आज यह सब एक स्वप्न जैसा लगता है. समय बदल गया है ...और समय के साथ-साथ परम्पराएं और मान्यताएं भी. बचपन में पर्वों पर गंगा स्नान की परम्परा का साक्षी रहा हूँ. तब कोसों दूर से धूल भरी पगडंडियों से होते हुए पैदल चलकर आते गाँव के लोगों का उत्साह देखते ही बनता था. गंगा स्नान के लिए आने वाले यात्रियों की भीड़ में स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध सभी होते थे. स्त्रियों के लिए अलग घाट होता था. किनारे, रेती पर पंडों की चटाइयां बिछी रहतीं. वे लोगों को घाट की गहराई और घडियालों के बारे में चिल्ला-चिल्ला कर सचेत करते रहते थे. स्नान करने वाले लोग अपने कपड़े-लत्ते और सारा सामान पंडों की चटाई पर रखकर निश्चिन्त हो स्नान करते. बाद में मंत्रोच्चारण के साथ पंडा जी सभी के माथे पर चन्दन का लेप करते. तब बदले में वे किसी से कुछ माँगते नहीं थे, लोग श्रद्धावश पंडों के चरण स्पर्श कर दक्षिणा देते.... ताम्बे का एक नए का सिक्का या तीन पैसे या बहुत हुआ तो दस नए पैसे का सिक्का. तब छः नए पैसे का एक आना हुआ करता था. इकन्नी-दुअन्नी ......प्रचलन में थीं. द्विज लोग ब्रह्मगाँठ वाले जनेऊ साल भर के लिए पंडों से बड़ी श्रद्धा के साथ खरीदा करते.
कुछ विशेष पर्वों पर मेलों का आयोजन भी होता था. मुझे स्मरण है गर्मियों में किसी एक पर्व पर गंगा के किनारे भूतों-प्रेतों का मेला भी लगता था. मजेदार दृश्य हुआ करते थे. दो-चार ओझा जैसे लोग, गोल घेरे के बीच में जलती धूनी, धूनी में काँटों वाली लोहे की गर्म होती जंजीर, लोगों का हुजूम, गोल घेरे में एक ओर भूत-प्रेत पीड़ितों का पंक्तिबद्ध समूह. सब कुछ बड़ा रहस्यमय सा लगता...जैसे किसी और दुनिया में आ गए हों. लोगों की उत्सुक दृष्टियाँ पीड़ितों और ओझाओं के चेहरों पर जमीं रहतीं.
झाड-फूक का काम कई बैचेज में होता था. पीड़ितों को एक पंक्ति में बैठने को कहा जाता. साथ के आये लोग ओझा को पीड़ित की हिस्ट्री बताते. कुछ लोगों को माथे में तिलक लगा कर और भभूत देकर कुछ निर्देशों के साथ तुरंत विदा कर दिया जाता. इन निर्देशों में किसी अच्छे चिकित्सक से परामर्श करने का परामर्श भी शामिल रहता. शेष लोग भूमि पर हाथ जोड़े बैठे रहते. अगले चरण में सारे ओझा समवेत स्वर में गायन प्रारंभ करते और उनके गायन के साथ ही प्रारम्भ होता पीड़ितों का झूमना. कोई झूमता, कोई सर हिलाता, कोई हंसता, कोई अट्टहास करता , कोई रोने लगता, कोई चीखने लगता, तो कोई ओझा लोगों को ही चुनौती देने लगता. स्त्रियों के बाल बिखर जाते ...वस्त्र अस्त-व्यस्त होने लगते, तब ओझा उन्हें शालीन रहने की, डांटते हुए समझाइश देता.
माना जाता था कि वे सभी भूतों या प्रेतों से आवेशित हैं. यह निर्णय ओझा ही करते कि कौन व्यक्ति भूतावेशित है और कौन प्रेतावेशित. प्रेतावेश सबसे गंभीर माना जाता. कुछ भूत प्रेत कुछ शर्तों की पूर्ति के साथ ज़ल्दी ही मान जाते और आवेशित व्यक्ति के शरीर को हमेशा के लिए छोड़ देने का प्रोमिस करते. तब ओझा उन्हें गंगामाई की कसम दिलाते और गंगा का जल उन पर छिड़कते.
