लगभग सारा विश्व इस समय युद्ध जैसी स्थितियों का सामना करने के लिए विवश हो
गया है । ब्लैक-आउट की जगह लॉक-डाउन की स्थितियाँ हैं । आम जनता के आने-जाने और
काम करने पर प्रतिबंध है, उद्योग धंधे बंद हैं, व्यापार ठप्प है । डॉक्टर्स की फ़ौज़ दिन-रात समस्या का सामन करने में लगी
हुई है । लोगों को खाने-पीने से लेकर स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से दो-चार होना पड़
रहा है, और जैसा कि युद्ध और महामारी के दिनों में होता है कुछ
अवसरवादी लोग पैसा कमाने के लिए ज़माखोरी भी करने लगे हैं, पैसा
ही ऐसे लोगों का एकमात्र धर्म हुआ करता है ।
मैं इसे विश्वयुद्ध ही कहूँगा जिसमें दुनिया भर के देश एक अदृश्य शत्रु के
विरुद्ध जंग में उतर चुके हैं । कुछ विघ्नसंतोषी लोग विपरीत परिस्थितियों में भी आदतन
कलह करने से नहीं चूकते, यह भी हो रहा है । सब कुछ वैसा ही हो रहा
है जैसा कि विश्वयुद्ध के दिनों में हुआ करता है, बस अंतर
इतना ही है कि इस युद्ध में सैनिक नहीं बल्कि आम नागरिक मारे जा रहे हैं (यूँ ख़बर यह
भी है कि लॉक-डाउन का पालन न करने वालों ने पुलिस के ऊपर कहीं-कहीं पथराव किया है।
पत्थरबाजी अब हमारे देश के कुछ लोगों का धर्म बन चुका है ।)
वैश्विक संकट की इस गम्भीर घड़ी में कुछ लोगों पर मज़हबी ख़ुमार अभी भी छाया हुआ
है । आइसिस ने अल्लाह से दुआ करनी शुरू कर दी है कि कोरोना से दुनिया भर के
क़ाफ़िरों को तबाह कर दो । इधर हज़रत निज़ामुद्दीन में लगभग बारह सौ लोग धार्मिक
अनुष्ठान के लिए इकट्ठे हो गए जिनमें लगभग दो सौ पचास लोग विदेशी भी हैं, इन
विदेशी धार्मिकों में कुछ लोगों में कोरोना से मिलते-जुलते लक्षण भी पाये गये जिसके
कारण सभी लोगों को जिन्हें डीटीएस की बसों में बैठालकर अस्पताल ले जाया गया है ।
आज जब इतने बड़े धार्मिक जलसे के बारे में सरकार को किसी तरह पता लगा तो कार्यवाही
की गई और इन मज़हबी लोगों की महँगी पैथोलॉजिकल जाँचों, आइसोलेशन और इलाज़ आदि में होने
वाले भारी भरकम खर्चे का बोझ भारत की जनता पर आन पड़ा है । गलती हमारी भी हो सकती
है किन्तु भारत में कोरोना का संक्रमण फैलाने में सबसे बड़ा योगदान विदेशी पर्यटकों
का रहा है जो सभ्य देशों के सभ्य नागरिक माने जाते हैं । ये सभ्य नागरिक भारत भर
में घूम-घूम कर म्लेच्छवत् आचरण करते रहे और हमें कोरोना बाँटते रहे । आज इन सभ्य
नागरिकों के कारण भारत की अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है और जनजीवन असामान्य हो गया
है । सवाल यह है कि संकट की इस घड़ी में क्या धार्मिक अनुष्ठान इतने आवश्यक हैं कि पूरी
कम्यूनिटी को ही संकट में डाल दिया जाय ? क्या अभी
भी धार्मिक अनुष्ठानों के सामूहिक आयोजनों पर कठिन प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए
?
कुछ लोग तफ़रीह करने के लिए बेचैन हो उठते हैं, वे दस लोगों से मिले-जुले बिना नहीं रह सकते । ऐसे लोग किसी भी नियम-कानून
या प्रार्थना का पालन करना बिल्कुल उचित नहीं मानते । विश्वयुद्ध के दिनों में भी कुछ
लोग ऐसा ही आचरण करते रहे हैं । बलैक-आउट के समय ऐसे ही लोग छिपकर मोमबत्ती या लालटेन
जलाने से बाज नहीं आते । आसमान में उड़ रहे दुश्मन के लड़ाकू विमान ऐसे अवसर का लाभ उठाने
से नहीं चूकते । कुछ लोगों की असामाजिक गतिविधियों का ख़ामियाज़ा पूरी कम्युनिटी को भुगतना
पड़ता है । हर युग में ऐसा होता रहा है और कुछ ज़िद्दी एवं मूर्ख लोगों की गतिविधियों
की सजा बहुसंख्य निर्दोष जनता को भुगतनी पड़ती है । इन हालातों में राजा के दायित्व
और भी बढ़ जाते हैं । उसे एक साथ कई मोर्चों पर अपनी ऊर्जा ख़र्च करनी पड़ती है जिनमें
एक मोर्चा उनकी अपनी प्रजा की वह ज़मात भी होती है जो किसी नियम कानून को नहीं मानने
की ज़िद पर अड़ी रहने वाली होती है ।
आज मुझे याद रहा है कुछ साल पहले केरल से शुरू होकर पूरे देश में फैल जाने वाला
“किस ऑफ़ लव आंदोलन” जिसे अति उच्च-शिक्षित आज़ाद क्रांतिकारियों की व्यक्तिगत आज़ादी
का प्रतीक माना गया था । शायद उस आंदोलन के उच्च-शिक्षित आज़ाद क्रांतिकारियों को “लिप-लॉक
किस” के सामूहिक प्रदर्शन का ख़ामियाज़ा अब समझ में आ रहा होगा ।
आज पूरी दुनिया एक अनचाहे विश्वयुद्ध का सामना कर रही है, सौभाग्य से ब्लैक-आउट नहीं है, केवल लॉक-डाउन
है, आप मान कर चलें कि कुछ दिनों के लिए आपको अध्यात्मिक साधना
का अवसर मिल गया है जिसके लिए आपको अर्जित अवकाश लेने की भी आवश्यकता नहीं है ।
सर्वे संतु निरामयाः !