सिंहावलोकन वाले राहुल सिंह जी के गवेषणात्मक आलेख - "साहित्यगम्य इतिहास" से प्रेरित हो इतिहास का विद्यार्थी न होते हुए भी इतिहास की सार्थकता के विषय पर कुछ मनन करने के लिए बाध्य हुआ हूँ.
आलेख पर टिप्पणी करते हुए जी.के. अवधिया जी ने ऐतिहासिक घटनाओं के संकलन और क्रमिक विकास के तारतम्य में लुप्त अंशों की पूर्ति पर मनगढ़ंत लेखन के स्थान पर उसे छोड़ देने की ओर संकेत किया है ( ....अजा भक्षणम् की ईमानदार टीप की तरह ).
राहुल जी ने इतिहास के तीन स्वरूपों पर चर्चा की है - शब्दगम्य, वस्तुगम्य और बोधगम्य. अपने आलेख के प्रारंभ में ही वे कहते हैं - ".....जन केन्द्रित और समग्र मानव इतिहास के लिए विभिन्न सामाजिक विज्ञानों का सहयोग और सहकार आवश्यक है......"
मैं इसमें केवल एक बात और जोड़ना चाहता हूँ, विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के सहयोग और सहकार के साथ-साथ रसायन विज्ञान का सहयोग भी कहीं-कहीं प्रामाणिक इतिहास लेखन के लिए आवश्यक है.
शब्द गम्य, वस्तुगम्य और बोधगम्य इतिहास का युक्तियुक्त सामंजस्य ही इतिहास को उसके लक्ष्य तक पहुंचा सकता है. इतिहास लेखन में शुद्धबुद्धि के साथ तटस्थतापूर्वक सत्यावलोकन कर लेखन किया जाना अपेक्षित है . मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना के अनुसार बोधगम्यता के कई स्तर होने से बोधन और विवेचना का कार्य पाठक का उत्तरदायित्व है.
ऐतिहासिक साहित्य में ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर साहित्य रचा जाता है. तथ्य तो ऐतिहासिक रहता है किन्तु उसका प्रस्तुतीकरण साहित्यिक. इस प्रस्तुतीकरण में कल्पना का होना स्वाभाविक है. किन्तु यह कल्पना ऐसी होनी चाहिए जिससे इतिहास के मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन न हो सके. महाभारत और रामायण ऐसी ही रचनाएँ हैं. आधुनिक युग में यशपाल, आचार्य चतुरसेन, धर्मपाल और पुरुषोत्तम नारायण ओक से लेकर
लज्जा की लेखिका तसलीमा नसरीन जैसे लोग भी ऐतिहासिक साहित्य लेखकों/लेखिकाओं में शामिल हैं.
इतिहास में मनगढ़ंत लेखन की विवशता विचारणीय है. यह विवशता भी हो सकती है और एक शरारत भी. यदि यह सात्विक विवशता है तो समाविष्ट प्रक्षिप्तांश बोध में सहयोगी सिद्ध होंगे. किन्तु यदि यह शरारत है तो ऐसे प्रक्षिप्तांश भ्रमकारक ही होंगे .
निर्विवादरूप से इतिहास का एक स्रोत प्रशस्तिलेख भी है किन्तु प्रशस्तिलेखों में से इतिहास खोजना पड़ेगा, जोकि आसान नहीं है. इतिहास केवल घटना और तथ्य ही नहीं उसका युक्तियुक्त संयोजन भी है अन्यथा इतिहास का औचित्य ही समाप्त हो जाता है. वह फिर साहित्य भर रह जाएगा या फिर चाटुकारों का स्तुतिगान.
आयुर्वेद के दार्शनिक विचारों में इतिहास को भी "ऐतिह्य प्रमाण" के रूप में स्वीकार किया गया है. किन्तु प्रक्षिप्तांशों या "मनगढ़ंत लेखन" के कारण प्रमाण की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है.
इतिहास लेखन वस्तुतः इमानदारी से भरा एक श्रमसाध्य कार्य ही नहीं अपितु सामाजिक-वैश्विक उत्तरदायित्व भी है. हमारे देश में इतिहास के साथ बहुत छेड़छाड़ हुयी है......ऐसा विचार कई लोगों का है. सच्चा इतिहास जहाँ हमें प्रेरणा देता है वहीं मिथ्या इतिहास हमें हमारी जड़ों से विलगाने का कार्य करता है. इतिहास के साथ एक दुर्भाग्य यह भी जुड़ा हुआ है कि वह प्रायः विजितों के द्वारा लिखवाया जाता है. ऐसे में घटनाओं की प्रामाणिकता इतिहास की सार्थकता पर प्रश्न खड़े करती है.
