शनिवार, 23 मई 2020

कितनी सियासत

1-  सिलसिला-ए- सियासत...

कोरोना पर सियासत
लॉकडाउन पर सियासत 
रेल पर सियासत
मज़दूर पर सियासत
पैदल चलते लोगों पर सियासत
भूख पर सियासत
दर्द पर सियासत
लाश पर सियासत
भ्रष्टाचार छिपाने पर सियासत
झूठ पर सियासत
सच पर
कभी कोई सियासत नहीं होती अब ।

भूखे लोग
लाठियाँ खाते हैं
पथ से नहीं...
कुपथ से होते हुए यात्रा करते हैं  
सड़कों से नहीं...
नदियों और जंगलों को पार करते
खेतों की मेड़ों से होते हुये
अपने गाँव जाते हैं । 
मंजिल
सैकड़ों मील दूर है अभी
पता नहीं
तुम्हारे ये संसाधन
फिर कब काम आयेंगे ?

हमने तो देखी है बहुत
बिखरी हुई बीट
कबूतरों की
वीरान महलों के
कंगूरों पर ।

2-  बहुत बड़ी ख़्वाहिश...

बड़ी उम्मीद थी 
कि मिलेगी रोटी
भरता रहेगा पेट
चलती रहेंगी साँसें
बस
यही सोचकर गया था
गया से गुजरात
गयादीन ।
पहुँचते ही जुजरात  
हो गया था लॉक डाउन
बिना काम किए
बिना रोटी खाए
जैसे-तैसे  
वापस आ गया गयादीन
गँवाकर
पास के सारे पैसे
जो दिये थे
पत्नी ने
जाते समय परदेस
जोड़-जोड़ कर
एक-एक पाई ।

कान पकड़कर
कसम खाता है गयादीन
अब कभी नहीं जायेगा परदेस
नहीं करेगा रोटी की ख़्वाहिश  
गला भर आता है
गयादीन का
चेहरे पर छा गया उसका दर्द
उतर गया है मेरे सीने में
मैं
बागी हो जाना चाहता हूँ
आज फिर एक बार । 

मुझे पता है
अब लिखी जायेंगी कहानियाँ
बनायी जायेंगी फ़िल्में
हर कोई होगा मालामाल
फ़ाइनेंसर, प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, एक्टर...
बस
नहीं होगा इस सूची में
नाम
गयादीन का ।
मुझे पता है  
अब फिर शुरू होगी सियासत
गयादीन पर
जिससे नहीं है कोई मतलब
घर वापस लौटे
भूखे गयादीन को ।
गयादीन का दोष
बस इतना ही है
कि जन्म लिया है उसने भी
अमीरों की देखा देखी
नहीं पता था
कि यह नकल
बहुत भारी पड़ेगी
उसकी ज़िंदगी पर ।  

गुरुवार, 21 मई 2020

तत्वज्ञान विद कोरोना...


भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश यानी पुराने नक्शे के हिसाब से ब्रिटिश इण्डिया के लोग अभ्यास के बहुत अभ्यस्त होते हैं यानी बेचारे अभ्यास के मारे होते हैं । दो साल पहले लंदन से शिखा वार्ष्णेय ने यू.के. के कुछ रेलवे स्टेशन्स, प्लेटफ़ॉर्म्स, सार्वजनिक स्थानों और चौराहों के चित्र भेजे थे । तब मैंने टिप्पणी की थी – हम इतने साफ़-सुथरे स्थान देखने के अभ्यस्त नहीं हैं, हमें घुटन हो रही है, ज़ल्दी से गंदगी वाला कोई चित्र भेजो । जब तक हम प्लेटफ़ॉर्म पर गोबर, पान की पीक, केले के छिलके और कागज़ की प्लेट्स जैसी चीजें न देख लें तब तक हमें विश्वास ही नहीं होता कि हम प्लेटफ़ॉर्म पर हैं । संयोग से कुछ ही दिन पहले हमने नई दिल्ली स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर विचरते नंदी और उनके द्वारा यात्रियों को अर्पित गोबर का एक चित्र अपने कैमरे में चुरा लिया था । लंदनिया अनुभूति के बाद इण्डियाना अनुभूति के लिए ऐसे चित्र ख़ूब सुकून देते हैं ।     

