उस दिन हम दिल्ली में थे, विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक
देश की राजधानी में । जमुना पार की एक बस्ती में एक भवन का निर्माण कार्य चल रहा
था । काम करने वाले श्रमिकों में अधेड़ थे, युवक थे, युवतियाँ थीं, किशोर थे
.............और किशोरियाँ भी । किशोरियाँ सलवार-कुर्ते में और युवतियाँ साड़ी-कमीज़
में ।
सुबह-सुबह समाचार पत्र में गैंग रेप की कुछ घटनाओं की
सूचनायें पढ़ चुका था । विगत दो वर्षों से
यह सिलसिला कम होने के स्थान पर और बढ़ा ही है ... अपनी पूरी क्रूरता और अमानवीयता
के साथ । छत्तीसगढ़ के कन्या आश्रमों में
यौन शोषण की कई घटनायें प्रकाश में आ चुकी हैं जिनके अध्ययन से एक तथ्य जो प्रकाश
में आया है वह यह कि पीड़िता, अपराधी, अपराध में सहयोगी से लेकर अपराधियों को बचाने
वाले शुरुआती अधिकारी तक सभी लोग प्रायः एक ही समाज के थे । अपराधी किसी बाहरी
समाज से नहीं आये थे बल्कि उसी समाज के और पिड़िताओं के आसपास के थे । बदायूँ,
मुज़फ़्फ़रनगर, दिल्ली जैसे स्थानों का परिदृष्य किंचित भिन्न है । इन स्थानों की
पीड़िताओं और यौन अपराधियों के बीच के सामाजिक वर्ग और स्तर प्रायः एक समान नहीं
हैं । अधिकांश घटनाओं में पीड़ित लड़कियाँ मध्यम वर्ग की रही हैं जबकि अपराधी
निम्नआय वर्ग और श्रमिक वर्ग के रहे हैं । हमने इसी बात को ध्यान में रखते हुये
वहाँ काम कर रहे किशोरों और युवकों से बात करने की चेष्टा की ।
सामान्यतः वर्ज्य समझे जाने वाले किंतु छिपकर अत्यंत रुचिकर
एवं रसिक माने जाने वाले इस विषय पर वार्ता के लिए बड़ी मुश्किल से युवकों और
किशोरों को तैयार किया जा सका । शर्माते-शर्माते झिझकते-झिझकते किंतु बड़ी बेबाकी
से उनके उत्तरों से जो बातें सामने आयीं वे समाज के लिये विचारणीय हैं –
प्रश्न – भारतीय समाज में देवियों की पूजा की जाती है किंतु लड़कियों के साथ
क्रूरतापूर्वक होने वाले बलात्कार की घटनाओं से देवियों के प्रति हमारे श्रद्धाभाव
में बनावटीपन का प्रमाण ही अधिक मिलता है । क्या आप लोग अपनी सगी बहनों के प्रति
चिंतित नहीं होते?
उत्तर- 1- चिंता तो होती है लेकिन हम क्या कर सकते हैं, सरकार को अपनी
ज़िम्मेदारी निभानी चाहिये ।
उत्तर-2- बड़े लोग हमारी माँ-बहनों के साथ मुँह काला करते हैं, मौका मिलने पर
छोटे लोग भी बड़े लोगों की माँ-बहनों के साथ मुँह काला कर लेते हैं ...हिसाब बराबर
।
उत्तर-3- जब भैंस गरमाती है तो उसे गाभिन कराने कंजर के पास ले जाते हैं, नहीं
ले जायेंगे तो भैंस खूँटा तोड़ देगी । यही हाल लड़कियों का होता है इसीलिये मरद लोग
भी मज़बूर हो जाते हैं ।
प्रश्न – क्या समाज में कोई मर्यादा नहीं होनी चाहिये ? आपने मज़बूरी की बात
कही, बलात्कार इतना आवश्यक है क्या ?
उत्तर-1- मर्यादा तो तब बने जब समय से शादी हो जाये । यहाँ रोटी का तो ठिकाना
है नहीं, अपनी बेटी कौन देगा ? बलात्कार कोई करना नहीं चाहता, सबको अपनी इज़्ज़त
प्यारी है लेकिन कोई तो मज़बूरी होती होगी कि लोग यह सब करते हैं ।
उत्तर-2- टीवी-सिनेमा देख-देख कर सबके दिमाग में वही-वही भरा रहता है, मर्यादा
बनेगी कैसे ? सबसे पहले तो हीरोइनों पर नकेल कसी जानी चाहिये । दिन भर काम से थककर
हर किसी को मनोरंजन चाहिये, टीवी में जब भी खोलो तो सब वही-वही ...हीरोइनों के
कपड़े देख के तो अच्छे-अच्छे साधू लोग भी डोल जायें । उन्हें कोई नहीं बोलता कि ऐसे
भड़कउआ कपड़े पहन के सीरियल क्यों करती हैं । अब आप ही बताओ, उन्हें देख के किसे
गरमी नहीं चढ़ेगी । आसाराम जैसे बड़े-बड़े नामी गिरामी संत तक तो कण्ट्रोल कर नहीं
पाते साधारण आदमी की क्या औकात ।
उत्तर-3- टीवी की तो छोड़ो, यहीं देख लो सड़क पे, दिन भर में सात सौ मिल
जायेंगी, मरद आख़िर मरद है । आप न्योता देके भरी थाली खींचने की बात कर रहे हो ।
वहाँ तो मन मसोस के रह जायेंगे लेकिन वो भूख कहीं तो निकलेगी ना ! टीवी वाली तो
मिलती नहीं, फिर मौका बे मौका जो मिल जाती है उसी पे हाथ साफ कर देते हैं लोग,
उनकी भी इतनी गलती कहाँ होती है ? लड़कियाँ आग लगाने में कम हैं क्या ? लपट तो उठेगी
ही ।
उत्तर-4- अपन तो भाई कोठे पे निपट आते हैं, पड़ गये कहीं पुलिस के चक्कर में तो
फालतू में लेने के देने और पड़ जायेंगे, बदनामी अलग से । लेकिन ये बात सही है कि आजकल
की औरतें आग तो लगाती हैं । आठ-आठ मुस्टण्डों के बीच में एक-दो गर्ल फ़्रेण्ड घूमती
हैं । उनकी हरकतें देखो तो पता चले । कोई सती सावित्री नहीं होती, बियर पी के
मुस्टण्डों के साथ आधी रात तक घूमने वाली सती सावित्री होगी भी तो क्या बच पाती
होगी मुस्टण्डों से ?
प्रश्न – लेकिन बलात्कार पिड़िताओं में वे भड़कउआ लड़कियाँ कम होती हैं, ग़रीब,
मध्यम वर्ग की या बच्चियों और कभी-कभी तो वृद्ध महिलाओं के बारे में ही ख़बरें आती
हैं ?
उत्तर- होली में जब आग जलती है तो कच्ची-पक्की कैसी भी लकड़ी डाल दो सब भस्म हो
जाती है । आग कोई जलाके खिसक लेती है और भस्म कोई भी हो जाता है ...जो भी मौके पे
सामने आ जाये । लेकिन ख़्वाब में तो वो ही वाली बसी रहती है ना ! भड़कउआ वाली ।
प्रश्न – क्या बलात्कारियों को मौत की सजा मिलनी चाहिये ?
समवेत उत्तर - ( एक छोटे से सन्नाटे के बाद ) - मिलनी तो ज़रूर चाहिये ।
* * *
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.