शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

या तमसा देवी ! मनुष्यभूतेषु पाप रूपेण संस्थिता ......



'शक्ति' एक दिन 
'शिव' से बोली -
शक्तिहीन हो रही स्वयं मैं 
हरते-हरते पाप जगत के
अब और नहीं ढो पाऊँगी मैं 
बोझ 
तुम्हारे पापी जग के.
निश-दिन 
लिप्त रहें पापों में 
मंदिर में भी निर्लज्ज-प्रदर्शन
नंगे-भूखे 
मंदिर के बाहर 
स्वर्णाभूषण 
मंदिर को अर्पण  ?

भगवान उवाच -

हे देवी ! 
दुखी बहुत हूँ मैं भी 
देख-देख 
यह मानव-लीला. 
मैं तो सदा भाव का भूखा 
छप्पन भोग न भाते मुझको 
मुझे सदा प्रिय 
रूखा-सूखा. 
जाने क्यों ये कनक घटों में
कनक चढ़ाया करते हैं. 
मुझको 
मेरे भक्तों के संग 
दिन-रात रुलाया करते हैं.

जिस दिन पहला कनक 
चढ़ावे में मंदिर में आया था
'तुझको अर्पित  तेरा' 
-मिथ्या उद्घोष किया था. 
तब से रूठ गया मन मेरा 
मैं हर पल अब रोता हूँ 
पाषाण रह गए भीतर 
मैं, निर्वासित जीवन जीता हूँ 
मैं पीड़ा में...... 
मैं करुणा में ......
और अकिंचन के उर में 
तब भी था 
अब भी हूँ 
मैं सदियों से 
मंदिर के बाहर 
भिक्षु पंक्ति में बैठा हूँ