मज़दूरों के लिए ट्रेन चलाये जाने की घोषणा से यह पुरानी बात आज मुझे याद आ गई । इमरान ख़ान को पता था कि यह पब्लिक है, नहीं मानती है... । इसलिए लॉकडाउन का कोई ख़ास मतलब है नहीं । जो संयमी हैं उन्हें लॉकडाउन जैसे प्रतिबंधों की क्या आवश्यकता, जो स्वेच्छाचारी हैं उनके लिए लॉकडाउन जैसे प्रतिबंधों की क्या आवश्यकता ? पूत कपूत तो का धन संचय, पूत सपूत तो का धन संचय ! इमरान ख़ान इण्डिया में क्रिकेट खेल-खेल कर तत्वज्ञानी हो गए लेकिन उसी इण्डिया में चाय बेच-बेच कर भी मोदी जी तत्वज्ञानी नहीं हो पाए । इण्डिया में लॉकडाउन होने पर भी लोग मर रहे हैं, पाकिस्तान में लॉकडाउन नहीं होने पर भी लोग मर रहे हैं । कोरोना यहाँ भी है, कोरोना वहाँ भी है । यही तत्वज्ञान है ।  

इधर इण्डिया में लॉकडाउन के दरम्यान भी सड़कों पर भीड़ अवतरित होती रही, पत्थर चलते रहे, लाठाचार्ज किए जाते रहे, थूका-थाकी होती रही, वी.आई.पी. शादियाँ होती रहीं और अंत में बेशुमार भीड़ उमड़ पड़ी ....शहर से अपने-अपने गाँव जाने के लिए । ट्रेन बंद हुई, चालू हुई ...फिर बंद हुई...अब फिर चालू हुई । रायता फैला, समेटा गया, फिर फैला, फिर समेटा गया, फिर तो फैलता ही गया ...फैलता ही गया ...। कोरोना अंकल सब कुछ देख रहे हैं...ख़ुश हो रहे हैं, उन्हें पता है कि जब तक मानुस स्वेच्छाचारी है तब तक कोई उन्हें हरा नहीं सकता ।

कोरोना के परदादा के परदादा यानी लकड़दादा ने 1918 में ही अपनी जमात के लोगों को बता दिया था कि हम लोग मानुस को अधिक समय तक नहीं डरवा सकेंगे । जिस दिन मानुस हमसे आँख मिलाना शुरू कर देगा उसी दिन हमें अपना माल-असबाब समेट कर जाना पड़ेगा ।

कोरोना देख रहा है –बाजार शुरू, उद्योग शुरू, दफ़्तर शुरू, ट्रेन शुरू, बस शुरू, उड़न खटोला भी शुरू होने वाला है । मानुस आँख दिखा रहा है, अब कोरोना अंकल को भागना होगा ...बिना खड्ग बिना ढाल, रे ज़िद्दी मानुस तूने कर दिया क़माल । बिना वैक्सीन बिना दवा ...कोरोना हारेगा ।   

मंगलवार, 19 मई 2020

पटना जाय वाला गड़िया कब खुली...


दीनू जादो ने में छिपे हाँके इशारे को समझ लिया है । जब यह घोषित किया गया कि कोरोना एक वैश्विक महामारी है और फिर यह भी कहा गया कि इससे अधिक पैनिक होने की आवश्यकता नहीं है, बस थोड़ी सी सावधानी बरतने की आवश्यकता है, तो दीनू परेशान हो गया । यह कैसी बात कि महामारी से पैनिक होने की आवश्यकता नहीं ? मौत से कोई क्यों न पैनिक हो. हर कोई परमयोगी तो नहीं हो सकता न !
खरी-खरी कहने में दीनू को कोई झिझक नहीं होती, उसने प्रतिक्रिया दी –“चलाक लोग सबको डराने के लिए बोलता है डरिहऽ झन, लोग सुनते ही डरने लगता है । कवनो कारन त होगा नू डराय वाला तभिए नू नहीं डरने का सलाह देता है लो” ।
बिहियाँ वाले बाबू सिंह कहते हैं – “अब त कुल दुनिअए जमाती हो गऽइल बिया, अतना भीड़ ...तबलीगिए के काहें दोस दिहल जाव, रयतवा तो कुल बगराइए गऽइल बा, अब केहू ना बची कोरोनवा से । गड़िया बन्न करे से त अवरियो मामला गड़बड़ाइल हऽ । हे बाबा बरम देव अब का होई”।
  