राहुल जी ने अमरीका के प्रसिद्ध विधिवेत्ता ऑलिवर वेन्डल होम्स के शब्दों का उल्लेख किया है ...''इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए क्योंकि इतिहास कारणों और पूर्ववृत्त के ऐसे सूत्रों का चयन है, जिनमें हमारी रूचि है और रूचियाँ पचास वर्षों में बदल जाती हैं।''
मैं होम्स के विचारों से लेश भी सहमत नहीं हूँ, क्या हमें हमारी वर्त्तमान रुचियों के अनुसार महाभारत का पुनर्लेखन करना चाहिए ? तब इससे तो इतिहास का मूल स्वरूप ही समाप्त हो जाएगा. पुनर्लेखन के स्थान पर पुनर्बोधन की आवश्यकता को तो स्वीकारा जा सकता है....वह भी इस शर्त के साथ कि पुनर्बोधन वर्त्तमान रुचियों के अनुरूप नहीं बल्कि वर्त्तमान रुचियों की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में हो. महाभारत जैसा ऐतिहासिक साहित्य भारतीय समाज के लिए एक आदर्श मानक है जो समसामयिक भी था और सार्वकालिक भी. और हम मानते हैं कि किसी आदर्श के पुनर्लेखन की आवश्यकता नहीं होती.
राहुल जी के शब्दों में - "अंगरेज इतिहासकार ईएच कार अपनी प्रसिद्ध कृति ''इतिहास क्या है?'' में दिखाते हैं- ''ऐतिहासिक तथ्य मात्र वे हैं, जो इतिहासकारों द्वारा जांच के लिए छांटी गयी हैं'' वे स्पष्ट करते हैं कि लाखों लोगों के बावजूद सीजर का रूबिकन पुल पार करना महत्वपूर्ण हुआ (और मुहावरा बन गया) वे आगे कहते हैं- ''सभी ऐतिहासिक तथ्य इतिहासकारों के समसामयिक मानकों से प्रभावित हुई अभिव्यक्ति के परिणामस्वरूप हम तक आते हैं।''
सत्य है, सम्पूर्ण घटनाओं को इतिहास लेखन का विषय नहीं बनाया जा सकता. घटनाओं के चयनित अंश ही इतिहास के विषय बन पाते हैं. अब यह चयनकर्ता पर निर्भर करता है कि वह किस घटना को महत्वपूर्ण मानता है और किसे नहीं. यहाँ इतिहासकार की रुचियाँ, अवलोकन, बोधन, समसामयिक मानक, पूर्वाग्रह, स्वार्थ, दबाव, ...आदि कई घटक हैं जो इतिहास लेखन को प्रभावित करते हैं.....और अंततः इन सबसे प्रभावित होती है इतिहास की प्रामाणिकता.
इतिहास के व्यवस्थित लेखन का प्रारम्भ भले ही अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ हो पर भारत में भारतीयों की आवश्यकता का इतिहास तो बहुत पहले लिखा जा चुका था. प्राच्य मनीषियों की दृष्टि में घटना से अधिक महत्त्व घटना के कारणों और उसके पीछे मनुष्य की वृत्तियाँ रही हैं. इसीलिये माया की नश्वरता को जानने वाले श्रीमद्भग्वदगीताकार ने वृत्तियों के संकलन, उनके सूक्ष्म अवलोकन और विश्लेषण पर अधिक ध्यान दिया. उन्होने इतिहास को केवल तथ्यात्मक संकलन ही नहीं अपितु प्रशस्त जीवन के एक मार्ग के रूप में प्रतिष्ठित किया. यही कारण है कि फ्रिट्ज़ऑफ़ कापरा जैसे लोगों को यह कहना पड़ा कि भारतीय अपनी धार्मिक-आध्यात्मिक ऊर्जा वेदपाठ से नहीं अपितु रामायण, महाभारत और गीता से लेते हैं. मुझे लगता है कि इतिहास की सार्थकता यहीं से प्रारम्भ होती है.
कई चर्चाएं एक साथ हैं, बस एक छोटी सी बात... इतिहास का पुनर्लेखन हो या न हो, इस पर फिलहाल मुझे अपनी ओर से कुछ नहीं कहना, लेकिन इस पर क्या कहें- पुनर्लेखन नहीं होना चाहिए, लेकिन अंगरेजों ने बदमाशी से हमारा इतिहास लिखा इसलिए पुनर्लेखन होना चाहिए. फिर जैसा आप स्वयं सहमत दिखते हैं कि बोध तो पाठक के स्तर पर होता है फिर इतिहासकार पुनर्लेखन न करे और पुनर्बोधन तो पाठक से होगा, फिर टीकाओं का क्या महत्व है... खैर यह ऐसी व्यापक चर्चा है, जो संक्षेप में कह पाना मेरे लिए मुश्किल है, लेकिन मेरी पोस्ट की कुछ बातें-उद्धरणों को आपने विमर्श-योग्य माना, आभार.
जवाब देंहटाएंराहुल जी ! आपने जो विषय उठाये हैं उन पर कुछ और चिंतन के बाद कुछ हल निकल सकता है. इतिहास का पुनर्लेखन एक संवेदनशील विषय है...और इस पर चर्चा की बहुत गुंजाइश है. होम ने पुनर्लेखन का जो कारण बताया है वह मेरी समझ में नहीं आया इसलिए विरोध किया. पुनर्लेखन के अन्य कारण समझ में आते हैं यथा - उपलब्ध इतिहास मिथ्या है, विरोधाभासी तथ्य हैं, पक्षपात पूर्ण है, अन्य लेखों /प्रमाणों से तालमेल नहीं है, कुछ तत्कालीन नवीन सामग्री/ प्रमाण और मिल गए हैं.......aadi.
जवाब देंहटाएं