बा अदब ! बा मुलाहिजा होशियार !
एक खौफ़नाक ख़बर है .........दिल थाम कर सुनियेगा ....
उत्तर-प्रदेश में अगले वर्ष चुनाव होने हैं ....................और ख़बर है कि मायावती मुस्लिमों को आरक्षण देने की माँग कर रही हैं.
वे स्वयं को दलित प्रचारित करती हैं...और सम्राटों की तरह ऐश्वर्य भोग करने वाली मलिका-ए-उत्तरप्रदेश का रुतबा रखती हैं. भारत का कोई भी आम नागरिक यह जानने के लिए उत्सुक है कि क्या उन्होंने यह रुतबा आरक्षण की बैसाखियों से प्राप्त किया है ? क्या कोई दलित इन बैसाखियों के बिना बाबा साहेब आम्बेडकर नहीं बन सकता ?
यदि माया को मिली माया का मूल आरक्षण की शिथिलता से उर्वरता प्राप्त करता है तो उन्हें चिंतित होने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह व्यवस्था पर्याप्त है और उन्हीं की तरह अन्य लोग भी इसी व्यवस्था का लाभ लेते रहेंगे, इसमें कुछ और नया करने की क्या आवश्यकता ? किन्तु यदि बाबा साहेब की उपलब्धियाँ उन्हें अपनी क्षमताओं के कारण मिली हैं तो ऐसी ही क्षमता अन्य लोग भी क्यों नहीं अर्जित करते और क्यों नहीं लोगों को ऐसी क्षमता अर्जित करने के लिए उत्साहित-प्रोत्साहित किया जाता ?
एक खौफ़नाक ख़बर है .........दिल थाम कर सुनियेगा ....
उत्तर-प्रदेश में अगले वर्ष चुनाव होने हैं ....................और ख़बर है कि मायावती मुस्लिमों को आरक्षण देने की माँग कर रही हैं.
वे स्वयं को दलित प्रचारित करती हैं...और सम्राटों की तरह ऐश्वर्य भोग करने वाली मलिका-ए-उत्तरप्रदेश का रुतबा रखती हैं. भारत का कोई भी आम नागरिक यह जानने के लिए उत्सुक है कि क्या उन्होंने यह रुतबा आरक्षण की बैसाखियों से प्राप्त किया है ? क्या कोई दलित इन बैसाखियों के बिना बाबा साहेब आम्बेडकर नहीं बन सकता ?
यदि माया को मिली माया का मूल आरक्षण की शिथिलता से उर्वरता प्राप्त करता है तो उन्हें चिंतित होने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह व्यवस्था पर्याप्त है और उन्हीं की तरह अन्य लोग भी इसी व्यवस्था का लाभ लेते रहेंगे, इसमें कुछ और नया करने की क्या आवश्यकता ? किन्तु यदि बाबा साहेब की उपलब्धियाँ उन्हें अपनी क्षमताओं के कारण मिली हैं तो ऐसी ही क्षमता अन्य लोग भी क्यों नहीं अर्जित करते और क्यों नहीं लोगों को ऐसी क्षमता अर्जित करने के लिए उत्साहित-प्रोत्साहित किया जाता ?
वस्तुतः आज राजनीति में कोई रुतबा हासिल करने के लिए किसी प्रशंसनीय गुण की आवश्यकता नहीं रह गयी. कूटनीतिक जोड़-तोड़, निम्नस्तरीय छल, जनता में दृढ़ता की कमी और तामसिक परिस्थितियों से बने शोषक समीकरण देश के अवसरवादियों को उनके अभीप्सित भेंट करते रहेंगे. सत्ता सुख के लिए कुछ भी कर गुज़रने के लिए पागल हो रहे राजनीतिज्ञों से जनता के हित की अपेक्षा करना व्यर्थ है .
जनता के हित की छद्मचिंता से ग्रस्त होने के अभिनय में कुशल राजनीतिज्ञों से देश के लोग जानना चाहते हैं कि देश को छल रही सरकारें जनता को कब तक बैसाखियाँ पकड़ाती रहेंगी ?
