किसी जापानी से यह प्रश्न किया जाय तो उसका उत्तर होगा - "ज़ील भी ज़ेन भी". किन्तु भारतीय मानसिकता के अनुसार केवल "ज़ील" या फिर "ज़ेन", एक साथ दोनों नहीं. पहला उत्तर समझौतावादी सा है जबकि दूसरे उत्तर में इसका अभाव स्पष्ट दिखाई देता है. किन्तु इस ज़रा से प्रश्न के ज़रा से उत्तर में ही छिपा है भारत का वर्त्तमान और भविष्य. भारत के वर्त्तमान और भविष्य से जुड़े इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने से पहले ज़रा रजनीश से भी मिलते चलें, कदाचित् उनका उत्तर आपको अच्छा लगे.
तो रजनीश का उत्तर है - "ज़ील से ज़ेन की ओर...". रजनीश की यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है. वे कन्फ्यूशियस या ताओ की तरह किसी एक ही खूंटे से बंधे रहने की ज़िद नहीं करते. वे कहते हैं, न तो ओर्थोडोक्स बने रहने की आवश्यकता है और न एक्सट्रीमिस्ट.जब वे "सम्भोग से समाधि की ओर" यात्रा करने की बात करते हैं तो वे ऊर्जा के विनाशकारी विस्फोट को बचाते हुए उसके लिए एक दिशा निर्धारित करने की बात करते हैं. यह दिशा साधक को हलचल से प्रशान्तावस्था की ओर ले जाती है...अनेकांत से एकांत की ओर ले जाती है. उनकी यात्रा मार्ग में सब कुछ देखते हुए ...उसे छोड़ते हुए आगे बढ़ते जाने की है. आगे बढ़ने की प्रक्रिया में पीछे का सब कुछ छोड़ना ही पड़ता है. प्रतिक्षण हम कुछ नया पाते हैं और ठीक उसी क्षण कुछ पुराना छोड़ देते हैं.
किसी सामान्य व्यक्ति के लिए वर्त्तमान को स्वीकारना और उसके अनुरूप भविष्य की रणनीति बनाना इतना सरल नहीं है. हम स्वीकारते कम हैं निषेध अधिक करते हैं......यह निषेध जटिलता उत्पन्न करता है .......अब वह सहज नहीं रह जाता ....जो सहज था अब जटिल हो जाता है. चीन के CHE'N की अपेक्षा जापान के ZEN में निषेध की अपेक्षा स्वीकार अधिक है और यही उनका बौद्धत्व है.
यहाँ एक रोचक विचार मेरे मन में आ रहा है. जब हम ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की बात करते हैं तो प्रतीत होता है कि जहाँ जटिलता है सरलता भी वहीं है. जहाँ अन्धकार है प्रकाश भी वहीं है. बस, एक की अनुपस्थिति ही दूसरे की उपस्थिति है. इसे मैं यूँ कहना चाहता हूँ कि जहाँ प्रेम है वहीं घृणा भी है, जहाँ बुद्धिमत्ता का अंत होता है मूर्खता भी वहीं से शुरू हो जाती है . शत्रुता की सीमा जहाँ समाप्त होती है मित्रता की सीमा वहीं से आरम्भ हो जाती है. जिन्हें हम ध्रुव कहते हैं वे वस्तुतः बिंदु का विस्तार मात्र हैं.
अब मैं इसी बात को कुछ और ढंग से कहना चाहता हूँ. कोई भी व्यक्ति धूर्तता और सज्जनता के तुल्य गुणों का स्वामी होता है. राग और विराग दोनों भाव एक ही व्यक्ति में समान इंटेंसिटी में मिलते हैं. हम जितने सद् चरित्र हैं उतने ही दुश्चरित्र भी. पृथिवी के दोनों ध्रुवों को पृथक नहीं किया जा सकता .....पृथक कर देने से तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा. परस्पर विपरीत गुण वाले भावों का स्थान एक ही होता है. यह जो द्वैत है वह वस्तुतः अद्वैत की ही दो स्थितियाँ हैं. इन स्थितियों के विस्तार को समझ न पाने के कारण ही हम द्वन्द में पड़े रहते हैं.
