मेरा पुत्र वर्त्तमान शिक्षा का विरोधी है ...वह ऐसी शिक्षा को व्यर्थ मानता है जो शैक्षणिक उपाधिधारी को मनुष्य नहीं बना पाती.
पटना वाले "जूली मटुक नाथ चौधरी" को आज की औपचारिक शिक्षा में कई कमियाँ दिखाई देती हैं ....उनके अनुसार वर्त्तमान शिक्षा हमें वैचारिक पाखण्ड की ओर ले जा रही है. वे भागलपुर में अपने तरीके का एक विद्यालय प्रारम्भ करने जा रहे हैं जहाँ ऐसी शिक्षा देने का प्रयास किया जाएगा जो विद्यार्थी को वैचारिक पाखण्ड से मुक्त कर सके.
विद्या वही है जो हमें अन्धकार से मुक्त कर प्रकाश में लाकर खडा कर दे.
शिक्षा वह है जिससे हम कुछ नया सीख सकें ......कुछ ऐसा नया जो सर्वजन हिताय हो .....उत्कृष्टता की ओर आगे बढ़ने में सहाय हो.
और संस्कार वह है जो हमारे आचरण को परिमार्जित कर हमें निर्मल और हमारे आचरण को अनुकरणीय बना सके.
विद्या, शिक्षा और संस्कार....हमारी क्षमताओं के विस्तार और परिमार्जन के लिए आवश्यक हैं. पर तीनो का संयोग दुर्लभ है. इस दुर्लभता के कारण हम स्वयं में उलझते जा रहे हैं......
.........हम उलझ रहे हैं तो समाज भी उलझ रहा है.
संयोग की यह दुर्लभता क्यों है ?......कैसे सुलभ बनाया जा सके इसे ?
मनुष्य विविधताओं का पुतला है .
एक ही व्यक्ति में कई विविधताएं ....और समाज में तो न जाने कितनी विविधताएं ...
सभी की अलग-अलग क्षमताएं ......अलग-अलग सीमाएं ......सुसंयोग की दुर्लभता स्वाभाविक है.
तो वर्गीकरण करना होगा. पात्रता का निर्धारण करना होगा. सुपात्र को अवसर की सुलभता और कुपात्र का परित्याग आवश्यक करना होगा.
विद्या के लिए स्वयं तप करना होगा.....शिक्षा के लिए सुपात्र होना होगा ......और संस्कार के लिए विनम्र होना होगा.
आज समाज में इन तीनों का अभाव दिखाई दे रहा है. तथाकथित उच्च उपाधिधारी लोग भी शिक्षित नहीं हैं ...लेश भी शिक्षित नहीं हैं. शिक्षित होते तो भारतीय सेवा के कई अधिकारी अपने अधीनस्थ अधिकारियों को अभद्र गालियाँ नहीं देते. मैं स्वयं कलेक्टर्स की अभद्रताओं का कई बार शिकार हुआ हूँ.
कई बार उच्च-शिक्षित लोग भी विनम्र नहीं होते ......प्रत्युत कई बार तो वे और भी उद्दंड और अहंकारी हो जाते हैं. ज्ञान का मार्ग ऐसे लोगों के लिए बंद हो जाता है. इनके पास केवल सूचनाओं का बोझ होता है. उन्हें गर्व है अपने इस बोझ पर.
उनका 'गर्व' देश के दुर्भाग्य के बड़े स्रोतों में से एक है.
लोग जिन्हें पढ़ा-लिखा कहते हैं मैं उन्हें उपाधिधारी कहता हूँ. वे लिख सकते हैं ..पढ़ सकते हैं ....अपनी उपाधि को ढोने का गर्व कर सकते हैं ...पर उनमे से अधिकांश लोग मनुष्य नहीं हो पाते. उपाधिधारी और मनुष्य के बीच का यह अंतर समझना होगा.
उपाधिधारी यदि मनुष्य भी होते तो क्या भ्रष्ट आचरण पर अंकुश नहीं लग पाता ?
