शुक्रवार, 31 मई 2013

जन क्रांति


           भीमा झाड़ी ने जेल के डॉक्टर को देखते ही पूछा  साहब ! चैती को देखा? कैसी है?”

          “ख़ून की कमी है, सिकलिंग का मरीज इतनी जल्दी ठीक कहाँ होता है ? समय तो लगेगा।” – डॉक्टर ने प्रश्न के साथ उत्तर दिया और लापरवाही से आगे बढ़ गया।

          भीमा झाड़ी और चैती पोया दोनो एक ही जेल में थे। पुलिस के मुख़बिर के कारण चैती पकड़ी गयी थी । और भीमा .....? भीमा ने तो जानबूझकर ख़ुद को  पकड़वा दिया था । भीमा और चैती दोनो ही पुलिस के गवाह बन गये ।  भीमा उन दिनों एक सपने में खोया रहता, उसे उम्मीद थी कि वह छोड़ दिया जायेगा, सरकारी गवाह जो बन गया था । उसने सोचा , जेल से बाहर निकलकर वह चैती के साथ कहीं दूर चला जायेगा ....बहुत दूर । और वास्तव में एक दिन जेल से निकलकर वह दूर चला गया ....बहुत दूर ।  किंतु चैती उसके साथ नहीं जा सकी ।   

           भीमा तब नौ साल का था जब पहली बार दादा लोगों की सभा में गया था । तेलुगू शैली में हिन्दी मिश्रित गोण्डी बोलने वाले तीन जवान दादा और एक जवान दादी ने महुआ के पेड़ तले अपनी बैठक जमायी थी । एक दादा तो बहुत दुबला पतला था और ख़ूब काला भी । काले तो सभी थे पर वह दुबला वाला कुछ अधिक ही काला था । दादी उतनी दुबली नहीं थी पर मोटी भी नहीं थी, उसका रंग बाकी सबकी अपेक्षा थोड़ा सा साफ था । उस मंडली में वही सबसे आकर्षक थी । उस दिन गाँव भर के बच्चों को बुलाया गया था, एक दुबले-पतले दादा ने खड़े होकर भाषण दिया था । भीमा को भाषण तो समझ में नहीं आया पर गीत अच्छा लगा था जो उनके साथ की उस आकर्षक लड़की ने गाया था । लोगों ने बताया कि भाषण देने वाले का नाम गोपन्ना है, वह जनक्रांतिशब्द का बारम्बार उल्लेख किया करता था ।

            गोपन्ना के साथ वाला दूसरा दादा, जिसका नाम सोयम मुक्का था, चुप-चुप रहता था, शायद वह केवल ढपली बजाने के लिये ही था । भीमा को उसका ढपली बजाना अच्छा लगा था । उसका मन होता था कि वह भी ढपली बजाये, पर बजाना तो दूर उसे छूने का भी साहस वह नहीं जुटा पाता था । दादाओं की टोली अक्सर उसके गाँव आया करती थी, हर बार जनक्रांति और शोषण को समाप्त करने के लिये एक लम्बी लड़ाई की कसमें खायी जाती थीं और ढपली बजा-बजा कर किसी नये सबेरे का गीत गाया जाता था । सभा हर बार लाल सलाम के साथ शुरू होती और लाल सलाम के साथ ही समाप्त हो जाती । उनके झण्डे भी लाल रंग के होते थे । भीमा को लाल रंग अच्छा नहीं लगता था, उसे जामुनी रंग पसन्द था । क्रांति-गीत के समय एकाग्रचित्त भीमा का मन ढपली वाले की अंगुलियों के साथ नर्तन करता रहता । फिर एक दिन वह भी आया जब उसके छोटे-छोटे हाथों में ढपली थमा दी गयी । भीमा को सीखने में समय नहीं लगा, अब वह क्रांति-गीत भी गाने लगा था ।

            भीमा गाँव के प्रायमरी स्कूल में पढ़ता था । एक दिन कोरसा सन्नू गुरू जी ने क्लास में बताया कि दुनिया में कुछ लोग गरीबों का खून चूसते हैं, बड़े-बड़े लोग रिश्वत लेकर विदेशी बैंक में पैसा जमा करते हैं जिसके कारण देश में गरीबी है और लोग भूख से मर रहे हैं । गुरू जी ने यह भी बताया कि वह दिन अब दूर नहीं जब दादालोग इन सबको मार कर देश में साम्यवादी सरकार की स्थापना करेंगे । गुरू जी उस दिन ख़ूब नशे में थे, पीते तो रोज ही थे लेकिन उस दिन कुछ अधिक ही पी ली थी । भीमा की समझ में साम्यवादी सरकार का कोई स्वरूप नहीं था सो वह कुछ दिन इसी उधेड़बुन में बना रहा । फिर एक दिन जनसभा में दादा ने भी साम्यवाद और माओवाद का नाम लिया । भीमा की उलझन और बढ़ गयी थी ।

