मंगलवार, 13 सितंबर 2016

धूपगुड़ी की गली...

भाद्रपद का कृष्णपक्ष ! रात के आठ ही बजे हैं लेकिन लगता है जैसे रात गहरा गयी है ! दो दिन से लगातार झमाझम बरसते काले मेघ जैसे प्रतिशोध पर उतारू थे । चर्चा थी कि, बंगाल की खाड़ी में चक्रवात आया है । धूपगुड़ी की गली-गली जैसे पद्मा हो चली, शुकबाला ने इससे पहले धूपगुड़ी की गलियों को कभी पद्मा-पद्मा होते नहीं देखा था । तिखण्डे पर अपने कमरे में लेटी मणिप्रभा ने शुकबाला से खिड़कियाँ बन्द कर देने को कहा । शुकबाला ने एक... दो...तीन खिड़कियाँ बन्द कर दीं किंतु जब चौथी खिड़की बन्द करने लगी तो उसके हाथ रुक गये । तेज हवा के साथ पानी की एक बौछार का कुछ अंश उसके चेहरे को भिगो कर फ़र्श पर बिखर गया । शुकबाला ने आकाश की ओर देखा – वर्षा रुकने के कहीं कोई संकेत नहीं । फिर नीचे झाँक कर नदी बन चुकी गली की ओर देखा, कोलाहल करती हहराती जलराशि, जैसे सब कुछ बहा ले जाने को आतुर हो अपने साथ । उसे किंचित सिहरन सी हुयी किंतु अगले ही पल प्रकृति की इस विनाशलीला को देख उसे रोमांच सा होने लगा । तभी नीचे से किसी ने पुकारा, “दीदीमोनी ! खोलिये, बस्तर से कोई बाबू मोशाय आये हैं”।
बस्तर से बाबू मोशाय ? वह भी इतनी वर्षा में ? कौन है यह ? – शुकबाला ने मन ही मन सोचा । सीढ़ियाँ उतरते समय वह कौतूहल से भर उठी, कौन है यह बाबू मोशाय ?   
द्वार खोलते ही शुकबाला का हृदय जैसे उस अपरिचित के लिये ममत्व से भर उठा । बोली, “ओह ! आप तो पूरी तरह भीग गये हैं, जल्दी से भीतर आ जाइये”।
पोर-पोर पानी टपकाते बाबू मोशाय को बहुत संकोच हुआ, बोले – “आपका घर गीला हो जायेगा, मैं पूरी तरह भीग चुका हूँ, मेरा सामान भी...”
शुकबाला हंसी, बात काटकर बोली, - “इस वारिश में कोई भीगे बिना बच सकता है, यह आपने सोचा भी कैसे ! आप संकोच मत कीजिये, जल्दी से अन्दर आकर कपड़े बदल लीजिये, नहीं तो सर्दी लग जायेगी । आइये-आइये, विलम्ब मत कीजिये”।
दोनों ऊपर पहुँचे तो मणिप्रभा ने पूछा – “कौन आया है धिये ?”
शुकबाला क्या कहती ! हंसकर बोली – “अतिथि हैं दादी ! हिंदी बोलते हैं, दूर से आये हैं”।
शुकबाला ने गुसलखाने की ओर संकेत करते हुये बाबू मोशाय से कहा – “आप कपड़े बदल लीजिये, तब तक मैं आपके लिये चाय बनाती हूँ”।
किसी अपरिचित के प्रति शुकबाला की इस आत्मीयता से बाबू मोशाय आत्मविभोर हो उठे । सोचने लगे, फ़ेसबुक की वर्चुअल चौपाल के लोग इस शुकबाला को कैसे जान पायेंगे भला !
शुकबाला उधर चाय बना चुकी थी और इधर बाबू मोशाय ने कपड़े बदल लिये थे । दोनों ने एक साथ कमरे में प्रवेश किया । चाय रखते ही बोली शुकबाला – “आप अपने सामान की चिंता मत कीजिये, मुझे दीजिये, सब सुखा दूँगी”।
बाबू मोशाय ने संकोच किया तो शुकबाला हँसकर बोली – “अपना पैसा कौड़ी निकाल लीजिये और बाकी सामान दे दीजिये मुझे”।
बाबू मोशाय और भी संकुचित हो गये, बोले – “नहीं-नहीं ...वैसी कोई बात नहीं । मैं तो यह सोच रहा हूँ कि मेरे कारण आपको कितना कष्ट उठाना पड़ रहा है । मुझे भादौं में लगातार इतनी वर्षा की आशा नहीं थी, सोचा था आपसे मिलकर तुरंत वापस चल दूँगा । लेकिन ट्रेन ही इतनी लेट हो गयी कि यहाँ आते-आते रात हो गयी”।
बाबू मोशाय ने अपने तर-ब-तर सामान की ओर संकेत कर कहा – “अब इसका जो करना है आप ही कीजिये”।
शुकबाला ने कहा – “चलिये, पहले चाय पी लेते हैं, यूँ हम बंगाली लोग आपकी तरह चाय नहीं पिया करते, खाया करते हैं”।
बाबू मोशाय हँस पड़े । इतनी देर बाद संकोच की दीवारें ढहनी शुरू हुयीं और वातावरण कुछ सामान्य हुआ ।
चाय पीते-पीते हँसकर पूछा शुकबाला ने –“तो कहाँ से चली थी आपकी ट्रेन जो इतनी लेट हो गयी”?
बाबू मोशाय ने पहले तो अपना परिचय दिया फिर पूरा किस्सा सुनाया कि वे जगदलपुर से वाल्टेयर होते हुये किस तरह और क्यों यहाँ तक आ पहुँचे ।
शुकबाला मुस्कराती हुयी उठी और डॉ. कौशलेन्द्र का तर-ब-तर सामान उठाकर अन्दर चली गयी । थोड़ी देर में वापस आते ही खिलखिलाकर हँस पड़ी शुकबाला । कौशलेन्द्र उसे देखता ही रह गया, मन में सोचा- कितना हँसती है यह लड़की! क्या सचमुच यही है वो शुकबाला जिसकी तलाश में यहाँ तक आ पहुँचा है वह ...अपनी विवादास्पद कविताओं के लिये कुख्यात हो चुकी शुकबाला या फिर कोई और है यह ?
कौशलेन्द्र ने पूछा – “आप हँस क्यों रही हैं ? कुछ अस्वाभाविक हुआ क्या”?
“अस्वाभाविक....” कहने लगी शुकबाला – “कोई इतना भी दीवाना होता है क्या ? आप डॉक्टर हैं और किसी अनजान लड़की की उलझी-उलझी कविताओं के पीछे-पीछे यहाँ तक चले आये... और वह भी इतने वर्षाकाल में ?”
कौशलेन्द्र को लगा, सचमुच अस्वाभाविक तो है ही, ऐसा भी कहीं होता है भला ! कविताओं के लिये ऐसी दीवानगी ! कि बस्तर से जलपायीगुड़ी तक आ पहुँचे !
कौशलेन्द्र को गम्भीर देखकर बोली शुकबाला – “अरे ! आप तो गम्भीर हो गये ! मैं तो बस यूँ ही कह रही थी । सच बताऊँ... मैं अभिभूत हूँ । निन्दा के सिवाय मुझे मिला ही क्या है अभी तक... और एक आप हैं जो शुकबाला को खोजते हुये भींगते-भागते यहाँ तक आ पहुँचे । सच तो यह है कि मेरे पास शब्द नहीं हैं कुछ कहने के लिये ....यह जो मैं इतना बके जा रही हूँ यह तो बस छलावा है यह शेखी बघारने के लिये कि मैं शब्दहीन नहीं हूँ” ।
शुकबाला ने देखा, कौशलेन्द्र का पूरा शरीर थर-थर काँप उठा था, आँखें भारी होकर झुकने सी लगी थीं । वह उठी और पास आकर खड़ी हो गयी, बोली- “आप ठीक तो हैं न बाबू मोशाय”?
कौशलेन्द्र को चुप देखकर शुकबाला ने उसके माथे को स्पर्श किया फिर किंचित परेशान होकर बोली –“लो हो गयी न सर्दी, तेज ज्वर भी है आपको तो । आप लेटिये, मैं काढ़ा बना कर लाती हूँ”।

