रविवार, 13 नवंबर 2011

......एक अधूरा सफ़र.....

कनु सान्याल ! 
.......नक्सली सिद्धांत के जनक...... 
.........एक लम्बा संघर्ष ......फिर आपसी असहमति ..............पथ पत्थर बन गया ...टकराया तो चोट खुद को लगी .........
 .....और फिर वृद्धावस्था में हताशा की स्थिति में आत्मह्त्या अर्थात समस्या से सिद्धांत और पुनः सिद्धांत से समस्या तक का एक अधूरा सफ़र......
अवसरवादी ताक में रहते हैं.....कब कोई अच्छा सिद्धांत जन्म ले और कब वे उसका अपहरण कर अपने कबीले में शामिल कर लें ....अपने तरीके से ....अपने हित के लिए. वे वैचारिक अपहरण में प्रवीण हैं.......इसीलिये सत्ता सुख के भागी हैं ......
पिछले एक दशक से दक्षिण बस्तर में नक्सली हिंसा का तांडव चल रहा है. मानवाधिकारवादियों का आरोप है कि पुलिस द्वारा बीजापुर जिले के तीमापुर आदि गाँवों को जला दिया गया, वनोपज के लिए विख्यात गाँव बासागुडा को उजाड़ दिया गया......यह सब एक दृष्टि में अत्याचार ..उत्पीडन जैसा लगता है. पुलिस के अपने तर्क हैं. किसी भी एक पक्ष में कुछ कहना विवेकपूर्ण नहीं है...पर चुप भी रहना उचित नहीं. एक बात में सभी की सामान्य स्वीकारोक्ति है...और वह यह कि समस्या सत्ताजन्य है.....तो समाधान भी सूत्रधार को ही करना होगा. किन्तु सूत्रधार को इस खेल में आनंद आ रहा है.....शायद बचपन में ये लोग तालाब में ढेले फेककर मेढकों को मारते रहने के अभ्यस्त रहे होंगे. बड़े हो गए पर वृत्ति नहीं बदली. 
मैं सिद्धांत से समस्या तक के सफ़र की बात कर रहा था. मुझे लगता है कि नक्सली सिद्धांतों में हुए विचलन के कारण उनका आन्दोलन 'आतंक' बन गया है और उनका सिद्धांत 'समस्या'.  बेशक,  इसे पोषित भी किया गया है ..किसने किया है पोषित ? यह रहस्य नहीं है. कुछ महीने पहले रायपुर से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्र ने एक आंकड़ा प्रस्तुत किया था .......नक्सलियों को कौन कितना चन्दा/ टैक्स देता है . इस लम्बी सूची में व्यापारियों से लेकर औद्योगिक घराने और सरकारी सेक्टर तक सभी शामिल थे. इसी सूची में यह भी विवरण था कि किस नक्सली नेता के पास कितने करोड़ की संपत्ति है. तब किसी ने अखबार की खबर पर कोई ध्यान नहीं दिया था. आज एस्सार पर गाज गिर गयी ....पर सच इतना ही नहीं है ...हमाम में अभी बहुत से नंगे और भी हैं जो बड़ी खुशी से नहा रहे हैं.  हाँ ! अब वे थोड़ा सचेत अवश्य हो गए हैं. हमाम का ही एक नंगा अदालत लगाकर बैठ गया है. 
नक्सल समस्या के पल्लवित होने के कारणों में एक बात और भी समझ में आ रही है .....आदिवासियों में नेतृत्त्व का अभाव. बस्तर का आदिवासी सारी समस्यायों से अकेले ही जूझ रहा है.....सोनी सोढ़ी का परिवार नक्सलवाद की गिरफ्त में है और खुद सोनी पुलिस की. इस समीकरण पर ध्यान देने की फुरसत लोगों के पास शायद नहीं है.
ध्यान इधर भी देने की फुरसत किसी के पास नहीं है कि जंगलवार कॉलेज के लोग आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? नक्सली उन्मूलन में उनमें कोई रूचि क्यों नहीं है ? क्यों वे ज़ल्दी से ज़ल्दी अपनी ट्रेनिंग ख़त्म कर घर भाग जाना चाहते हैं ? प्रश्न इतने ही नहीं हैं ........पर उनको उठाने से क्या लाभ क्योंकि अभी  तक कोई भी ऐसा नज़र नहीं आया जो समस्या उन्मूलन के प्रति वास्तव में गंभीर हो.

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