            जैसे-जैसे भीमा बड़ा होता गया, ढपली बजाने में उसकी निपुणता बढ़ती गयी । यह माओ की ढपली थी जिसमें से साम्यवाद का सुर निकलता था और जिसका रंग सुर्ख़ लाल हुआ करता था । पाँचवी पास करते-करते भीमा के हाथ में बन्दूक भी आ गयी थी । उसे निशाना लगाने, दुश्मन पर हमला करने, सूचनायें लाने आदि का प्रशिक्षण दिया जाने लगा । यह सब उसे किसी नयी दुनिया में ले जाने वाला जैसा लगता था । छठवी कक्षा की पढ़ाई के लिये उसे दूर के एक गाँव में जाना था पर दादाओं ने मना कर दिया । उससे कहा गया कि क्रांति के लिये पढ़ने की आवश्यकता नहीं । लोग पढ़-लिख कर बड़े-बड़े  अधिकारी बनते हैं और फिर ग़रीबों का ख़ून चूसते हैं ।  माओवाद की महिमा ने भीमा की बुद्धि का प्रक्षालन कर दिया था, वह पूरी तरह एक महान कार्य के लिये समर्पित हो गया ।   

           बत्तीस साल का भीमा एरिया कमाण्डर बनकर देश के दुश्मनों के ख़िलाफ़ माओवादी जंग में शामिल हो गया । उसकी दृष्टि में सारे नेता घोटालेवाज हैं, सारे अधिकारी रिश्वख़ोर हैं, सारे व्यापारी जमाख़ोर और मिलावट करने वाले हैं । पूरा देश ही दुश्मन है, सबको मारना होगा, साम्यवाद लाने के लिये माओवाद लाना होगा । कभी लाल रंग को नापसन्द करने वाला भीमा आज लाल रंग का दीवाना था । ढपली बजाने वाला भीमा माओ की ढपली बजाने में निपुण हो गया था ।  

          एक दिन अचानक भीमा को लगा कि शोषण तो मनुष्य की प्रवृत्ति में है । शोषण हर कहीं व्याप्त है, शोषण के ख़िलाफ़ हथियार उठाने वाले भी शोषण करने की भूख से व्याकुल हैं । वे भी शोषण करना चाहते हैं ....नये कलेवर और नये पाखण्ड के साथ ......केवल अवसर भर मिलने की देर है । तो यह सारा खेल अवसर पाने के लिये ही है ?  

          दस वर्ष की उम्र से लेकर बत्तीस वर्ष की उम्र तक जिस भीमा ने साम्यवाद के लिये अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था उसी भीमा को अचानक साम्यवाद से नफ़रत होने लगी । किन्तु यह नफ़रत अचानक नहीं हुयी थी उसे । जब पहली बार उसे टंगिया से निर्ममतापूर्वक प्रहार करके खरगोश मारने के लिये कहा गया था ..... तब खरगोश को तड़पते देखकर उसका मन कितने दिन तो बुझा-बुझा सा रहा था । दर्द और ख़ून के प्रति योद्धा की संवेदना की हत्या करना आवश्यक है । भीमा को निष्ठुर बनाने के सभी प्रशिक्षण दिये गये थे । पुलिस के घायल पड़े जवान के सिर और गुप्तांग पर टंगिया से घातक प्रहार, सिर्फ़ यह पता करने के लिये करना कि वह जिन्दा है या नहीं, इसी निष्ठुरता का एक क्रूरतम प्रशिक्षण हुआ करता था । भीमा क्रूर बनता गया ..पर अन्दर ही अन्दर कुछ शोर भी होता रहा । यह शोर तब असह्य हो गया जब एक रात चैती की चीख उसके कानों से टकराई ।