वायरल फ़ीवर से मुक्त होने में कौशलेन्द्र को समय लग गया । शुकबाला के घर में रहते हुये उसका आज नौंवा दिन था ।  इस बीच शुकबाला की कविताओं को लेकर दोनों में कोई बात नहीं हुयी । शुकबाला ने जिस आत्मीय भाव से उसकी सुश्रुषा की उससे वह स्वयं को शुकबाला का ऋणी मान चुका था । नौंवे दिन उसने कहा – “अब मैं ठीक हूँ, और जा सकता हूँ । बस एक उपकार और कर दीजिये, कल की यात्रा के लिये मेरा आरक्षण करवा दीजिये”।
शुकबाला ने उलहना सा दिया, कहा – “अभी तो आपके आने का उद्देश्य ही पूरा नहीं हुआ, ऐसे कैसे चले जायेंगे”?
कौशलेन्द्र मुस्कराया, बोला – “इतने दिन में उद्देश्य पूरा नहीं हुआ तो और कब पूरा होगा ! मुझे जो जानना था, वह जान चुका हूँ ....अब और क्या शेष है !”
सर्वांग सुन्दरी श्यामा शुकबाला ठुमक कर बोली – “क्या जान लिया है, बाबू मोशाय! भला मैं भी तो जानूँ ! कैसी है शुकबाला !”
कौशलेन्द्र ने कहा – “गूँगे का गुड़”।