हवाई जहाज में चीन की यात्रा करने वाले व्यापारियों और घुमक्कड़ों ने पूरी दुनिया को कोरोना-कोरोना कर दिया । दुनिया के ये समझदार लोग जाने-अनजाने सबको कोरोना बाँटते रहे । कुछ लोगों ने अपने हिस्से का कोरोना अपने भाईजानों को भी दिया । इस्लाम कितना फैला, पता नहीं, कोरोना तो जमकर फैला । फिर बारी आयी मज़दूरों की । सैकड़ों कोस पैदल चल कर अपने-अपने गाँव पहुँचने के जंगी इरादे वाले कम पढ़े-लिखे मज़दूरों की संख्या लाखों में है, ज़मातियों की संख्या से बहुत ज़्यादा । कोरोना फैलने की सम्भावनाएँ बेतहाशा बढ़ती चली गईं । आवागमन बंद कर दिया गया । चीन से कोरोना आयात करने वाले एलिट लोगों की हरकतों से खीझे हुए पुलिस वाले मज़दूरों पर लाठियाँ बरसाते हैं । जो आदमी हवाई जहाज से नहीं उड़ सकता उसे लाठियाँ खानी होती हैं । मज़दूर लाठियों की पुष्ट मार से घायल होते हैं, डरे हुये जो लोग कण्टेनर में छिपकर भागते हैं वे रोड एक्सीडेण्ट में मारे जाते हैं ।
उद्योगों को इकोनॉमी का चक्का घुमाने वाला मज़दूर चाहिए, मज़दूर को पटना जाने वाली ट्रेन चाहिए, ट्रेन को सरकार की अनुमति चाहिए, अनुमति के लिए क्या चाहिये?    
अधिकृत समझदारों ने समझाने की कोशिश की –डरना मत, पैनिक होने की आवश्यकता नहीं हैभारत, इज़्रेल, अमेरिका, ब्रिटेन, रूस और चीन जैसे बड़े-बड़े देश दवाइयाँ और वैक्सीन खोजने में जुट गए हैं । अगले एक-डेढ़ सालमें हमारे पास सब कुछ होगा, दवा भी और वैक्सीन भी । दमे से हाँफ़ते हुये शरीफ़ुद्दीन पूछना चाहते हैं – “तब तक ....”? किंतु वे किसी से कुछ नहीं पूछते क्योंकि इसका ज़वाब उन्हें अच्छी तरह पता है ।

लॉक-डाउन में दूध, खाने-पीने की चीजों और सब्जी बेचने वालों को छूट दी गयी है । सब्जी बेचने वाले जोर-जोर से आवाज़ लगाकर सब्जी बेच रहे हैं, सब्जी वाले के मुँह से ड्रॉपलेट्स की अनवरत शॉवरिंग में सब्जियाँ सराबोर हो रही हैं । इस बात की गारण्टी कौन देगा कि इस शॉवरिंग में कोरोना नहीं है । जलेबी बेचने वाला बेहद मैले-कुचैले और बद्बूदार नोट लेता है, चिल्हर वापस करता है, उन्हीं हाथों से उठा-उठाकर जलेबियाँ तौलता है फिर पुराने अख़बार के टुकड़े में रखकर ग्राहक को दे देता है । हम कोरोना को नियंत्रित कर रहे हैं, स्टेटिसटिक्स को समृद्ध कर रहे हैं ।

मास्क लगाओ... मास्क लगाओ... बड़े-बड़े अधिकारी भी अपनी ठोढ़ी पर मास्क लगाते हैं, तुम्हें भी लगाना होगा, नहीं लगाओगे तो ज़ुर्माना देना होगा... ज़ुर्माना लेकर कोरोना वापस चला जायेगा, फिर वह ज़ुर्माना देने वाले को संक्रमित नहीं करेगा । ज़ुर्माना देने की दम हो तो इण्डिया की किसी भी ट्रेन में यात्रा की जा सकती है ...कोरोना को यह बात मालुम हो गयी है ।