           सिल्ले गट्टा की चैती पोया दण्डकारण्य जनमिलिशिया की सक्रिय सदस्य। वह कब माओवादी बन गयी, उसे याद भी नहीं । उसे बस इतना याद है कि होश संभालने के साथ ही उसने स्वयं को माओवादियों के बीच पाया था । गेहुँवा रंग, बड़ी-बड़ी आखें और गोल चेहरे वाली चैती की चर्चा कहाँ नहीं थी, उसके अपने दल से लेकर अन्य दलों तक हर कहीं चैती की जवानी कहर ढाती थी । तब वह चौदह साल की थी जब एक दिन बोद्दू रात को मटन भात खाने के बाद उसे एक झाड़ी में ले गया था । चैती अबोध थी पर इतनी भी नहीं कि बोद्दू की हरकतों को न समझ सके ।  ......रात का समय, जंगल की झाड़ी, बलिष्ठ बोद्दू, मटन की गर्मी, शराब का नशा, कमसिन चैती की ख़ूबसूरत आँखें .......। बोद्दू दल का मुखिया था, चैती का प्रतिरोध सफल नहीं हो सका । बाद में वह कई दिन तक गुमसुम बनी रही । वह एक ही बात सोचती – “क्या यह भी जनक्रांति का एक हिस्सा है ?”

          चैती अब अट्ठाइस साल की तोप है । बोद्दू के बाद जोगा, लिंगैया और पदाम भी उसे कभी-कभी झाड़ी में ले जाया करते थे । वे उसे बम नहीं तोप कहते थे, पर चैती सोचती कि इसमें भला उसका क्या दोष ? भीमा को यह सब अच्छा नहीं लगता था, किंतु प्रतिरोध करने की स्थिति में वह भी नहीं था ।  चैती के प्रति भीमा की सहानुभूति गहरी होती चली गयी ......गहरी । फिर वह धीरे-धीरे चैती को लेकर गम्भीर होता गया । इससे चैती को कुछ लाभ हुआ, .....किंतु बस इतना ही कि अब उसे झाड़ियों में कम जाना पड़ता था । जनक्रांति का यह हिस्सा भीमा को अच्छा नहीं लगता था, उसे लगा माओवाद भी शोषण से मुक्त नहीं है । किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसका उपभोग ....वह भी कई लोगों के द्वारा ......यह न्याय कैसे हो सकता है ? दल में शामिल नये लोगों की नसबन्दी,  शादी करने पर प्रतिबन्ध, स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसका उपभोग  ...... जनक्रांति में इन सबका कोई स्थान नहीं होना चाहिये ।  

        एक दिन मुखबिर की सूचना पर चैती पकड़ी गयी । भीमा व्यग्र रहने लगा, वहाँ जेल में पता नहीं कैसा व्यवहार होता होगा उसके साथ । उसने बहुत से किस्से सुन रखे थे कैदियों के । भीमा के लिये माओवाद का आकर्षण आसमान से ज़मीन पर आ चुका था । उसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण निर्णय लेना था ।

         एक दिन सबने सुना कि भीमा भी पकड़ा गया । अब भीमा और चैती एक ही जेल में थे किंतु दोनो एक-दूसरे से मीलों दूर थे । भीमा को संतोष था कि किसी न  किसी तरीके से वह चैती का हाल जानता रहेगा ।  

          कुछ साल जेल में बिताने के बाद दोनो को मुक्त कर दिया गया । दोनो ने विचार किया कि उन्हें जंगल से दूर चले जाना चाहिये ...जहाँ वे अपने सपनों को पंख लगा सकें । उन्होंने दिल्ली जाने की योजना बनायी, सोचा था कि दो जवान लोग जहाँ पसीना बहायेंगे वहाँ जीने की क्या मुश्किल हो सकती है ।

           जिस दिन उन्हें दिल्ली जाना था उसके ठीक एक दिन पहले ही भीमा चैती को बिना कुछ बताये चला गया ....... चैती राह देखती रही पर वह नहीं आया । तब लिंगैया ने कुटिल हँसी के साथ सूचना दी कि बोद्दू ने भीमा को गोली से उड़ा दिया । चैती न रोयी ...न चीखी ...न चिल्लायी ...बस कुछ समय के लिये मानो जड़ सी हो गयी ।

           उस दिन एक टार्गेट तय किया जाना था । दल के सभी प्रमुख लोग गोल घेरा बना कर बैठे थे, सभी को दिशा निर्देश दिये जाने थे । जब सभा समाप्त हुयी तो चैती उठकर बोद्दू के पास आयी, जैसे कि कुछ पूछना चाह्ती हो । किंतु पास आते ही चैती ने बोद्दू के सिर में गोलियाँ उतार दीं । सब सन्न रह गये । जोगा ने चैती की ओर बन्दूक तान ली, तभी लिंगैया चिल्लाया – “ छोड़ दे उसे .....।”