दुर्बल वर्ग को बैसाखियों की नहीं अच्छे सोसियोथिरेपिस्ट की ज़रुरत है. जातिगत आरक्षण अपात्र को अपात्र बने रहने देने का और सुपात्र को उसकी क्षमताओं से देश को वंचित करने का निर्मम षड्यंत्र है. देश की जनता ...विशेष कर आरक्षित वर्ग को यह मंथन करना होगा कि आरक्षण की एक लम्बे समय से चली आ रही व्यवस्था से अब तक उनका कितना गुणात्मक उन्नयन हुआ है ?
गुणात्मक उन्नयन के लिए जिन तत्वों की आवश्यकता होती है उनकी उपेक्षा करते रहने से बौद्धिकविकलांगता तो बढ़ेगी ही, देश में वर्ग-भेद भी बना रहेगा......अगले, पिछड़े, अतिपिछड़े, दलित, अतिदलित, अनुसूचितजाति, अनुसूचितजनजाति, मुस्लिम, ईसाई (आदि के अतिरिक्त....वैचारिक गर्भ में पल रहे अन्य समाज तोड़क वर्गों की कल्पनाएँ जो भविष्य में कभी भी जन्म ले सकती हैं) की खाइयाँ और भी गहरी और चौड़ी होती रहेंगी.
अब समय आ गया है कि आरक्षित वर्ग के लोग स्वयं अपने गुणात्मक विकास का प्रयत्न करें और बैसाखियों का व्यामोह छोड़ें. आरक्षण एक ऐसा बौद्धिक कैंसर है जिसकी मेटास्टेसिस को आगे रोकना होगा. इस कैंसर से छद्म चिकित्सक बन कर रहनुमाई करने वाले मात्र राजनैतिक दलों का ही लाभ है, पीड़ित का लेश भी नहीं. पीड़ित आने वाले समय में कॉमा में चला जाय इससे पहले उसे अपना चिकित्सक स्वयं बनना होगा.
जातिभेद और शोषण के विरुद्ध वर्गहीन, सामाजिक समानता और सुख के कल्पना जगत में मोहित हुआ समाज का लुब्धवर्ग धर्मांतरण के बाद भी त्यक्त व्यवस्था की दुहाई देकर ...उसी त्यक्त जाति, वर्ग-भेद और सामाजिक असमानता के नाम पर किसी अनपेक्षित लाभ की आशा क्यों करना चाहता है ? उसे अपने नए धर्म की व्यवस्था में ही विकास के पथ खोजने चाहिए ...यदि ऐसा कर पाने में वह असफल रहता है तो उसे यह घोषित करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि धर्मांतरण के नाम पर उसे ठगा गया है और यह भारतीय समाज को विखंडित करने की विदेशी कुनीति का एक पक्ष है.
यह भी विचारणीय है कि समाज में बौद्धिक और सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में क्या धर्म की भी कोई भूमिका है ? आखिर क्यों किसी धर्म विशेष के लोगों का भारतीय समाज में रहते हुए....समान नागरिक सुविधाओं का उपयोग करते हुए भी विकास नहीं हो पाया ? या फिर इस पिछड़ेपन के कोई अन्य कारण भी हैं ?
जहाँ तक पिछड़ेपन का प्रश्न है, भारतीय ( और पाकिस्तानी भी ) समाज के सभी धर्मों की सभी जातियों में कुछ लोग पिछड़ेपन के शिकार हैं. इन पिछड़े हुए लोगों में तथाकथित अगली जातियों के लोग भी हैं. सच तो यह है कि आर्थिक विपन्नता और सामाजिक कुरीतियों को दूर किये बिना किसी भी प्रकार का आरक्षण गुणात्मक विकास में सहायक होने के स्थान पर बाधक ही रहा है ...यह प्राकृतिक विकास के सिद्धांतों के विपरीत भी है. किसी भी धर्म के अनुयायियों को धर्म और जाति निरपेक्ष रहते हुए केवल और केवल विकास की समान मौलिक सुविधाओं की माँग करनी चाहिए.
हमारा दावा है कि फिलहाल अगले कई वर्षों तक आने वाली कोई भी सरकार समान मौलिक सुविधाएं उपलब्ध कराना सुनिश्चित नहीं करेगी.
जनता के हित की छद्मचिंता से ग्रस्त होने के अभिनय में कुशल राजनीतिज्ञों से देश के लोग जानना चाहते हैं कि देश को छल रही सरकारें जनता को कब तक बैसाखियाँ पकड़ाती रहेंगी ?