मिसिर जी ने गौर किया कि कोरोना बहुत डरपोक है, डर के मारे वह यह भी भूल जाता है कि मास्क लगाए हुए इंसान की खुली आँखों का रास्ता उसे आमंत्रित कर रहा है, जिन्होंने अपने गले में मास्क लटकाया हुआ है उनकी नाक भी उसे आमंत्रित कर रही है । मास्क कोरोना का सबसे बड़ा शत्रु है, कोरोना उसे देखते ही सिर पर पैर रखकर भाग खड़ा होता है । कोरोना का यह गुप्त रहस्य मज़दूरों को भी पता हो गया है, उन्होंने भी मास्क लगा लिया है । दिलदार नगर वाले शरीफ़ुद्दीन को दमा तो है ही पायरिया भी है, मास्क लगाते ही उनका दम घुटने लगता है, इसलिए उन्होंने भी बड़े-बड़े अधिकारियों की तरह मास्क को अपने गले से लटका लिया है । कोरोना बड़े-बड़े नेताओं और अधिकारियों को पहचान गया है, उनके सात ख़ून माफ़, कोरोना उन्हें संक्रमित नहीं करता । समरथ को नहिं दोस गुसाईं । दीनू ने अपनी नाक और मुँह को अच्छी तरह ढका है लेकिन डुमराँव पहुँचने से पहले उसे धोना और धूप में सुखाना सम्भव नहीं है । चिरईं चाचा का मास्क बहुत गंदा हो गया है, मोतीहारी वाले मिसिर जी ने मास्क का सही स्तेमाल करने और धो कर धूप में सुखाने का तरीका बताया था लेकिन नोयडा से भोजपुर की पदयात्रा में सारे नियम हवा हो गये । मास्क एक रस्म बन गया जिसे कुछ श्रद्धालु जैसे-तैसे निभाने की कोशिश करते हैं । जो अधिक पढ़े-लिखे हैं वे किसी रस्म-ओ-रिवाज़ को नहीं मानते, उनके लिए सब छूट है । हाँ, रुकइया ने अपना पूरा चेहरा दुपट्टे से ढक लिया है, बस केवल दो बड़ी-बड़ी आँखें भर चमकती हैं उसकी ।  

पटरी पर ट्रेन नहीं, सड़क पर बस नहीं, जेब में पैसा नहीं, पुलिस को रहम नहीं, भीड़ में फ़िज़िकल डिस्टेंस नहीं, ज़िंदगी का कोई ठिकाना नहीं । बस दुनिया रेंग रही है ...हौले-हौले । भाग रही हैं तो केवल कुछ ख़बरें कि पैनिक मत होना, हम दवा और वैक्सीन खोजकर ला रहे हैं तुम्हारे लिए ।
जब तक हनुमान जी जड़ी-बूटी लेकर आएँ तब तक लक्ष्मण को प्रतीक्षा करनी ही होगी ।

फ़िज़िकल डिस्टेंस बनाए रखने के लिए ट्रेन और बसें बंद कर दी गयी हैं । टीवी वाले ख़बर दे रहे हैं कि कोरोना हार रहा है । यानी रोज हो रही मौतों को छोड़ दिया जाय तो समझ लो कि हम जीत ही रहे हैं ।
दीनू सोच रहा है, भीड़ में काहे का नियम क़ायदा और कौन सी डिस्टेंसिंग! चौबे चाचा ठीक ही कहते हैं – “जब रायता बगराइए गया है त अब गड़िअए काहें नहीं चला देते हैं, गरीब-गुरबा अपना डेरा तो चहुँपता । पता नहीं पटना जाय वाला गड़िया कब खुली । ट्रक-मोटर वाला अंधाधुन्न भाड़ा वसूलता है, ट्रेनवा खुलता त सस्ता नू पड़ता” ।

