यह इण्डिया का सर्वोच्च न्यायालय था जिसने
सबरीमाला स्थित अय्यप्पा मंदिर में हर आयु वर्ग की स्त्रियों के प्रवेश को उनका
अधिकार मानते हुए बारह वर्ष पुराने प्रकरण का अंततः 28 सितम्बर 2018 को पटाक्षेप
कर दिया । इस तरह अय्यप्पा मंदिर की लगभग डेढ़ हजार साल पुरानी परम्परा स्त्री
समानता और आराधना के मौलिक अधिकार के तर्क के साथ समाप्त कर दी गयी ।
प्रगतिशील सभ्य आनंदित हैं और परम्परावादी
असभ्य निराश । मामला है सबरीमाला मंदिर का, जारी है बहस सभ्य और असभ्य के बीच ।
सभ्य – सत्य की जीत होनी ही थी, ब्राह्मणों ने मंदिर को अपनी बपौती मान लिया था । ईश्वर की आराधना में
भेदभाव करना पंडितों की दादागीरी के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ?
असभ्य –ईश्वर आराधना ? वह तो पाखण्ड है आपकी दृष्टि में, फिर उसी पाखण्ड को
स्थापित करने के लिए आप स्त्रियों को भी क्यों सम्मिलित करना चाहते हैं ?
सभ्य – हम ईश्वर जैसी किसी चीज को नहीं मानते । ब्रिटिश साइंटिस्ट
स्टीफ़ेन हॉकिंग से अधिक ज्ञानी नहीं हो तुम । हमने फ़िज़िक्स में पीएच. डी. की है, तुम धरती को चपटी मानने वाले लोग क्या जानो कि
धरती गोल है । हम ईश्वर की आराधना के पाखण्ड के लिए नहीं बल्कि स्त्रियों के साथ
होने वाले भेदभाव के विरुद्ध उनके साथ खड़े हुए हैं ।
असभ्य – किंतु जिसे आप पाखण्ड कह कर ईश्वर, कर्मकाण्ड और धर्म आदि का विरोध करते हैं,
सबरीमाला प्रकरण में तो आप एक तरह से उसी के समर्थन में खड़े हो गए
हैं । क्या यह विरोधाभास नहीं है ? पहले आप तय कर लीजिए कि
आप पाखण्ड के विरोधी हैं या उसके समर्थक ?
सभ्य – बेशक ! हम पाखण्ड के विरोधी हैं तभी तो सबरीमाला मंदिर
की परम्परा को तोड़ने के समर्थन में हैं । स्त्रियों के अधिकार को अब हम और कुचलने
नहीं देंगे ।
असभ्य – अर्थात, आप मंदिर में ईश्वर की आराधना को, जो कि आपकी दृष्टि
में पाखण्ड है, स्त्रियों का अधिकार मानते हैं ?
सभ्य – तुम संस्कृताचार्यों के साथ यही दिक्कत है, विज्ञान की ए.बी.सी.डी. जानते नहीं बस केवल
वितण्डा करना जानते हो । ईश्वर को लेकर दकियानूसी के सिवाय और क्या है तुम्हारे
पास ?
असभ्य – हाइपोथीसिस... जिसके सहारे तुम यहाँ तक पहुँच सके हो ।
हाइपोथीसिस यदि अवैज्ञानिक है तो आपका तथाकथित विज्ञान भी अवैज्ञानिक है जो इसी की
नींव पर खड़ा है ।
सभ्य – बहुत ख़ूब ! अब तुम पंडित जी लोग विज्ञान पर भी हमसे बहस
करोगे ?
असभ्य – क्यों ? क्या विज्ञान पर बहस करने का मौलिक अधिकार केवल आपका ही है ?
सभ्य – ठीक है, चलिए
बताइए कौन सा वैज्ञानिक तथ्य है आपके पास मंदिर में मेंस्ट्रुएटेड स्त्रियों को
प्रवेश न करने देने की परम्परा के पीछे ?
असभ्य – परम्पराओं के साथ आवश्यक नहीं कि वे सदा स्थूल वैज्ञानिक
तथ्यों से ही जुड़ी हुयी हों, वे
लोकाचारों और स्थानीय आवश्यकताओं की परिणति भी हो सकती हैं । जहाँ तक स्त्रियों के
प्रवेश की बात है तो यह पूरे रिप्रोडक्टिव एज़ की बात है केवल मेंस्ट्रुअल स्थिति
की ही नहीं ।
सभ्य – कमाल की बात है ! सैनिटरी नेपकिन लगाकर ख़ून में लथपथ
स्त्री अंतरिक्ष में जा सकती है, प्लेन
उड़ा सकती है, ट्रेन में बैठ सकती है, ऑफ़िस
जा सकती है, पार्टी में जा सकती है ...लेकिन आपके अय्यप्पा
की पूजा नहीं कर सकती । आपका अय्यप्पा मेंस्ट्रुएटेड स्त्रियों से इतना डरता क्यों
है ?
