शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

हिमालय के पार ...लाल ड्रेगन का भौतिक आध्यात्मवाद

      श्चिमी देशों में, सांस्कृतिक-आध्यात्मिक समृद्धता से संपन्न पूर्वी देशों की सूची में भारत के साथ-साथ चीन का नाम भी आदर के साथ लिया जाता है. मेरे मन में एक बात सदा बनी रही कि भारत कभी विस्तारवादी नहीं रहा ...कदाचित यह उसका आध्यात्मिक प्रभाव रहा हो पर इसके विपरीत चीन का इतिहास विस्तारवाद के लालच में आकंठ डूबा प्रतीत होता है. अपनी सीमाओं के विस्तार के लिए रक्त बहाने को सदा तैयार रहने वाले चीन की आध्यात्मिक संपदा मेरे  लिए उत्सुकता का कारण रही है. अहिंसा परमोधर्मः ......सर्वे भवन्तु सुखिनः .......और विश्वबंधुत्व की कामना करने वाले भारत का विस्तारवादी न होना समझ में आता है .....यह समझ में आता है कि भारत के जन-जीवन पर उसकी आध्यात्मिक विरासत के प्रभाव का प्रमाण भारत के इतिहास में यत्र-तत्र प्रकीर्णित है. किन्तु चीन का आध्यात्म ? 
    भारत के विश्वबंधुत्व के आदर्श के विपरीत चीनी आदर्श अपने समाज तक ही केन्द्रित रहा है. भारत ने प्राणिमात्र के कल्याण की सदा कामना की किन्तु चीन ने कल्याण पाने वालों की संख्या सीमित कर दी,  उनका कल्याण भाव तो मंगोलिया से लेकर प्रशांत महासागर में फैले दक्षिण पूर्वी देशों के पूरे चीनी समुदाय के लिए भी कभी नहीं रहा.
        रहस्यमय चीन के ज्ञात तथ्यों पर विचार करने से चीन के आध्यात्मिक स्वरूप पर प्रकाश की कुछ किरणें पड़ती हैं. छाऊ काल (५००-२२१ ईसा पूर्व ) में चीनियों का दार्शनिक ज्ञान अपने उत्कर्ष पर रहा है . यह उनके जीवन, समाज, और व्यावहारिक संबंधों के विषय पर केन्द्रित रहा है जिसमें आध्यात्मिक पक्ष को उतना महत्त्व नहीं दिया गया. उन्होंने संसार को निस्सार न मानते हुए सार युक्त माना और मनुष्य जीवन को निरंतर सुखमय बनाने के प्रयासों पर चिंतन किया. छुआंग त्जु के शब्दों में -"चीन का चिन्तक शांत रहने पर साधु बनता है और अशांत होने पर राजा"  अर्थात साधु होना चिंतन की कुछ शर्तों के होने का परिणाम है.....और इनके उल्लंघन का परिणाम है शासक होना. चीन में शासकों ने प्रायः मर्यादाओं  का उल्लंघन ही किया है. न्यूनाधिक यही स्थिति आज भी है. 
          चीनी समाज कठोर अनुशासन का पक्षधर रहा है. जबकि मानव स्वभाव सहजता का . इसी कारण वहाँ चिंतन की दो धाराओं का विकास हुआ. एक धारा का प्रतिनिधित्व कन्फ्यूशियस ने किया जिसके परिणामस्वरूप चीनियों ने अपनी परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एकाग्रता, शक्ति संचय और युद्ध की कलाओं का विकास किया जबकि दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व ताओवाद के जनक लाओ त्जु ने किया जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति के रहस्यों को जानने और उनके अनुरूप जीवन को जीने का सरलतम रूप अपनाया गया. चीनियों की जटिल जीवन शैली में उनकी लिपि के बाद दूसरा स्थान कदाचित उनका परस्पर विरोधी जीवनदर्शन रहा है. कोई चीनी अपने जीवन का प्रारम्भ कन्फ्यूशियस दर्शन से करता है और समापन ताओ दर्शन से. हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार भारत में मनुष्य जीवन को चार आश्रमों में बाटा गया है उसी तरह चीन में दो आश्रमों की व्यवस्था की गयी है- कन्फ्यूशियस आश्रम और ताओ आश्रम. दोनों आश्रमों की स्पष्ट विभाजन रेखा वहाँ के सामाजिक जीवन में स्पष्ट परिलक्षित होती है. जहाँ कन्फ्यूशियस आश्रम भोगवाद ,   कठोर सामाजिक अनुशासन,  पारस्परिक प्रतिद्वंदता, कुंग-फू की रोमांचक हलचलों और दूसरों को अपने वश में करने की राजसिक भावना से भरा हुआ है वहीं ताओ आश्रम प्रकृति के रहस्योद्घाटन, प्रकृति के अनुरूप सहज प्रवाहमयी जीवनशैली और वृद्धावस्था की सहज शांत स्थिति का प्रतीक है. कुंग-फू उनकी भौतिक आवश्यकता है तो ताओवाद उनकी वार्धक्योपजन्य विवशता. इसे ठेठ भाषा में कहें तो चीनी दर्शन "जब तक शरीर में दम है तब तक हमले करो ...और जब बुढापे में अशक्त हो जाओ तो माला जपो" के व्यवहारवाद पर आश्रित है. 
     ईसा प्रथम शताब्दी में चीनियों ने बौद्ध दर्शन को स्वीकार करना प्रारम्भ किया. ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में छू ह्सी ने कन्फ्यूशियसवाद, ताओवाद और बौद्धदर्शन को एक में समेटते हुए नव कन्फ्यूशियसिज्म का प्रवर्तन किया.  
       यहाँ यह ध्यातव्य है कि जहाँ भारत के आर्ष ग्रन्थ स्तुति, उपदेश, गुरु-शिष्य संवाद, जिज्ञासा और समाधान की सहज लोकतांत्रिक शैली में लिखे गए हैं वहीं चीनी दर्शन ग्रन्थ निर्देश शैली में लिखे गए हैं. चीनियों की तमो-राजसिक वृत्ति का स्पष्ट प्रभाव उनकी लेखन शैली में भी दृष्टिगोचर होता है. यही नहीं, उनकी गोपनीयता बनाए रखने की वृत्ति और जटिल जीवन शैली की स्पष्ट झलक उनकी लिपि में भी दृष्टिगोचर होती है. चीनी भाषाओं की लिपियाँ विश्व की सर्वाधिक जटिल लिपियाँ हैं. वस्तुतः लिपि के नाम पर अक्षरों और मात्राओं के स्थान पर केवल प्रतीक भर होते हैं . विश्व की अन्य भाषाएँ जहाँ व्याकरण की मर्यादाओं का पालन करती हैं वहीं चीनी लिपियाँ व्याकरण से पूरी तरह मुक्त हैं. उनके लिखे संकेत चिन्हों का अर्थ मात्र स्वर के उतार-चढ़ाव से ही भिन्न हो जाता है इसी कारण चीनी भाषा का किसी दूसरी भाषा में सही-सही अनुवाद दुर्लभ ही नहीं प्रत्युत असंभव है. चीनी अपनी गोपनीयता बनाए रखने में यहाँ भी सफल रहे हैं. मंडारिन, जोकि चीन की अधिकृत भाषा है, अपनी ध्वनियों के प्रभाव से श्रोता पर बौद्धिक नहीं अपितु एक सम्मोहक प्रभाव छोड़ती है. सम्मोहन में तर्क नहीं बल्कि वशीकरण का प्रभाव होता है और यही चीनियों की आवश्यकता है जो कि उनकी तानाशाही मनोवृत्ति की द्योतक है. 
     सम्मोहन और रहस्यमयता की तीव्र अभिलाषा चीनियों के जीवन में कुछ ऐसे घुल मिल गयी है जैसे जल में चीनी. उच्चारण से लेकर गायन और वादन तक में चीनियों का यह रहस्यपूर्ण सम्मोहन व्याप्त है. उनके चित्रों के रंग रहस्य का जादू बिखेरते प्रतीत होते हैं.  यह रहस्यपूर्ण सम्मोहन ही चीनी शासकों की निरंकुश सत्ता का   गोपनीय सूत्र रहा है. 
    अपनी परस्पर विरोधी दार्शनिक विचारधाराओं के होते हुए भी चीन में कहीं द्वंद्व नहीं है ....यह अपने आप में एक रहस्य हो सकता है. हो सकता है कि इसका कारण उनकी द्विआश्रम व्यवस्था में छिपा हो. युवावस्था में भोग और जीवन के उत्तरार्ध में मोक्ष की साधना. यही है चीन का भौतिक आध्यात्मवाद जिसका अनुसरण करते हुए वह पूरे विश्व के बाज़ार को निगलता जा रहा है. कन्फ्यूशियसनिज्म इस बात के लिए प्रशंसनीय है कि वह अपने अनुयायियों में राष्ट्रवाद का संचार करने में सफल रहा है. जबकि भारतीय दर्शन अपनी उत्कृष्टता एवं वैज्ञानिकता के बाद भी ऐसा नहीं कर सके.         
     