 

           चैती अब भी उसी दलम में है किंतु अब उसे कोई महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी नहीं दी जाती  सिवाय इसके कि वह जब-तब झाड़ी में चली जाया करे ।    

  
इस कहानी में दिये गये स्थान, पात्रों के नाम एवं घटनायें काल्पनिक हैं । किसी भी प्रकार की साम्यता मात्र संयोग ही होगा ।
   


बुधवार, 29 मई 2013

कविता


कविता है
एक लावा ,
लावा .... जो बहता है
आंतरिक हलचल और बेचैनी से विस्फोटित हो कर
बहता है ....
अपने आसपास के सारे परिवेश को प्रभावित करते हुये ।
कविता  है
बेचैनी  की स्थिति में
कोरामीन का इंजेक्शन ।
कविता है
एक सुगन्ध
जो प्रस्फुटित होती है
हृदय की अतल गहराइयों से
कविता
एक चीख  है
जो गूँजती है सतत .....
पूरे विश्व में ।
कविता है
एक विवश शब्दावली 
जिसके प्रभामण्डल में समाकर
कोई रचनाकार बचा पाता है
स्वयं को पागल होने से ।
कविता है
एक अज़ूबा
जिसके चाहने वाले तो हैं
पर
नहीं रखना चाहता उसे
कोई अपने घर में ।
कविता है
सड़क के किनारे पड़ी हुयी
एक ख़ूबसूरत भिखारिन
जिसे ताकते हैं मुसाफ़िर
मुस्कराते हुये
फिर निकल जाते हैं ..बिना उसकी ओर फेके  
रोटी का एक भी टुकड़ा ।
कविता है
एक बेहोशी
जो बहती है पूरे होश-ओ-हवास में ।
कविता है
एक जागरण
जो झकझोरती है सुप्तों को ।  
कविता
एक मूल्यवान औषधि है
जिसके अभाव में
जी नहीं सकता कोई रचनाकार ।
कविता से
हमें इश्क़ हो गया है
इतना  इश्क ....
कि न हम कविता को छोड़ सकते हैं
और न कविता हमें ।
इसलिये
एक इल्तिज़ा है आपसे
जब हम मरें
तो हम दोनो को
एक साथ दफ़न कर देना ।
त्रिवेणी के संगम में ।    





...................................और अंत में रश्मि प्रभा जी की ओर से
यह सागर पूरित गागर



" कविता है कवि की आहट 
उसके जिंदा रहने की सुगबुगाहट
उसके सपने
उसके आँसू
उसकी उम्मीदें
उसके जीने के शाब्दिक मायने ..."

रविवार, 26 मई 2013

रत्नगर्भा रक्तरंजित

आंध्र प्रदेश के नक्सली गोपन्ना ने रची थी हमले साजिश


कल 25 मई 2013 को एक बार पुनः बस्तर की रत्नगर्भा धरती रक्तरंजित हुयी । लोकतंत्र छलनी हुआ और आस्था डगमगायी । कल दरभा घाटी से होकर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर माओवादी नक्सलियों ने कांग्रेस के नेताओं को रक्त स्नान कराया और उन्हें क्रूरतापूर्ण अंतिम विदायी दी । आज जबकि पूरे देश में इस नृशंस हत्याकाण्ड की चर्चा हो रही है, विमर्श हो रहा है ...समाधान के उपायों पर राजनैतिक गलियारों में गम्भीरता से चिंतन किया जा रहा है, वहीं माओवादी शिविर में विजय पर्व मनाया जा रहा है। उन्हें अपने ख़ूनी हथियार उठाकर हर्षोल्लास में नाचते-गाते देखा जा रहा है ।

मानवीय सभ्यता का कितना क्रूर और वीभत्स स्वरूप है यह  ....बर्बरता की सीमाओं को स्पर्श करता हुआ । यह समाज किस दिशा में जा रहा है ? सभ्यता का कैसा पतन हो रहा है ?  