सोमवार, 18 मई 2020

डुमराँव से डुमराँव वाया नोयडा


डुमराँव के दीनू जादो को नोयडा से नौ सौ किलोमीटर दूर अपने गाँव जाना है । ट्रेन बंद है, बसें बंद हैं । मज़दूरों को ले जाने के लिए जो ट्रेन और बसें हैं भी वो शायद उसके लिए नहीं हैं, किनके लिए हैं... पता नहीं ।

रोटी की तलाश में डुमराँव छोड़कर नोयड़ा आए दीनू ने कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था कि एक दिन उसे रोटी की तलाश में वापस डुमराँव की ही राह पकड़नी होगी, नोयडा की चमक-धमक से दूर वापस डुमराँव । दीनू ही क्या किसी ने भी नहीं सोचा था कि वायरस की ताकत के डर से भारत भर की रेल तक चलनी बंद हो जायेगी । लोग आपस में बात करते – “कमाल का ताक़तवर भैरस है कोरोनवा, सुने हैं अँखिया से तऽ लोहकवे नहीं करता है, आ चुप्पे से गला में घुस के मार देता है, साँसो नहीं ले पाता है आदमी, टिविया मंऽ देखे हैं कइसे टप्प से गिर के मर रहा है लो । छत्तीसगढ़ में नक्सली रेल बंद कर देता है, दू-चार दिन तक गड़िया नहीं चलता है, फेर चलने लगता है । लेकिन ई कोरोनवा त नक्सलियो से बड़का ताक़तवर है, गड़िया बंद हुआ त बंदए हो गया, बुझाता है अब कब्बो चलवे नहीं करेगा”।      

बहुत से लोग नोयडा से पैदल ही चल पड़े हैं ...किसी को बिहार जाना है, किसी को बंगाल तो किसी को यूपी । दीनू ने बुज़ुर्गों से सुना है कि सौ साल पहले तो लोग लोटा-डोर और सत्तू की एक पोटली के सहारे ही पैदल चल कर मीलों की मंज़िल पूरी कर लिया करते थे । इस बात को याद करके दीनू के ज़िस्म में ताक़त आ जाती है । अब और नहीं, नोयडा का दाना-पानी अब ख़त्म, कल जो जत्था निकलेगा उसी के साथ दीनू को भी चल देना होगा ।

सुना है कि सोशल डिस्टेंसिंग बनाकर रहना होगा । क्या होता है सोशल डिस्टेंसिंग ? दो-चार लोगों से पूछने के बाद ही दीनू को पता लग गया कि दूर-दूर रहना है और किसी को छूना नहीं है ...यानी बाबा के ज़माने में जैसे छुआछूत हुआ करती थी ...कुछ-कुछ वैसी ही होती है सोशल डिस्टेंसिंग । धत्त तेरे की ! खोदा पहाड़ निकली चुहिया । सीधे-सीधे क्यों नहीं कहते कि छुआ तो छूत लग जायेगी इसलिए न छुआ न छूत ।

सोशल डिस्टेंसिंग एक ऐसा कॉन्सेप्ट है जो हड़बड़ाहट में सोशियो-पोलीटिकल जेल से निकलकर सबके सिर चढ़कर बोलने लगा गोया किसी ग़ुलाम को सल्तनत सौंप दी गयी हो । बाद में होश आया तो पता लगा कि इससे तो ग़लत संदेश जा रहा है । सुधार किया गया कि करो वही जो कर रहे हो लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग के स्थान पर फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग कहो । सुधार होते-होते देर हो गई, ज़ुबान पर चढ़े शब्द इतनी ज़ल्दी कहीं उतरते हैं भला! 

नोयडा से दीनू के जत्थे को निकले आज दूसरा दिन है । सोशल डिस्टेंसिंग और भीड़ की आपस में कभी नहीं बनती । दीनू जोर से बोलता है – “देहियाँ ले देहियाँ छुआता हो मरदे, तना दुरिया बना के चलऽ न त कोरोनवा लागि जाई हो” । दीनू की चेतावनी भीड़ में गुम हो जाती है । दीनू भीड़ से अपने ज़िस्म को बचाने की असम्भव कोशिश करता है फिर खीझ कर कहता है – “बऽ मरदे! तोहरए लो खातिर बिहार के बदनामी होता, डिस्टेंसवा बना के चले में कवन मोस्किल बा” ?