दुर्बल वर्ग को बैसाखियों की नहीं अच्छे सोसियोथिरेपिस्ट की ज़रुरत है. जातिगत आरक्षण अपात्र को अपात्र बने रहने देने का और सुपात्र को उसकी क्षमताओं से देश को वंचित करने का निर्मम षड्यंत्र है. देश की जनता ...विशेष कर आरक्षित वर्ग को यह मंथन करना होगा कि आरक्षण की एक लम्बे समय से चली आ रही व्यवस्था से अब तक उनका कितना गुणात्मक उन्नयन हुआ है ?
गुणात्मक उन्नयन के लिए जिन तत्वों की आवश्यकता होती है उनकी उपेक्षा करते रहने से बौद्धिकविकलांगता तो बढ़ेगी ही, देश में वर्ग-भेद भी बना रहेगा......अगले, पिछड़े, अतिपिछड़े, दलित, अतिदलित, अनुसूचितजाति, अनुसूचितजनजाति, मुस्लिम, ईसाई (आदि के अतिरिक्त....वैचारिक गर्भ में पल रहे अन्य समाज तोड़क वर्गों की कल्पनाएँ जो भविष्य में कभी भी जन्म ले सकती हैं) की खाइयाँ और भी गहरी और चौड़ी होती रहेंगी.
अब समय आ गया है कि आरक्षित वर्ग के लोग स्वयं अपने गुणात्मक विकास का प्रयत्न करें और बैसाखियों का व्यामोह छोड़ें. आरक्षण एक ऐसा बौद्धिक कैंसर है जिसकी मेटास्टेसिस को आगे रोकना होगा. इस कैंसर से छद्म चिकित्सक बन कर रहनुमाई करने वाले मात्र राजनैतिक दलों का ही लाभ है, पीड़ित का लेश भी नहीं. पीड़ित आने वाले समय में कॉमा में चला जाय इससे पहले उसे अपना चिकित्सक स्वयं बनना होगा.
जातिभेद और शोषण के विरुद्ध वर्गहीन, सामाजिक समानता और सुख के कल्पना जगत में मोहित हुआ समाज का लुब्धवर्ग धर्मांतरण के बाद भी त्यक्त व्यवस्था की दुहाई देकर ...उसी त्यक्त जाति, वर्ग-भेद और सामाजिक असमानता के नाम पर किसी अनपेक्षित लाभ की आशा क्यों करना चाहता है ? उसे अपने नए धर्म की व्यवस्था में ही विकास के पथ खोजने चाहिए ...यदि ऐसा कर पाने में वह असफल रहता है तो उसे यह घोषित करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि धर्मांतरण के नाम पर उसे ठगा गया है और यह भारतीय समाज को विखंडित करने की विदेशी कुनीति का एक पक्ष है.
यह भी विचारणीय है कि समाज में बौद्धिक और सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में क्या धर्म की भी कोई भूमिका है ? आखिर क्यों किसी धर्म विशेष के लोगों का भारतीय समाज में रहते हुए....समान नागरिक सुविधाओं का उपयोग करते हुए भी विकास नहीं हो पाया ? या फिर इस पिछड़ेपन के कोई अन्य कारण भी हैं ?
जहाँ तक पिछड़ेपन का प्रश्न है, भारतीय ( और पाकिस्तानी भी ) समाज के सभी धर्मों की सभी जातियों में कुछ लोग पिछड़ेपन के शिकार हैं. इन पिछड़े हुए लोगों में तथाकथित अगली जातियों के लोग भी हैं. सच तो यह है कि आर्थिक विपन्नता और सामाजिक कुरीतियों को दूर किये बिना किसी भी प्रकार का आरक्षण गुणात्मक विकास में सहायक होने के स्थान पर बाधक ही रहा है ...यह प्राकृतिक विकास के सिद्धांतों के विपरीत भी है. किसी भी धर्म के अनुयायियों को धर्म और जाति निरपेक्ष रहते हुए केवल और केवल विकास की समान मौलिक सुविधाओं की माँग करनी चाहिए.
हमारा दावा है कि फिलहाल अगले कई वर्षों तक आने वाली कोई भी सरकार समान मौलिक सुविधाएं उपलब्ध कराना सुनिश्चित नहीं करेगी.