कुछ बदमाश किस्म के भूत-प्रेत ओझा से उलझ जाते तब ओझा भी उनसे संग्राम के लिए तैयार हो जाते.
संग्राम के प्रथम चरण में वे फिर कोई सस्वर गीत गाना प्रारंभ करते. छोटे बदमाश प्रेत उतने से ही तड़पने लगते, मध्यम बदमाश प्रेतों पर गंगा जल छिड़क कर उन्हें भस्म कर देने की धमकी दी जाती, फिर भी नियंत्रण में न आने पर उन पर जल छिड़का जाता. इससे वे चीखते और पीड़ित को मुक्त कर देने का वचन देने लगते. बड़े बदमाश प्रेतों के लिए मिर्च की धूनी दी जाती. सुपर कोटि के बदमाश प्रेतों के लिए ओझा किसी देवी का कोई भयानक गीत गाते और गर्म-गर्म लोहे की काँटों वाली जंजीर से अपनी ही पीठ पर प्रहार करते. प्रहार के साथ ही सुपर बदमाश प्रेत तड़पने लगता ...और अंत में ओझा को विजय प्राप्त हो जाती. एपीसोड के अंत में सबको प्रसाद वितरित किया जाता. उधर जूनियर ओझा अगले बैच की तैयारी शुरू कर देते ....दोपहर बाद तक ओझा लोग अदृश्य आत्माओं से जूझते रहते.
जहाँ यह सब हो रहा होता उसके ठीक आगे... मात्र बीस कदम की दूरी पर हमारे बाबा की कुटिया थी जहाँ वे सन्यासी होने के बाद से रहा करते थे. मैंने अपने बाबा से पूछा, ये सब क्या है ? उन्होंने बताया ...."कुछ नहीं, दुर्बल मानसिकता के लोग अंधविश्वासों से ग्रस्त हैं, ओझा अपने व्यापार में मस्त हैं....लोग जब तक मूर्ख बने रहेंगे .....इन धूर्तों का व्यापार चलता रहेगा."
लोग बाबा का बड़ा सम्मान करते थे. मैंने कहा, लेकिन ये लोग जब आपके पैर छूकर आशीर्वाद लेने आते हैं तो आप इन्हें मना क्यों नहीं करते. वे कहते- " कई बार समझाया कि क्यों पाप कर्म में लगे हो, पर ये मानते नहीं. पैर छूते हैं तो मना तो नहीं किया जा सकता."
तब मैं बहुत छोटा था, शायद आठ या नौ साल का रहा होऊंगा. अब परिस्थितियाँ बदल गयी हैं ...परिवेश बदल गए हैं. भूत-प्रेत आधुनिक हो गए हैं....और दबंग भी. हो सकता है वे किसी के सो जाने के बाद रात में कम्प्युटर में घुस कर नेट पर सर्फिंग भी करते हों. अब गंगा किनारे वाले वे ओझा नहीं रहे. होते तो पता नहीं कैसे निपटते इन आधुनिक हाई टेक भूत-प्रेतों से ? खैर, यह तो परिहास रहा. पर वास्तविकता यह है कि हममें से बहुत लोग ऐसे भी हैं जो शिक्षित या उच्च शिक्षित हो कर भी भूत (अतीत) को पकड़ कर रहते हैं. पहले अशिक्षितों को भूत सताते थे अब पढ़े लिखे लोग भी भूतप्रेमी हो गए हैं. वे वर्त्तमान को स्वीकार नहीं कर पाते. विभिन्न कुंठाओं से ग्रस्त ये लोग भूत को वर्त्तमान बना नहीं सकते इसलिए भूत को पकड़ कर बैठे हुए हैं. किसी कल्पना या अतीत को ही वर्त्तमान माने बैठे हैं. हाल्यूसिनेशन और ड़ेल्यूजन ही उनके जीवन का सत्य हो गया है. वे स्वेछा से, जब चाहें तब समय को पीछे नहीं ले जा सकते कि घटित का प्रत्यक्ष कर सकें. जो वर्त्तमान से पराजित हो कर भी ...हठ में उसके अस्तित्व को स्वीकार भी नहीं करना चाहते .... उनके लिए हाल्यूसिनेशन और ड़ेल्यूजन ही भूत को पकड़े रहने में सहायक हो पाते हैं. भूत भी इसीलिये उनका पीछा नहीं छोड़ता .....जकड़ लिया है उसने . किन्तु अतीत में रहने की जिद से जीवन नहीं जिया जा सकता. इसके लिए अपने वर्त्तमान को स्वीकार करना ही होगा.