रही बात संस्कार की, तो अब इसकी परिभाषाएं बदल गयी हैं. जीवन का सम्पूर्ण परिदृश्य बदल गया है....मान्यताएं बदल गयी हैं ...लक्ष्य बदल गए हैं ...... विश्व की सभ्यताएं आपस में बात कर रही हैं. एक-दूसरे को अपनी बातों से प्रभावित कर रही हैं ...लोगों के संस्कार बदल रहे हैं ....
वैज्ञानिक तकनीकों से निर्मित हुयी भूमंडलीकरण की सुलभता के परिणामस्वरूप विश्व की सभ्यताएं एक-दूसरे को प्रभावित कर रही हैं.
सभ्यताएं एक-दूसरे को प्रभावित कर रही हैं .....क्योंकि उनमें एक-दूसरे के प्रति नवीनता का आकर्षण है और अपनी सभ्यता के प्रति अनास्था का विकर्षण है........
यह अनास्था का युग है......असंतुष्टि का युग है ......अधिकारों के अपहरण का युग है.......शक्ति के अहम् का युग है .....
संवेदना और सहनशीलता लुप्त होती जा रही है . सखाभाव का स्थान शत्रुभाव ने ले लिया है....चारो ओर शत्रुता निर्मित हो रही है. विमर्श और मित्रता का कहीं कोई स्थान नहीं ...प्रेम का कहीं कोई स्थान नहीं.
प्रेम का यदि कहीं कोई स्थान है भी तो बस इतना ही कि हम प्रेम और सम्मान की वर्षा चाहते हैं ...केवल स्वयं के ऊपर .........इस वर्षा की एक बूँद भी दूसरे को देना नहीं चाहते.
जो हम अपने लिए चाहते हैं वही दूसरे को देना नहीं चाहते इसीलिये देश में कबीले बन रहे हैं ....राज्य में कबीले बन रहे हैं ....नगर में कबीले बन रहे हैं.....ऑफिस में कबीले बन रहे हैं.......वैज्ञानिकों, चिंतकों, साहित्यकारों, ब्लोगर्स .....सभी के गुटों में कबीले बन रहे हैं. पूरे देश में कबीला तंत्र स्थापित होता जा रहा है.
एक कबीला दूसरे कबीले को नीचा दिखाने में अपनी सारी शक्ति नष्ट कर रहा है ........उसके लिए यही पुरुषत्व है ...........राष्ट्र प्रेम है. वह देश प्रेम की बात करता है पर देश के लोगों को दुश्मन मानता है......उसके राष्ट्र प्रेम की अवधारणा विचित्र है .....
इस कबीला संस्कृति को देखकर बिल्ली निरंकुश हो चुकी है क्योंकि उसके पास जयचंदों द्वारा प्रदत्त गुप्तशक्ति है ........क्योंकि उसके पास चाटुकारों द्वारा थोपी हुयी प्रतिभा है.......क्योंकि हमारे अन्दर बिल्ली के प्रति एक अनावश्यक प्रेम का आकर्षण है...आदर का भाव है .....
कुछ लोग बिल्ली के गले में घंटी बांधना चाहते हैं ......बांधने का प्रयास कर रहे हैं ......शक्तिशाली बिल्ली शेरनी बनकर उनपर टूट पड़ती है...उन्हें झिंझोड़ डालती है. लोग सफल नहीं हो पा रहे हैं. कबीले सशक्त हैं और बिल्ली मायावी है........................और यह भारतीय समाज का दुर्भाग्य है.
..........और यह दुर्भाग्य बना रहेगा ....तब तक बना रहेगा जब तक कि हम अपने चिंतन के स्तर पर सभ्य नहीं हो जाते ....विद्या, शिक्षा और संस्कार के सुयोग को पुनः सुस्थापित नहीं कर लेते.
हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी. अपने देश की प्राचीन मान्यताओं को खोजकर बाहर निकलना होगा ....उन्हें झाड़-पोंछकर फिर से सजाना होगा. नारी शक्ति को उसका सम्मान वापस देना होगा ......और शत्रु को भी मित्र बना सकने की क्षमता उत्पन्न करनी होगी.
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः .....
तमसोमा ज्योतिर्गमय......