राजनैतिक इच्छाशक्ति की शिथिलतापूर्ण अक्षमतायें, सत्ता पाने के लिये किसी भी स्तर तक पतित होने के निर्विरोध मार्ग , लोक समस्यायों की गम्भीर उपेक्षा , बढ़ती हुयी अराजकता और भ्रष्टाचार के दैत्य ने देश को जिस गति से खोखला किया है उसका परिणाम आज जिस रूप में प्रकट हुआ है वह आश्चर्यजनक कदापि नहीं है ।

छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा के कारण अब तक न जाने कितने पुलिस और सेना के जवानों के साथ-साथ नागरिकों को भी अपने प्राण गंवाने पड़े हैं । न जाने कितनी राष्ट्रीय संपत्ति नष्ट की जा चुकी है । न जाने कितना विकास कार्य अवरुद्ध हुआ है । न जाने कितने बच्चे अनाथ हुये हैं । सरकार के आदेश भले ही उपेक्षित रह जायें पर माओवादियों के फ़रमानों की उपेक्षा करने का साहस किसी में नहीं है । उनके चाहने से ही बस्तर में एकमात्र रेल चलती है, उनके हुक्म से ही सड़कों पर आवागमन हो पाता है । क्या इसका अर्थ यह है कि भारत के एक गलियारे में चीन की समानांतर सरकार आकार ग्रहण कर चुकी है ?    पूरे विश्व को पता है कि चीन से लगी भारत की सीमायें असुरक्षित हैं जहाँ  चीन का अतिक्रमण किसी छद्म नीति के अंतर्गत होता रहता है जबकि हम कायरता की सीमा तक विनम्रता का प्रदर्शन करते  रहते हैं । अर्थात् हमारी गृह नीति के साथ-साथ हमारी विदेश नीति की असफलता भी देशवासियों के लिये गम्भीर चिंता का विषय है ।  

शनिवार, 18 मई 2013

प्रकृति


पूछो-पूछो ...और पूछो ....
खीझ-खीझ कर पूछो ....
पूछ-पूछ कर खीझो ....
हम नहीं देंगे
आपके एक भी सवाल का ज़वाब
क्योंकि हम गुण्डे हैं
बदमाश हैं
कातिल हैं
लुच्चे हैं
लफंगे हैं
  बलात्कारी हैं  
घोटालेवाज हैं
 नरक के कीड़े हैं
मगर.......  
हमारी गलती क्या है यह तो बताओ?
वोट तो तुम्हीं ने दिया था हमें
और अब
जब हम अपनी प्रकृति के अनुरूप
भारत को तबाह करने में लगे हैं
अपने "स्व-धर्म" का पालन करने में लगे हैं
तुम्हें कोई हक़ नहीं होता
हमसे एक भी सवाल पूछने का।
 

