बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

हम खोये हुए रिश्तों को तलाशते हैं .....


कई बार रक्तसम्बन्ध न होते हुए भी हम किसी अन्य से मानस-रक्तसम्बन्ध बना लेते हैं......
.........या बनाने का प्रयास करते हैं .....
.........या तलाश में लगे रहते हैं .......मनुष्य की यह सहज वृत्ति है.
पश्चिमी देशों के विपरीत हम भारतीय दैहिक-रक्तसंबंधों के विकल्प स्वरूप मानसिक-रक्तसंबंधों की तलाश में कई बार तो पूरा जीवन ही बिता देते हैं...... .
पर क्यों ....? रक्त सम्बन्ध ही बनाना इतना आवश्यक क्यों ? सम्बन्ध तो और भी हैं न ! 
हम भारतीय तमाम विवाद के बाद भी रक्तसंबंधों की दृढ़ता और पवित्रता में अपनी आस्था बनाए रखते हैं .....यह एक सुखद और गर्व करने योग्य धारणा है. 
माता-पिता, भाई-बहन, पिता-पुत्र या पिता-पुत्री जैसे अति संवेदनशील और नितांत निजी रिश्तों को भी क्षण भर की भावुकता में बनते और फिर उसी तरह तड़ाक से टूटते देख रहा हूँ. 
हम रिश्ते क्यों बनाते हैं ....? हम रिश्ते क्यों तोड़ते हैं ....?   
हम जीवन भर खोये हुए रिश्तों को क्यों तलाशते हैं .....?
रिश्ते .....जो जाने-अनजाने खो जाया करते हैं .......फिर कभी न मिलने के लिए.......पर मन मानता कहाँ है.....खोजता रहता है .....कभी यहाँ ...कभी वहाँ ...... 
पर रिश्ते खोते ही क्यों हैं कि उन्हें तलाशना पड़े, रिश्तों को खोने की पीड़ा और फिर उन्हें तलाशने की भटकन ...... संयोग और वियोग तो घटनाएँ हैं ......जगत की रीति हैं.  कभी किसी का वश चल पाया है इन पर ? 
नहीं न ! इसीलिये तो ......रिश्ते भी खो जाते हैं..... भीड़ भी तो कितनी है !   


खोये हुए रिश्तों की तलाश....................................................................................................
यह हमारा भटकाव हो सकता है....पर इतना तो तय है कि यह कोई गुनाह नहीं है. .......बेशक ! गुनाह नहीं है ....फिर इस तलाश में इतना विवाद क्यों ?
.......इस तलाश में कभी कुछ हाथ लगा भी तो .....आवश्यक नहीं कि अभीष्ट ही मिला हो. एक छलावा भी तो हो सकता है ...बल्कि उसी की संभावना अधिक रहती है. 
छलावा है तो हाथ से फिर फिसल जाएगा .....तड़ित की तरह निमिष भर को चमत्कृत कर सारी आशाएं ख़ाक कर जाएगा. छोड़ जाएगा अपने पीछे पीड़ा की एक और कहानी .......
ऐसी कितनी ही कहानियाँ रोज बनती और....फैलती रहती हैं ........कुछ दिन चर्चा रहती है ...फिर एक खामोशी पसर जाती है ...........कुछ दिन अवसाद ...और फिर रिश्तों की एक और तलाश .......
तलाश ...और फिर तलाश ......कभी तो अंतहीन ...और कभी विराम भी !
यह विराम निराशा का परिणाम नहीं .......संसार की निस्सारता के ज्ञान का परिणाम है.


एक तीसरी स्थिति और भी है .....हताशा की स्थिति ......अब यदि हम तामसिक वृत्ति वाले हैं तो यह हताशा हमें अवसाद की ओर ले जायेगी. किन्तु यदि हमारी वृत्ति राजसिक है तो यह हताशा हमें एक और नयी विकृति की और ले जाती है ......परपीड़ानन्द की ओर  ...
परपीड़ानंदी होकर हम रिश्ते बनाते हैं ....फिर उनमें आनंद खोजते हैं ......उन्हें पीड़ा देकर....
पीड़ा में आनंद खोजना वृत्ति नहीं विकृति है. इस विकृति से बचना है तो हताशा से बचना होगा. आशा का दीप जलाए रखना होगा. 
हाँ ! ध्यान रहे, यदि अभी वैराग्य नहीं हुआ है तो प्रेम की तलाश जारी रहनी चाहिए .........
प्रेम की तलाश ....रिश्तों से परे भी ..........
रिश्तों का बंधन ही क्यों ..........संबंधों की सीमा ही क्यों ? इन सबसे परे प्राणिमात्र में प्रेम की तलाश करके एक बार देखो तो सही ........प्रेम का विस्तृत सागर है यहाँ .........


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः .......