बुधवार, 23 नवंबर 2011

आपके लिए चायपानी की व्यवस्था करती हूँ मुनिवर!

    
भी जानते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सृष्टि संचालन का विभागीय उत्तरदायित्व विष्णु जी का है. व्यवस्था-अव्यवस्था के बीच विष्णु जी अपना उत्तरदायित्व पूरा करने में व्यस्त रहते हैं. उनका तंत्र जटिल है किन्तु उन्हें तुरंत पता चल जाता है कि गड़बड़ी कहाँ हो रही है. उनके पास ब्रह्मा जी द्वारा डोनेटेड ब्रह्मांड का सर्वशक्तिशाली कम्प्यूटर है. आकाशगंगाओं से लेकर आवारा घूमते धूमकेतुओं, उल्कापिंडों के नियंत्रण, कृष्णविवर के राक्षसत्व, कृष्णऊर्जा के नियमन.....आदि पर सफलतापूर्वक नियंत्रण कर पाने में सक्षम विष्णु जी आज कल कुछ अधिक परेशान से हैं.     
    एक्चुअली, व्यवस्था कुछ ऐसी है कि संचालन व्यवस्था में गंभीररूप से गड़बड़ियाँ होने पर विष्णु को स्वयं अवतार लेकर ब्रह्माण्ड के एक नाचीज से पिंड -"धरती" पर आने को विवश होना पड़ता है. यही नियम है......और इसका वे न जाने कबसे पालन करते चले आ रहे हैं. कभी कच्छप रूप में तो कभी सुअर के रूप में.....अपने कर्त्तव्य पालन में कभी कोताही नहीं की उन्होंने . घृणित अवतार लेने में भी पीछे नहीं हटे . कभी-कभी  कोफ़्त तो होती थी पर ब्रह्मा के प्रति सम्मान भाव होने के कारण विष्णु जी कुछ कह नहीं पाते, बस मन मसोसकर रह जाते . आज विष्णु जी जैसे ही भोजनावकाश में घर आये तो लक्ष्मी जी ने ताड़ लिया ...अवश्य आज कोई गंभीर बात है. मन नहीं माना तो पूछ ही दिया - "क्या बात है, आजकल बहुत चिंतित रहते हैं प्रभु ?" 
    विष्णु जी गंभीर प्रकृति के देवता हैं. अपने दुःख किसी से नहीं बताते ...लक्ष्मी जी को भी नहीं. लक्ष्मी जी को यह अहंकार है कि ब्रह्माण्ड के संचालन के लिए विष्णु जी को उनकी जितनी आवश्यकता है उतनी और किसी की नहीं. पर आज बड़ी विनम्रता से लक्ष्मी जी ने बारम्बार प्रभु से पूछा तो बताना ही पडा. यूँ तो कलयुग के कारण विष्णु जी लक्ष्मी से कुछ दबते थे पर आज बहुत दिनों का गुबार बाहर आ ही गया, बोले -  "कुछ नहीं देवी! बस, मन कुछ खिन्न सा है. सोचता हूँ, ब्रह्माण्ड की निर्माणकर्ता और संचालनकर्ता एजेंसी एक ही होनी चाहिये थी. जब संभाल सकने की कुव्वत नहीं थी तो सृष्टिकर्ता बने ही क्यों ? और बने ही थे तो अपना किया खुद ही समेटने की दम भी होनी चाहिए थी. मैं तो परेशान हो गया हूँ इन बुढऊ की मनमानी से. बुज़ुर्ग हैं.... कुछ कह भी नहीं सकता, और कोई होता तो पूछता अवश्य - क्यों बनाया इस मनुष्य नामक प्राणी को  ? इतनी सृष्टि की ...जी नहीं भरा अभी तक....इसे भी बना दिया...मेरी जान की आफत ....इतनी बार अवतार लेकर गया पर सुधरने का नाम ही नहीं लेता. ऊपर से इनकी जनसंख्या और बढ़ती जा रही है. कैसे संचालन करूँ, कुछ समझ में नहीं आता. सबसे बुरी स्थिति भारत की है. कितनी बार गया हूँ वहाँ....पर स्थिति जस की तस. वहाँ के लोग बातें दर्शन की करते हैं ...आध्यात्म तो जैसे इनकी जेब में है ..पर मल विसर्जन तक की तमीज नहीं सीख पाए. आदर्शों के तड़के के बिना कोई बात नहीं करते पर बस चले तो जोंक बनकर एक दूसरे का रक्त पी जाएँ. मैं कब तक धर्म संस्थापनार्थाय जाता रहूँगा वहाँ ? अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया ...कहीं भी तो नहीं गया मैं कभी. भारत कितनी बार गया हूँ ....बोर हो गया. एक बार तो यूरोप जाने का अवसर मिल पाता....धर्मसंस्थापनार्थाय ......"
