मार्ग में.....

आज से बीस साल पहले लिखी गयी एक कविता -

दूर घने जंगल में 
बेशऊरों के गाँवमें
साहब को जाना था
वंचितों की सेवा का 
राजा के दरबार में 
डंका बजवाना था.
थी राह टेढ़ी-मेढ़ी और ड्रायवर अनाडी 
भटक गयी जंगल में साहब की गाडी.
साहब को प्यास लगी 
ड्रायवर से बात कही.
किन्तु वहाँ जंगल में कहाँ धरा पानी ?
ऊपर से भटकन की ये परेशानी.
साहब ने रुमाल से पसीने को पोछा
कुछ सोचा....कुछ समझा 
ड्रायवर को रोका
फिर नीचे उतर कर इधर-उधर देखा.

थी वहाँ अधनंगी काली एक माया 
देखकर शहरी को घबड़ाई वनबाला.
लोगों से सुनती थी
मन में फिर गुनती थी
कि बैठ, चलते-फिरते घर में
साहब कोई आता है 
देख, जंगल की पैंकी को
गाना भी गाता है.
आज सचमुच देख लिया 
चलता हुआ घर भी 
और एक साहब भी.

देखकर साहब को और उनके रंग-ढंग को 
भोली उस लड़की ने मन में यह सोच लिया 
कि होकर भी मर्द 
नीचे से ऊपर तक 
क्यों इतने कपड़ों को 
है इसने लाद लिया ?
मेरे तो पारे में इतने ही कपड़ों से 
सारे मर्दों की 
कमरें ढँक जायेंगी.
यह मर्द नहीं, अनहोनी है 
शायद इस पारे में विपदाएं आयेंगी.
क्षण भर में भीत हुयी 
जंगल की बाला
भागी वह छोड़-छाड़ 
तीर-धनुष-भाला.

सभ्य ने असभ्य को इशारे से बुलाया
है रास्ता किधर 
वह जोर से चिल्लाया
भाग गयी लड़की, नहीं मिली छाया
फिर तो साहब का क्रोध भड़क आया
दी गंदी गाली और ऐसा बोले -
"ये जंगल के वासी 
पशु हैं सब साले ".

बैठकर जीप में साहब तो चला गया
जीप ने धुआँ छोड़ा 
खुद प्रश्न छोड़ गया -
कि आज इस दुनिया में 
सचमुच कौन भटका है 
साहब 
या वनवासी ?
प्रश्न यद्यपि छोटा है 
किन्तु बहुत उलझा है 
जवाब दे सको 
तो मेरे साहब को दे देना
मैं दूंगा तो वे नाराज़ हो जायेंगे.
आपकी बात और है 
आपका मोहकमा और है 
वे नाराज भी होंगे 
तो आपका क्या बिगाड़ लेंगे !  




सम्माननीय पाठको ! नमस्कार !
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