6 टिप्‍पणियां:

  1. ik puraaani film thi...Haqiqat...usme ik bahut bdhiyaa smwaad tha........Hindi chiniii bhaai bhaai......ye bolte bolte chini army inidan area me bdhti he............aapki chrchaa pr ke wo film yaad aa gyi baba ...........
    hmmmmmm...bhut hii saarthak chrchaa

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  2. चीन की विसंगतियां अधिकतर चर्चा में होती है, लेकिन उल्‍लेखनीय है, उस (चीन का विसंगतियों) से आगे निकल कर सार्थक परिणाम पर पहुंचना.

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  3. कमाल का नज़रिया है डॉक्टर साहब.. सीखता हूँ कुछ न कुछ!!

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  5. अच्छा विष्लेषण है। किसी भी तानाशाही में विविधता का दमन करके शासक के सिद्धांत के प्रति बुतपरस्ती थोपी जाती है। चीन के द्वन्द्व और विसंगतियाँ अदृश्य बन जाती हैं। ताओ, कंफ़्यूशियस और बुद्ध, ये सब चीन के लिये निर्यात सामग्री भर हैं, जीवनशैली नहीं। वहाँ एक ही जीवन है जो दमन और भोग पर आधारित है। हिंसक दमन चाहे तिब्बती बौद्धों का हो, चाहे उइगर मुसलमानों का, चर्च व फालिन गॉंग के हान सदस्यों का और चाहे थोडी सी समानता और जनतंत्र मांग रहे छात्रों व अध्यापकों का, बारूद के सामने (और समाचारों के अभाव में) सब शांत, समरस और विकसित ही दिखता है।

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  6. शायद मैंडरिन भाषा के जिक्र के कारण ही यह आलेख सम्मोहित कर गया। विवेचना शानदार है डाक्टर साहब।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.