रविवार, 12 मई 2013

माओवाद की पोषक व्यवस्थायें

    
      भारत में माओ त्से तुंग है,स्टालिन है, लेनिन है, ओसामा है, अरिस्टोटल है, फ़्रायड है .......। भारत विचारों को आयात करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है। भारत में संविधान से लेकर बच्चों के खिलौनों, दीपावली के पटाखों और रक्षाबन्धन पर भाइयों की कलाइयों पर बांधने की राखियों तक के लिये विदेशी दीवानापन अद्भुत् है। यह स्वतंत्र देश आज भी विदेशों पर निर्भर है। क्यों ? ......क्या भारत चिंतकों और विचारकों से शून्य देश है? क्या भारत के लिये विदेशी चिंतन और विचार इतने अपरिहार्य हो चुके हैं? क्या कृष्ण,विदुर, विक्रमादित्य, चाणक्य, बुद्ध, महावीर आदि अप्रासंगिक हो चुके हैं?
      हम बस्तर की बात कर रहे हैं...और बस्तर ही क्यों .... भारत के उन सभी क्षेत्रों की भी कर रहे हैं जो विदेशी कूटनीतिक हिंसा के कारण आंतरिक गुरिल्ला युद्ध के शिकार होने के लिये विवश हैं....और सरकार असहाय है।
आज भारत की जनता यह जानना चाहती है कि तेलुगु मिश्रित टूटी-फूटी हिन्दी में छत्तीसगढ़ के वनाच्छादित दुर्गम अंचलों में शोषण के विरुद्ध किशोरवय बालकों-बालिकाओं की छापामार हिंसक सेना तैयार करने वाले चीन क्रीत भारतीय दासों के लिये उर्वरक भूमि तैयार करने वाले लोग कौन हैं?
भारत की केन्द्र सरकार प्रति वर्ष करोड़ों की धन राशि नक्सलवाद, जो कि शनैः-शनैः माओवाद में परिवर्तित हो चुका है, के उन्मूलन के लिये राज्य सरकारों को प्रदान करती है। इस राशि का कोई ऑडिट नहीं होता। जिस देश में प्रति मिनट देश को लूटने की साजिशें कर्णधारों द्वारा रची जाती हों वहाँ इस राशि का कितना सदुपयोग अपने निर्धारित उद्देश्य के लिये किया जाता होगा यह सहज अनुमान योग्य है। देश का मूल्यवान धन उस समस्या के लिये व्यय किया जा रहा है जो समाधान के स्थान पर निरंतर बढ़ती जा रही है। यह दशा और दिशा किस स्थिति की ओर इंगित करती है? देश को किस परिणाम की आशा दिलायी जा रही है?
बस्तर के दुर्गम वनांचलों में आयातित माओवाद नें नक्सलवाद के जनक कनु सान्याल को आत्महत्या करने पर विवश करने के बाद अपनी जड़ें दृढ़ता के साथ विस्तारित कर ली हैं। नक्सलवाद मर चुका है,उसकी लाश पर पराश्रयी माओवाद ने अधिकार कर लिया है। पर मैं एक प्रश्न पूछता हूँ कि भारत की मिट्टी कैसी है जहाँ के लोगों को विदेशी व्यक्तियों, विदेशी विचारों,विदेशी शासकों, विदेशी भाषाओं, विदेशी औषधियों, विदेशी तंत्रों, विदेशी आयुधों,विदेशी संगीत, विदेशी परम्पराओं ....से इतना प्रेम है? भारतीयों को भारतीय चीजों से इतना वैराग्य क्यों है? क्या भारतीयों की अभारतीयता इन सबके लिये उत्तरदायी नहीं है?
निर्धन और अशिक्षित या अर्धशिक्षित वनवासियों के मन की रिक्त पड़ी भूमि में माओवाद के बीज बोने वाले लोग चीन से नहीं आये, वे चीन क्रीत चीन के भारतीय दास हैं जो भारत में चीन के लिए कार्य करते हैं। हाँ-हाँ ....भारतीय दास, दास प्रथा भारत से अभी तक समाप्त कहाँ हुयी है!
क्या यह बताने की आवश्यकता रह गयी है कि हमारी व्यवस्था के लिये उत्तरदायी लोग ही देशव्यापी अव्यवस्थाओं के जनक बन चुके हैं, शासन तंत्र की प्रत्येक कड़ी भ्रष्टाचार और शोषण का पोषण कर रही है और यह अराजक स्थिति ही माओवाद के लिये उर्वरक का काम करती है।