असभ्य – अर्थात, मेंस्टुएटेड स्त्री सब कुछ कर सकती है ....उसे सब कुछ करना चाहिए ?
सभ्य – आपको इसमें क्यों और क्या ऐतराज़ है ?
असभ्य – क्या मेंस्ट्रुएटेड स्त्री को समागम भी करना चाहिए ?
सभ्य – यदि उसकी इच्छा हो तो क्यों नहीं ?
असभ्य – फ़िज़िक्स के विद्वान वैज्ञानिक महोदय ! क्या आपको पता है
कि मेंस्ट्रुअल पीरियड में कोई भी स्त्री किसी भी इनफ़ेक्शन के प्रति अधिक सेंसिटिव
होती है ? और ऐसी स्थिति में किया गया
समागम स्त्री को इनफ़ेक्ट कर सकता है ? क्या यह एक अवैज्ञानिक
आचरण नहीं है ? अभी कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय ने
समलैंगिक सम्बंधों को भी कानूनी मान्यता प्रदान कर दी है जबकि एड्स की कहानी हाइती
में समलैंगिक सम्बंधों के साथ ही प्रारम्भ हुई थी । विज्ञान और आधुनिकता की दुहाई
देकर विज्ञान के साथ खिलवाड़ करने को प्रगतिशीलता नहीं कहा जा सकता महोदय !
सभ्य – आप वितण्डा कर रहे हैं, मुद्दे की बात कीजिए । पूजा से इसका क्या सम्बंध ?
असभ्य – इसके लिए पहले आपको पूजा की अवधारणा पर चिंतन करना होगा
। यह ठीक उसी तरह है जैसे रंगमंच पर उतरने से पहले कलाकार को अपने कैरेक्टर में
प्रवेश करना होता है । यदि आप पूजा का सम्बंध मनःस्थिति से जोड़ पा रहे हों तो समझ
सकेंगे कि इसके लिए विधान कितना आवश्यक है । गीत गाने से पहले राग, सुर, ताल का अभ्यास
आवश्यक नहीं है क्या ?
सभ्य – आप फिर बात को घुमा रहे हैं । मेंस्ट्रुअल पीरियड से
पूजा का विरोध कहाँ है यह क्यों नहीं बता रहे हैं आप ?
असभ्य – ऑपरेशन थिएटर, लेबर रूम, आइसोलेटेड वार्ड, बर्न
यूनिट और आई.सी.यू. में प्रवेश करने के नियमों और ऐसे स्थानों के प्रति मनुष्य के
आचरण को यदि आप समझ सकें तो ही यह भी समझ सकेंगे कि स्थानविशेष का स्थितिविशेष से
कोई विशिष्ट सम्बंध होना चाहिए या नहीं !
सभ्य – पूजा ...पूजा पर आइये पोंगा पण्डित जी !
असभ्य – पूजा के साथ पवित्रता और मन की उच्चतम स्थिति का होना
आवश्यक है । पूजा को जीवन के अन्य कार्यों की तरह नहीं निपटाया जा सकता । यह
स्थितिविशेष में सूक्ष्म में स्थूल की उच्चतम एकाग्रता का उपक्रम है । अय्यप्पा के
पूजा विधान में स्त्रियों की अपनी अनिवार्य भूमिका है, पुरुषों के लिए पूजा के उपादानों की व्यवस्था
स्त्रियों को ही करनी होती है । रंगमंच पर हर व्यक्ति हर तरह का किरदार नहीं निभा
सकता ..और ऐसी ज़िद किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कही जा सकती ।
सभ्य – उचित और अनुचित का निर्णय करने वाले आप कौन होते हैं ? यह अदालत का विषय है, और
अदालत निर्णय कर चुकी है ।
असभ्य – कोई भी अदालत सत्य से ऊपर नहीं हो सकती । अदालतें भी
सत्य के ही अनुसंधान का प्रयास करती हैं.... किंतु स्थूल प्रमाणों के आधार पर ।
पूजा के औचित्य को स्थूल प्रमाणों के आधार पर अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती ।
सभ्य – इसे हम पण्डितों की दादागीरी कहते हैं जिसने देश और समाज
का बंटाढार कर रखा है ।
असभ्य – बंटाढार तो उस प्रगतिशीलता ने कर रखा है जिसने सामाजिक
और व्यक्तिगत आचारों-विचारों की धज्जियाँ उड़ा रखी हैं । अधकचरे विज्ञान का अहंकार
बहुत घातक है सभ्यता के लिए ।
सभ्य – तुम पोंगा पंडित हो, पाखण्ड भरी पूजा करते रहो, तुम्हारे मुंह से निकली विज्ञान
की बात भी पाखण्डी हो जाती है ।
(यह एक अनंत बहस है, चलती रहेगी ......)
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