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एक पुराना फ़िकरा है – धर्म समाज
के लिए अफ़ीम है ।
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अब मुझे भी लगने लगा है कि धर्म सचमुच एक घातक
अफ़ीम है, इस अफ़ीम के नशे में लोग क्रूर हिंसाएँ करते हैं, किसी
के भी हाथ-पैर काटकर उसे ज़िंदा जला देते हैं, सिर में मशीन से
ड्रिल करके उसे मार डालते हैं, उस्तरे और चाकुओं से भारत सरकार
के किसी अधिकारी के शरीर को सैकड़ों बार गोद-गोद कर गंदे नाले में फेक देते हैं,
धीरे-धीरे छुरे से गला रेत कर तड़पा-तड़पा कर मार डालते हैं, घरों और दुकानों में आग लगा देते हैं ... धर्म सचमुच अफ़ीम है ।
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पर अफ़ीमची है कौन ? किसे होती
है नशे की ज़रूरत!
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मनोविज्ञानी मानते हैं कि जो अपनी इंद्रियों के
ग़ुलाम हैं, जो मन से कमज़ोर हैं उन्हें किसी नशे के सहारे की ज़रूरत हुआ करती है ।
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लोग बहुत कमज़ोर हैं, और बहुत
कमज़ोर आदमी अपनी असुरक्षा के वहम में अक्सर बेगुनाहों के प्रति क्रूर हो जाया करता
है ।
इसीलिए मैं
हर तरह के लौकिक धर्म को प्रतिबंधित किए जाने के पक्ष में रहता हूँ ।
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लौकिक धर्म इंसानों की नहीं धूर्त राजनीतिज्ञों
की संजीवनी हुआ करती है । वे इस संजीवनी की सुरक्षा जी-जान से किया करते हैं ।
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इंसान बचेगा तो थोड़ी-बहुत इंसानियत भी बची रह जायेगी
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इंसान से उसका पारम्परिक लौकिक धर्म छीन लो, इंसान
बच जायेगा ।
परिपक्वता वाली बात है ये।
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी व विचारी गयी, गुणी गयी बात।
धन्य हो गया पढ़ के।
कोई भी धर्म कर्म करने की बात करता है,
हिंसा कतई नहीं सिखाता।
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