माओवाद के क्रीत भारतीय दास जब 12 वर्ष के वनवासी बालक-बालिकाओं को उनके आसपास की शोषणपूर्ण स्थितियों का समाधान बन्दूक की गोली से बरसाने का आश्वासन देते हैं तो उसके ऊपर अविश्वास करने का उनके पास कोई कारण नहीं होता। भारत की स्वतंत्रता के इतने दशकों के बाद भी भारत के कर्णधार भारतीयों को स्वतंत्र देश के नागरिक होने की अनुभूति करा पाने में असफल रहे हैं। स्वतंत्रता के साथ ही भारत के लोगों ने देश के टुकड़े होते देखे, धार्मिक उन्माद में रक्तपात होते देखा, कश्मीर को हड़पे जाते देखा, चीन के हाथों अपनी लज्जास्पद पराजय देखी, आर्थिक अपराधियों और हत्यारों से भरी संसद को देखा,भ्रष्टाचार को नित नयी ऊँचाइयाँ छूते देखा, धार्मिक दंगे देखे, घरों के भीतर भी स्त्रियों को असुरक्षित देखा, घर के बाहर खेलती बच्चियों के साथ बलात्कार होते देखा, अपराधियों को संरक्षण पाते देखा, ईमानदारों को बेइज्जत होते देखा, न्याय को बिकते देखा, जो वर्ज्य है देखने के लिये वह सब भी देखा ......और अब देखने की इस प्रक्रिया को परम्परा में बदलते हुये पूरी दुनिया देख रही है।
सर्वविदित है कि माओवादी प्रेत वनवासियों के पास बड़ी सुगमता से पहुँच जाते हैं, उन्हें अपना बना लेते हैं,उनसे अपनी इच्छा के अनुकूल कार्य करवा लेते हैं, उन्हें अपने ही वनवासी बन्धुओं का रक्त बड़ी निर्ममता के साथ बहा देने के लिये तैयार कर लेते हैं, उन्हें स्कूल की इमारतें ढहा देने और सड़कें खोद डालने के लिये मना लेते हैं। आश्चर्य है, वनवासियों तक पहुँचने की यह सुगमता भारत सरकार के कर्णधारों, नुमाइन्दों, मानवाधिकारवादियों और स्वयंसेवी संस्थाओं के समर्पित देशभक्तों के लिये दुर्गम क्यों है? विदेशियों के छक्के छुड़ा देने वाले वनवासी गुण्डाधुर और गेंद सिंह जैसे महानायकों के बस्तर में राष्ट्रवाद की अलख क्यों बुझ गयी?
30 वर्ष का भीमा माओवादी है, वह नक्सलवाद और माओवाद को एक-दूसरे का पर्याय मानता है। उसने कभी माओ त्से तुंग का नाम नहीं सुना, उसे माओवाद के बारे में कुछ नहीं पता, दुनिया के नक्शे में चीन कहाँ है उसे नहीं पता,चीनियों के ख़ौफ़नाक मंसूबों के बारे में उसे नहीं पता, वे जिस रास्ते पर चल रहे हैं वह उन्हें कहाँ ले जायेगा उन्हें नहीं पता। उन्हें कुछ नहीं पता ....सिवाय इसके कि माओवादी प्रेतों के इशारों पर उन्हें कितनों का रक्त बहाना है और भारत की कितनी सम्पत्ति नष्ट कर देनी है।
जिसे दुनिया जहान के बारे में कुछ नहीं पता वह ख़ूंख़ार अपराधी के रूप में जाना जाता है, पुलिस उसकी तलाश में रहती है, मुठभेड़ें होती हैं, विस्फोट होते हैं, हत्यायें होती हैं, घर-परिवार तबाह होते हैं। मौत दोनो के हिस्से में है माओवादी वनवासियों के भी और पुलिस या सेना के जवानों के भी। भारत में होने वाली नृशंस मौतों का पूरा हिसाब चीन के बही खातों में है। बस्तर के माओवादियों के पास से पाये गये आयुधों पर चीन की मोहर का होना भारत के भीतर चीन के युद्ध को प्रमाणित करता है। भारत के भीतर चीन का छापामार गुरिल्ला युद्ध जारी है ......भारतीय मर रहे हैं ....कभी अपराधी बनकर, कभी सेना या पुलिस के जवान बनकर, हर हाल में मौत भारतीय की हो रही है। भारत की यह कैसी सुरक्षा नीति है?
भारत के भीतर धधक रही माओवादी लपटों की ऊष्मा बीज़िंग तक पहुँचती है, भारत की असफलता से उत्साहित होकर ही चीन के साहस को लद्दाख और अरुणांचल प्रदेश में भारत की भूमि को हड़पने के रूप में पूरी दुनिया देख रही है। भारत अपने को एक सम्प्रभुता सम्पन्न और सबल राष्ट्र प्रमाणित कर पाने में असफल रहा है।
इस दुर्बल राष्ट्र का एक चित्र यह भी है, ध्यान से देखिये इस चित्र को -