मेरी करुण विनती है ऐसे लोगों से कि वे समय को पीछे ले जाने का असंभव कार्य करने का हठ न करें. कल्पना को एक सीमा तक ही स्थान दें वर्त्तमान को या तो अपने पुरुषार्थ से आकार दें या फिर जो भी सामने है उसे ही स्वीकार करें. हमें भूत ने सिर्फ इसलिए जकड़ा हुआ है क्योंकि हमने खुद ही भूत को पकड़ा हुआ है....उस अतीत को पकड़ा हुआ है जिसका आज कोई अस्तित्व ही नहीं है. हमें अतीत के उस गर्त से निकल कर बाहर आना ही होगा.
सर्वे भवन्तु सुखिनः ........ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!!
कुछ विशेष पर्वों पर मेलों का आयोजन भी होता था. मुझे स्मरण है गर्मियों में किसी एक पर्व पर गंगा के किनारे भूतों-प्रेतों का मेला भी लगता था. मजेदार दृश्य हुआ करते थे. दो-चार ओझा जैसे लोग, गोल घेरे के बीच में जलती धूनी, धूनी में काँटों वाली लोहे की गर्म होती जंजीर, लोगों का हुजूम, गोल घेरे में एक ओर भूत-प्रेत पीड़ितों का पंक्तिबद्ध समूह. सब कुछ बड़ा रहस्यमय सा लगता...जैसे किसी और दुनिया में आ गए हों. लोगों की उत्सुक दृष्टियाँ पीड़ितों और ओझाओं के चेहरों पर जमीं रहतीं.
झाड-फूक का काम कई बैचेज में होता था. पीड़ितों को एक पंक्ति में बैठने को कहा जाता. साथ के आये लोग ओझा को पीड़ित की हिस्ट्री बताते. कुछ लोगों को माथे में तिलक लगा कर और भभूत देकर कुछ निर्देशों के साथ तुरंत विदा कर दिया जाता. इन निर्देशों में किसी अच्छे चिकित्सक से परामर्श करने का परामर्श भी शामिल रहता. शेष लोग भूमि पर हाथ जोड़े बैठे रहते. अगले चरण में सारे ओझा समवेत स्वर में गायन प्रारंभ करते और उनके गायन के साथ ही प्रारम्भ होता पीड़ितों का झूमना. कोई झूमता, कोई सर हिलाता, कोई हंसता, कोई अट्टहास करता , कोई रोने लगता, कोई चीखने लगता, तो कोई ओझा लोगों को ही चुनौती देने लगता. स्त्रियों के बाल बिखर जाते ...वस्त्र अस्त-व्यस्त होने लगते, तब ओझा उन्हें शालीन रहने की, डांटते हुए समझाइश देता.
माना जाता था कि वे सभी भूतों या प्रेतों से आवेशित हैं. यह निर्णय ओझा ही करते कि कौन व्यक्ति भूतावेशित है और कौन प्रेतावेशित. प्रेतावेश सबसे गंभीर माना जाता. कुछ भूत प्रेत कुछ शर्तों की पूर्ति के साथ ज़ल्दी ही मान जाते और आवेशित व्यक्ति के शरीर को हमेशा के लिए छोड़ देने का प्रोमिस करते. तब ओझा उन्हें गंगामाई की कसम दिलाते और गंगा का जल उन पर छिड़कते.
कुछ बदमाश किस्म के भूत-प्रेत ओझा से उलझ जाते तब ओझा भी उनसे संग्राम के लिए तैयार हो जाते.