लक्ष्मी जी ने किंचित मुस्कराते हए कहा - " प्रभु जिसे अधिक चाहते हैं उसी के पास तो बारबार जाना चाहते हैं......." 
    विष्णु जी को इस अवसर पर लक्ष्मी जी का यह परिहास अच्छा नहीं लगा, बोले - "आप तो पूरी धरती पर विचरण करती रहती हैं न! इसीलिये परिहास सूझ रहा है. इन हठीले और भ्रष्ट भारतीयों से पाला पड़ा होता तो पता चलता. वेद, पुराण, स्मृति, इतने अवतार .....क्या नहीं दिया है मैंने इन्हें......जो किसी को नहीं दिया वह सब दिया है इन्हें. पर नहीं ...सुधरने का नाम तक नहीं लेते....बल्कि ये इतने शातिर हो गए हैं कि भगवान को भी रिश्वत चढ़ाने से बाज़ नहीं आते. ये सत्य के नाम पर झूठ का व्यापार करते हैं. निर्लज्ज इतने कि हर धूर्त भी स्वयं को आर्य घोषित किये बैठा है ......"
     विष्णु जी अभी कुछ और कहते कि तभी नारायण-नारायण करते नारद जी का पदार्पण हो गया. आते ही कनखियों से विष्णु की ओर देखते हुए लक्ष्मी जी को समाचार दिया- "प्रभु के लिए अशुभ हो तो हो पर आपके लिए तो शुभ संवाद है देवी ! ...भारत में लोकपाल बिल बन भी गया तो सत्यनिष्ठ लोकपाल लायेंगे कहाँ से ? ...अभी तो अन्ना को अपनी टीम के लिए ही सत्यनिष्ठ मानुष खोजे नहीं मिल रहे हैं......" 
नारद जी के वचन सुनकर लक्ष्मी जी मुदित हुईं. अपनी विजय को कुछ छिपाते कुछ प्रकट करते सिंहासन से उठ खड़ी हुईं, यह कहते हुए कि " आपके लिए चायपानी की व्यवस्था करती हूँ मुनिवर! अभी जाइयेगा मत, कुछ और भी चर्चा करनी है आपसे". 
विष्णु जी का भोजन गया भाड़ में, समझ गए कि अब कई घंटे देवी को फुरसत नहीं मिलेगी....सो भूखे पेट ही फिर लग गए अपने कम्प्यूटर में. उधर नारद जी ने जैसे मिर्च झोंक दी, बोले- "लगे रहो प्रभु ! लगे रहो ...."   



5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन पढ कर दिल खुश हो गया।

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  2. बहुत खूब! मज़ाक-मज़ाक में बड़ी गहरी बात कह दी आपने।

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  3. डॉक्टर साहब!
    ये कथा भी आपने अच्छी बांची है... सब कह दिया कुछ भी तो नहीं गुप्त रखा.. मन प्रफुल्लित हुआ!!

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  4. बहुत बढ़िया! आपने तीन मुख्य पात्रों को एक लघु हास्य कथा द्वारा दर्शा दिया, अर्थात नारद हैं ब्रह्मा यानि सूर्य की किरणें जो लोक-परलोक विचरण करती हैं 'नारायण, नारायाण' कहती (जैसी तार-वाद्य, सरस्वती वीणा समान, के माध्यम से ध्वनि सूर्य से प्रसारित होती पायीं गयीं हैं)... और विष्णु और लक्ष्मी क्रमशः पृथ्वी के केंद्र में संचित शक्ति और साकार पृथ्वी हैं जो साधे चार अरब वर्षों से ब्रह्माण्ड के अनंत शून्य के केंद्र में अवस्थित है :D

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.