वह जंगल में घूम रहा था...बिना पूरे कपड़े पहने .....बिना किसी चिंता के ...अपनी मस्ती में था। वह अकिंचन था, खाली था और कच्ची मिट्टी था। कच्ची मिट्टी को अकेला देख कर माओवादी प्रेत उसके पास पहुँचा, उसके सामने एक गिलास रखा और फिर उसे ज़हरीली शराब से भर कर उसके हाथ में थमा दिया। कच्ची मिट्टी के खाली हाथ में पहली बार किसी ने कुछ भरकर थमाया था,वह अभिभूत हो गया उसने झट से वह ज़हरीली शराब अपने जेहन में उतार ली। धीरे-धीरे वह उसका अभ्यस्त होता गया ....तब बहुत बाद में तथाकथित शरीफ़ों ने चिल्लाना शुरू किया- ये अपराधी हैं ...इन्हें पकड़ो ...इन्हें सजा दो .......।ये शरीफ़ लोग शराब से नफरत करते थे, वह बात अलग है कि ये शरीफ़ ज़िन्दा इंसानों का ख़ून पीने के शौकीन थे। शरीफ़ अभी भी चिल्ला रहे हैं कि उनके पास ज्ञानामृत से भरा हुआ पूरा एक कमण्डल है,ये दुष्ट वनवासी इसकी एक बून्द भी चख लें तो इनका उद्धार हो जाय पर ये नालायक इसे पीना ही नहीं चाहते इसलिये इन दरिन्दों को मौत की सजा दी जानी चाहिये।
ये इतने शरीफ़ हैं कि कभी किसी कच्ची मिट्टी के पास नहीं जाते अपने कमण्डल का ज्ञानामृत पिलाने किंतु जब कोई ज़हरीली शराब पीने लगता है तो धरती आसमान एक कर देते हैं। कच्ची मिट्टी को यदि किसी ने पहले-पहले दूध का गिलास पेश किया होता तो क्या आज उसे शराब की यह लत लगी होती?आज भी कोई शरीफ़ उन्हें दूध पिलाना नहीं चाहता, उन्हें शराब पीने के अपराध में सूली पर चढ़ा देना चाहता है। माओवादी समस्या का क्या यही एक मात्र समाधान है?
माओवादी समस्या ने बस्तर के जनजीवन को छिन्न-भिन्न कर दिया है। बस्तर के लोगों को शोषण से मुक्ति का सपना दिखाने वाले माओवादियों ने बस्तर में अपने पैर जमा लेने के बाद अब बस्तर के लोगों का शोषण करना शुरू कर दिया है। वैचारिक, मानसिक और आर्थिक शोषण तो उन्होंने पहले ही शुरू कर दिया था अब दैहिक शोषण भी शुरू किया जा चुका है। मलहम लगाने का वादा किया था,घावों में बारूद भर कर चल दिये।
तब वह पूरी तरह किशोर भी नहीं हो पाया था जब उसके हाथों में कलम के स्थान पर बन्दूक थमा दी गयी थी ( मजे की बात यह भी है कि कलम थमाने वाले तब कहाँ सो रहे थे जब कोई उन्हें बन्दूक थमा रहा था?) अब वह जवान हो चुका है ..शरीर से भी और मन से भी। जब सीनियर्स उसे उठाकर लाये थे तब वह भी बच्ची ही थी। न जाने कितनी बार उनकी शारीरिक क्षुधा की तृप्ति का साधन बनती रही थी। पर अब, जब कि दोनो माओवादी जवान हो चुके हैं दोनो ने एक-दूसरे को अपना हृदय समर्पित कर दिया। मन सपनों के पंख लगाकर उड़ चला, किंतु जेल की सख़्त दीवारों से भी सख़्त माओवाद की खुली जेल की अदृष्य दीवालों को लांघ पाना उनके लिए असम्भव है। मृत्यु उनके सामने है। एक ही उपाय उनकी समझ में आता है, वे सामान्य धारा में लौटना चाहते हैं, किंतु यह भी निरापद नहीं है। मृत्यु और वादा ख़िलाफ़ी यहाँ भी है। यह जोड़ा चाहता है कि उनका पुनर्वास हो, सरकार और पुलिस के संरक्षण में हो, वे जीना चाहते हैं पर करोड़ों रुपये व्यय करने वाली सरकार के पास उनके पुनर्वास की कोई ठोस योजना नहीं है। यह कैसी व्यवस्था है?
देश के समक्ष एक ज्वलंत प्रश्न है, क्या भारत के भीतर हो रहे इस चीनी कूटयुद्ध से भारतीयों की रक्षा नहीं की जानी चाहिये ? क्या बस्तर के नक्सलियों बनाम माओवादियों का ईमानदारी से पुनर्वास नहीं किया जाना चाहिये ? क्या इस हिंसा का कोई अहिंसक समाधान नहीं निकल सकता ?
माओवादी हिंसा में धधक रहे बस्तर को ....और भारत के ऐसे ही अन्य अतिसंवेदनशील क्षेत्रों को लालफीताशाही के भ्रष्टाचार से मुक्त करके ही माओवादियों को अब तक उपलब्ध करायी जाती रही प्राणशक्ति का पतन संभव है। पूरा भारत तो लुट ही रहा है, क्या इतने बड़े देश में जरा-जरा से इन जल रहे क्षेत्रों पर भी रहम नहीं की जा सकती ? हे महालुटेरो ! बस्तर को अब तो मुक्त करो।