आस्था के दीपक की लौ से झुलसती
एक पूज्य वृक्ष की
त्वचा
आस्था तुम्हारी
इतनी बन्धनकारी
होगी
पता न था ।
ये धर्म
इतना निर्दयी होगा
पता न था ।
चाँद-तारों पर
जाने वाले
मेरी जड़ों से
यूँ लिपट जायेंगे
पता न था ।
अंतरीक्ष को
नापने वाले
मुझे यूँ बन्दी
बना लेंगे
पता न था ।
ए आदमी नामक
प्राणी !
तुम मुक्त हो
कुछ भी करने के
लिए
पर
शेष धरती
मुक्त नहीं है
तुमसे
पता न था ।
वरना क्या मैं
पैदा होता
यूँ
पेड़ बनकर !
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी..काश आस्था से झकड़ा इंसान संवेदनशील भी बन पाता..दूसरों का दर्द भी समझ पाता.
जवाब देंहटाएंअद्भुत.....मर्मस्पर्शी प्रश्न
जवाब देंहटाएं