संग्राम के प्रथम चरण में वे फिर कोई सस्वर गीत गाना प्रारंभ करते. छोटे बदमाश प्रेत उतने से ही तड़पने लगते, मध्यम बदमाश प्रेतों पर गंगा जल छिड़क कर उन्हें भस्म कर देने की धमकी दी जाती, फिर भी नियंत्रण में न आने पर उन पर जल छिड़का जाता. इससे वे चीखते और पीड़ित को मुक्त कर देने का वचन देने लगते. बड़े बदमाश प्रेतों के लिए मिर्च की धूनी दी जाती. सुपर कोटि के बदमाश प्रेतों के लिए ओझा किसी देवी का कोई भयानक गीत गाते और गर्म-गर्म लोहे की काँटों वाली जंजीर से अपनी ही पीठ पर प्रहार करते. प्रहार के साथ ही सुपर बदमाश प्रेत तड़पने लगता ...और अंत में ओझा को विजय प्राप्त हो जाती. एपीसोड के अंत में सबको प्रसाद वितरित किया जाता. उधर जूनियर ओझा अगले बैच की तैयारी शुरू कर देते ....दोपहर बाद तक ओझा लोग अदृश्य आत्माओं से जूझते रहते.
जहाँ यह सब हो रहा होता उसके ठीक आगे... मात्र बीस कदम की दूरी पर हमारे बाबा की कुटिया थी जहाँ वे सन्यासी होने के बाद से रहा करते थे. मैंने अपने बाबा से पूछा, ये सब क्या है ? उन्होंने बताया ...."कुछ नहीं, दुर्बल मानसिकता के लोग अंधविश्वासों से ग्रस्त हैं, ओझा अपने व्यापार में मस्त हैं....लोग जब तक मूर्ख बने रहेंगे .....इन धूर्तों का व्यापार चलता रहेगा."
लोग बाबा का बड़ा सम्मान करते थे. मैंने कहा, लेकिन ये लोग जब आपके पैर छूकर आशीर्वाद लेने आते हैं तो आप इन्हें मना क्यों नहीं करते. वे कहते- " कई बार समझाया कि क्यों पाप कर्म में लगे हो, पर ये मानते नहीं. पैर छूते हैं तो मना तो नहीं किया जा सकता."
तब मैं बहुत छोटा था, शायद आठ या नौ साल का रहा होऊंगा. अब परिस्थितियाँ बदल गयी हैं ...परिवेश बदल गए हैं. भूत-प्रेत आधुनिक हो गए हैं....और दबंग भी. हो सकता है वे किसी के सो जाने के बाद रात में कम्प्युटर में घुस कर नेट पर सर्फिंग भी करते हों. अब गंगा किनारे वाले वे ओझा नहीं रहे. होते तो पता नहीं कैसे निपटते इन आधुनिक हाई टेक भूत-प्रेतों से ? खैर, यह तो परिहास रहा. पर वास्तविकता यह है कि हममें से बहुत लोग ऐसे भी हैं जो शिक्षित या उच्च शिक्षित हो कर भी भूत (अतीत) को पकड़ कर रहते हैं. पहले अशिक्षितों को भूत सताते थे अब पढ़े लिखे लोग भी भूतप्रेमी हो गए हैं. वे वर्त्तमान को स्वीकार नहीं कर पाते. विभिन्न कुंठाओं से ग्रस्त ये लोग भूत को वर्त्तमान बना नहीं सकते इसलिए भूत को पकड़ कर बैठे हुए हैं. किसी कल्पना या अतीत को ही वर्त्तमान माने बैठे हैं. हाल्यूसिनेशन और ड़ेल्यूजन ही उनके जीवन का सत्य हो गया है. वे स्वेछा से, जब चाहें तब समय को पीछे नहीं ले जा सकते कि घटित का प्रत्यक्ष कर सकें. जो वर्त्तमान से पराजित हो कर भी ...हठ में उसके अस्तित्व को स्वीकार भी नहीं करना चाहते .... उनके लिए हाल्यूसिनेशन और ड़ेल्यूजन ही भूत को पकड़े रहने में सहायक हो पाते हैं. भूत भी इसीलिये उनका पीछा नहीं छोड़ता .....जकड़ लिया है उसने . किन्तु अतीत में रहने की जिद से जीवन नहीं जिया जा सकता. इसके लिए अपने वर्त्तमान को स्वीकार करना ही होगा.