कहते हैं कि प्रेम चोपड़ा रजत पटल के बाहर परम सज्जन व्यक्तियों में से एक हैं. जबकि उनके दर्शक उनकी दुर्जनता को ही उनकी सत्यता मान बैठते हैं. प्रेम चोपड़ा सज्जन भी हैं और दुर्जन भी. वे अन्दर से सज्जन हैं तो बाहर से दुर्जन. ऐसा व्यक्ति इस स्थिति को बदलने की भी क्षमता रखता है. दोनों विपरीत गुणों की समान तीव्रता है वहाँ. मनुष्य एक ऐसा पात्र है जहाँ एक बार में बस एक ही भाव प्रकट हो पाता है. यह हमारे चाहने पर निर्भर करता है कि हम किस क्षण में किस भाव को प्रकट करना चाहते हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि समाज का हर व्यक्ति स्वयं के अन्दर की प्रतिभा को प्रकट कर सकता है ....निखार सकता है. जापानियों और चीनियों के सुखमय जीवन, दीर्घायु, राष्ट्रीय भावना, नैतिक चरित्र और भौतिक प्रगति का कारण यही है कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से स्थूल और सूक्ष्म की सत्ता को स्वीकार किया है.
अभी मैंने ऊर्जा के विस्फोट की बात की थी. स्वाभाविक है, जहाँ ऊर्जा अधिक होगी वहाँ विस्फोट भी अधिक तीव्र होगा. कई बार हम अपनी ऊर्जा का सही आकलन नहीं कर पाते, या तो वास्तविक से न्यून या अधिक समझ बैठने की त्रुटि कर बैठते हैं. इसीलिये कभी हनुमान को उनकी शक्ति का स्मरण कराना पड़ता है.....तो कभी रावण को उसकी औकात बतानी पड़ती है. यह प्रक्रिया समाज में निरंतर होती पायी जाती है. हमें किसी को हतोत्साहित करना पड़ता है तो किसी को उत्साहित. zeal हमारे अन्दर की कार्योन्मुख शक्ति है......ऊर्जा का एक प्रवाह...जिसे zen के नियंत्रण और सही दिशा देने की आवश्यकता होती है. ध्यान रहे, zen केवल साधना और उससे प्राप्त बुद्धत्व ही नहीं है बल्कि ऊर्जा को एक सही दिशा देने की विधा भी है. zen से संचालित हुए बिना zeal का अस्तित्व अनियंत्रित अश्व की तरह होता है ...तब zeal की ऊर्जा को zealotry में परिवर्तित होते देर नहीं लगती...और हमारे बीच की कोई प्रतिभा देखते-देखते अभिशाप बन जाती है ....स्वयं अपने लिए.....और समाज के लिए भी.
आपने देखा होगा, जिन्हें हम शरारती बच्चे कहकर दूर भगाते हैं वे बहुत ऊर्जावान होते हैं ....अपेक्षाकृत उन बच्चों के जो बिल्कुल सीधे सादे होते हैं. जो बच्चे चंचल होते हैं उनकी जिज्ञासाएं शांत होते ही वे स्वयं भी शांत होने लगते हैं .....पर यदि उनकी जिज्ञासा शांत न हो पाए तो ? तो यह ऊर्जा किसी भी दिशा में जा सकती है. हमें बच्चे की चंचलता को कोसने की अपेक्षा उसकी ऊर्जा को एक सही दिशा देने का प्रयास करना चाहिए. चीन और जापान अपने देश की प्रतिभाओं को पहचानने और उनको सही दिशा देने में चूक नहीं करते. क्या हम उनसे कुछ सीख लेंगे ?