विदायी के समय मणिप्रभा ने बाबू मोशाय को यशस्वी होने का आशीष दिया । दरवाजे के पल्लू से सट कर खड़ी श्यामा सुन्दरी के चेहरे पर जैसे मेघ घिर आये थे । भरे गले से जैसे-तैसे वह इतना ही कह सकी – “फिर कब आओगे अतिथि”?

      और कौशलेन्द्र तो शुकबाला की ओर एक बार दृष्टिपात कर सकने का भी

 साहस नहीं कर सका । ड्रायवर ने पास आकर कहा – “समय हो गया है बाबू 

मोशाय!”

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ख़ूबसूरत शब्द- चित्रण!आपने एक जगह लिखाहै
    'गूँगे का गुड़';एेसी ही अनुभूति हुई है।बधाई हो।

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  2. आपके लेखन व विचारो से तो पहले ही परिचित हो चुकी हूँ ( फेसबुक पर) ब्लाग पहली बार देखा है. बहुत सुन्दर आत्मीयता भरा प्रसंग है .हलचल मचा देने वाली कविताओं की रचनाकारा इतनी सरस कोमलमना है ! उतना ही सरस यह संस्मरण लगा .

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  3. जी धन्यवाद !
    तोताबाला के चरित्र के नेपथ्य में किसी पुरुष सूत्रधार के होने के विवाद के साथ-साथ कविताओं को लेकर होने वाली सराहना एवं लांछना के उस विषाक्त वातावरण से तोताबाला को मुक्त करने का मुझे यही एक सहज तरीका लगा... तो यह कथा लिखनी पड़ी। जब हम अभिनेता/अभिनेत्री के किरदार को स्वीकार कर सकते हैं तो हमें अम्बर पाण्डेय के परकाया प्रवेश कर उन-उन चरित्रों को जीने की कला को भी स्वीकार कर लेना चाहिये। नाटक और फ़िल्म में किसी स्क्रिप्ट के अनुसार कलाकार का ढल जाना उतना कठिन नहीं है जितना कि किसी पुरुष का दोपदी या तोताबाला के शरीर में प्रवेश कर उनके चरित्र को जीते हुये उनकी पीड़ाओं-अनुभूतियों को कविता मेंं प्रस्तुत करना । अम्बर का कविता के क्षेत्र में यह प्रयोग अद्भुत् है । अब जो लोग उन्हें गालियाँ बक रहे हैं उन्हें अम्बर के पुरुष होने की निराशा है । कविता के प्रयोग में लिंग को महत्व देने वाली यह मानसिकता मेरे लिये अस्वीकार्य है । और फिर भारतीय मनीषा तो निगेटिव में से पॉज़िटिव खोजने की अभ्यस्त रही है । तमाम कमियों के बाद भी रावण के गुणों को राम ने भी स्वीकारा । यह भारतीय संस्कृति का ऊर्ध्वगामी पक्ष है जिसे तोताबाला के आलोचक भूल गये । कविता की विषयवस्तु को लेकर दोपदी के रूप में अम्बर की कविताओं का मैंने ख़ुलकर विरोध किया था, किंतु तोताबाला के किरदार में अम्बर की जो कवितायें स्वीकारयोग्य हैंं उन्हें तो स्वीकार किया ही जाना चाहिये । तोताबाला के काव्यस्वरूप के अभिनय और उसके व्यक्तिगत जीवन के अभिनय के एक और पक्ष को इस तरह से भी देखा जा सकता है ......यही उद्देश्य था इस कथा को लिखने का । और सच्ची बात तो यह है कि यह कथा लिखते समय ख़ुद मुझे भी तोताबाला के तन-मन-हृदय में प्रवेश कर उस स्थिति को जीना पड़ा था ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.