मेरी करुण विनती है ऐसे लोगों से कि वे समय को पीछे ले जाने का असंभव कार्य करने का हठ न करें. कल्पना को एक सीमा तक ही स्थान दें वर्त्तमान को या तो अपने पुरुषार्थ से आकार दें या फिर जो भी सामने है उसे ही स्वीकार करें. हमें भूत ने सिर्फ इसलिए जकड़ा हुआ है क्योंकि हमने खुद ही भूत को पकड़ा हुआ है....उस अतीत को पकड़ा हुआ है जिसका आज कोई अस्तित्व ही नहीं है. हमें अतीत के उस गर्त से निकल कर बाहर आना ही होगा.
सर्वे भवन्तु सुखिनः ........ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!!
बहुत सुन्दर आलेख डाक्टर साहब। सच है कि हम इस भूत को छोड़ नहीं पा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसार्थक लेख डोकटर साहब.. भूत की घटनाओं से भूत का वर्णन क्रेट हुए भूत से बचने का नुस्खा सुझाया है आपने!! यह सारी घटनाएं अपने आँख से देखी हुयी हैं.. तब भी यकीन होता था, आज भी अविश्वास नहीं होता..लेकिन भूत से चिपके रहना भी उचित नहीं!!
जवाब देंहटाएंसार्थक लेख!!
सही कहा कि हर काल का कुछ 'सत्य' होता है जिसे ज्ञानी 'असत्य' मानते थे, केवल 'माया', यानि कुछ झूठी आम मान्यताएं जिनके द्वारा आम आदमी तीन प्रकार के कर्म कर अपनी दिनचर्या व्यतीत करता है - किसी भी काल विशेष में...
जवाब देंहटाएंहमारे एक नवीं से ग्यारहवीं कक्षा तक अंग्रेजी के टीचर हुआ करते थे...
उन्होंने हमें एक हिंदी का वाक्य अंग्रेजी में रूपांतर हेतु दिया - "कल दो प्रकार के होते हैं / एक जो गुजर गया / और दूसरा जो आयेगा"...
और यदि मानव जीवन को सीधे सीधे देखा जाए, 'वर्तमान' में जो हम कार्य करते हैं - सोचने का अथवा सोच को किसी अच्छे-बुरे, गाली देने जैसे और अन्य हाथ-पैर के उपयोग से विभिन्न कर्म करने के द्वारा - वो ही हमारे भविष्य की भौतिक और आध्यात्मिक स्थिति को निर्धारित करते है... इस प्रकार अक्षर 'क' से 'ज्ञं' तक / खुशबूदार अथवा बदबूदार फूलों से बनी वर्णमाला/ माला समान प्रत्येक व्यक्ति को देखा और समझा जा सकता है एक जीवन में... किन्तु योगियों ने इस कार्य को कठिन बताया क्यूंकि हमारा एक जीवन के अतिरिक्त हमें भूत में ८४ लाख अथवा उस से अधिक रूपों में किये गए कर्मों का हिसाब निकालना नहीं आता... उनके अनुसार यह संभव है केवल शून्य के साथ जुड़ने के प्रयास द्वारा अंततोगत्वा सफलता पा...
भूत पकड़ने की बात पर गीता का एक श्लोक याद आ गया, शायद विषय से असम्बद्ध हो:
जवाब देंहटाएंयजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा:
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना:
कैसे कैसे भूत !
जवाब देंहटाएंपीट्स बर्ग से भाई अनुराग शर्मा जी की टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंभूत पकड़ने की बात पर गीता का एक श्लोक याद आ गया, शायद विषय से असम्बद्ध हो:
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा:
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना:
सत्य वचन अनुराग जी ! श्लोक विषय से सम्बद्ध है. तामस प्रकृति ही ऐसे आवेशों को आमंत्रित करती है. डेल्यूजन और हाल्यूसिलेशन का कारण तमस है. सात्विक वृत्ति के लोग ऐसे आवेश से मुक्त रहते हैं.
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