इंडोनेशिया के
मुसलमान भारतीय संस्कृति के अनुकरण में कुछ बुरायी नहीं देखते । उनके आदर्श
चरित्रों में राम और हनुमान भी हैं । संस्कृति मनुष्य जीवन की परिष्कृत चर्या है ...इसे पाने के लिये प्रयत्न करना पड़ता है ...तप करना पड़ता है ...निरंतर अभ्यास करना पड़ता है ...और आवश्यकता पड़ने पर अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है ।
संस्कृति एक जीवनशैली है जो निरंतर उत्कृष्ट और उदात्त मानवीय गुणों के अभ्यास की
संस्तुति करती है । संस्कृति से हमें धर्म को समझने की वैचारिकभूमि उपलब्ध होती है
जबकि धर्म हमें अपसंस्कृति से बचाता है ।
भारत में धर्म
और संस्कृति के बीच एक धुंधली सी रेखा है जिसे देखने के लिये व्यापक दृष्टि की
आवश्यकता है । भारतीयों का धर्म “धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम्” से अनुशासित होता है । धर्म के ये दस लक्षण आदर्श
व्यक्तित्व के लक्षण हैं जिनका अनुशीलन मानवमात्र के लिये अभिप्रेत है । ऐसा धर्म
व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की समृद्धि, सुख और शांति के लिये आवश्यक है । यही कारण है कि जैन, बुद्ध और सिख मत के लोग भी सनातन धर्म की इस मुख्य धारा का
गुणगान करते हैं । क्या इन सिद्धांतों का किसी से कोई विरोध हो सकता है ? मुझे नहीं लगता कि अन्य मतों के लोग इससे सहमत नहीं होंगे ।
फिर समस्या कहाँ है ?
चरक संहिता में
उपदिष्ट वाक्य - “संस्कारो हि गुणंतराधानमुच्यते” स्पष्टरूप से गुणों के अंतराधान का मंत्र देता है । यह
अंतराधान किस तरह होता है ? इसे सीखने के लिये कृषक के पास जाकर कृषि की प्रक्रिया
देखनी होगी, कुम्भकार के पास जाकर मृत्तिका भांड बनाने की पूरी प्रक्रिया
देखनी होगी, किसी शिल्पी के पास जाकर उसकी शिल्पसाधना को देखना होगा, किसी जुलाहे के पास जाकर वस्त्र बुनने की प्रक्रिया जाननी
होगी ....। संस्कार व्यक्तिगत अर्जन और साधना का परिणाम है किंतु जब
यही समूह में भी व्याप्त होकर प्रगट होता है तो उस समूह की संस्कृति बन जाता है ।
किसी कार्य या आचरण को निरंतर अच्छा और शुभ बनाने के लिये बारम्बार किये जाने वाले
प्रयास संस्कार की प्रक्रिया का एक कार्मिक भाग है । शास्त्र उपदेश देते हैं – “संस्करणं सम्यक् करणं वा संस्कारः” । पुस्तकों के अगले संस्करण में सुधार या संशोधन की परम्परा
से हम सभी परिचित हैं । भारतीय संस्कार निरंतर परिमार्जन करते हुये आगे बढ़ने की
साधना है । यहाँ वैचारिक जड़ता का अभाव है । यहाँ किसी एक विचार या एक दिशा से
प्रभावित होकर रूढ़ हो जाने का अभाव है । यहाँ मण्डन है ....और खण्डन भी । यहाँ एक सरोवर नहीं बल्कि महासागर की बात है, घटाकाश की नहीं अनंताकाश की बात है ।
संस्कार तो त्रुटियों और चरित्र की शिथिलताओं की
पुनरावृत्ति रोकने का अनुभूत योग है । ‘संस्कार’
अपने आचार और विचार में निरंतर परिमार्जन की प्रक्रिया है ।
‘संस्कार’ अपने जीवन में उत्कृष्ट गुणों का अभ्यास है । ‘संस्कार’ मानव जीवन को पवित्र, उत्कृष्ट और लोकहितकारी बनाने वाला आध्यात्मिक उपचार है । ‘संस्कार’ चेतना और संवेदना की वह सात्विक प्रक्रिया है जो मनुष्य के
आचरण को सामाजिक एवं व्यावहारिक जीवन में ग्राह्य और अनुकरणीय बनाती है । ‘संस्कार’ सभ्यता का प्रथम सोपान है और संस्कृति का मूल आधार भी
।
भारत में
धर्मांतरण रोकने के लिये एक निषेधात्मक कानून बनाने की चर्चा हो रही है । सामाजिक
और राष्ट्रीय स्तर पर यह एक क्रांतिकारी पहल है जिसका बुद्धिजीवियों द्वारा स्वागत
किया जाना चाहिये । भारतीय राजनीति और भारतीय समाज को अपनी प्राथमिकतायें तय करनी
होंगी । हम अपने प्राचीन गौरव को खो चुके हैं इसलिये अभी तो हमें संस्कारित होने
की आवश्यकता है, सामाजिक होने और मनुष्य होने की आवश्यकता है । प्रकृति और
मातृशक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है । जघन्य और पैशाचिक यौन
दुष्कर्मों से समाज को पूर्ण मुक्ति दिलाने के लिये कटिबद्ध होने की आवश्यकता है ।
धर्म नहीं आचरण बदलने की आवश्यकता है ।