बीच में पता नहीं क्यों दिल्ली वाले जत्थे के कुछ लोग सड़क छोड़कर रेल की पटरी-पटरी पकड़कर चलने लगे । दीनू ने अपना जत्था नहीं छोड़ा, उसके जत्थे में शामिल है बिहियाँ के बाबू सिंह का परिवार, दिलदारनगर के शरीफ़ुद्दीन का परिवार और भोजपुर के चिरईं चौबे । भीड़ बेशुमार है, भीड़ में न जाने कितने जत्थे हैं, हर जत्थे में ज़ोश है ...आपन-आपन डेरा जाय के ज़ोश ।

गठरी-मोटरी उठाये सड़क पर पैदल चलते लोगों का जनसमूह, रोते हुये दुधमुहों को चुप करवाती माएँ, थक कर ठुनठुनाते हुए बच्चे - “माई केतना दुरिया बाचल बा, माई भूख लागल बा, चिनिया बदाम कीन द न माई!” माएँ झूठ नहीं बोलना चाहतीं फिर भी वे अपने नादान बच्चों से झूठ बोलती हैं – “नघिचइले बा बबुआ, आगे कवनो दुकान मिली त कीन देब जा चिनिया बदाम”।

माओं को पता है रास्ते में कहीं कोई दुकान नहीं मिलेगी जहाँ से चिनिया बदाम ख़रीदा जा सके ।

भीड़ में अचानक भगदड़ मच गयी । आगे बढ़ते लोग पीछे पलटने लगे, कुछ इधर-उधर भागने लगे, चीख-पुकार मच गई । कहीं से आवाज आयी – “भागा हो लो, आगे लाठीचार्ज हो रऽहल बा” । दूसरी आवाज़ आती है – “लाठीचार्ज ना... गोलिया चऽलता, सड़क छोड़ खेत-खेत भागऽ, बाप रे बाप कऽइसन काल आ गऽइल बा, गलती कोरोना के आ सजा गरीब गुरबा के, सतियानास हो पोलिस के”।

फ़िज़िकल डिस्टेंस का पालन न करना और लॉकडाउन का उल्लंघन कर सड़क पर निकलना कानूनन अपराध है । पत्थरबाजी, मारपीट, दादा टाइप नेताओं की डाँट और थूक  की शिकार हो चुकी पुलिस अब भीड़ को देखते ही खीझ उठती है । पुलिस ने भीड़ को आगे जाने से रोका तो भीड़ उग्र हो गयी, पुलिस को देखकर बच्चे रोने लगे । किसी ने पुलिस की तरफ़ ईंट का एक टुकड़ा फेका तो पुलिस को लाठी भाँजने और अपनी खीझ निकालने का मौका मिल गया ।

थोड़ी ही देर में सड़क खाली हो गयी । खेतों में नीलगायों के झुण्ड ने बड़े अचरज से सब कुछ देखा । देखा कि इंसान बदहवास से इधर-उधर भाग रहे हैं, गोया कोई शेर आ गया हो । कुछ इंसान खेतों की ओर भागे, नीलगायों ने इंसानों को अपनी ओर आते देखा तो वे भी भाग खड़ी हुयीं ।

दीनू के सिर में पुलिस की लाठी से और घुटने में सड़क पर गिरने से चोट लगी । गठरी-मोटरी कहाँ गिर गयी पता नहीं । गन्ने के खेत में पड़े-पड़े दीनू ने सोचा कि अब दिन में किसी खेत में छिप कर आराम करेगा और रात में ही आगे बढ़ेगा ।

भूख और प्यास लगने के बाद भी दीनू का मन गन्ना चूसने का नहीं हुआ । सिर से बहता लहू अब तक सूख चुका था, चोट के दर्द से ज़्यादा फूटी किस्मत का दर्द असहनीय था । खेत में छिपे दीनू को अपने जत्थे के लोगों का ख़्याल आया । ओफ़्फ़! अब किसे कहाँ खोजूँ ! तभी खेत में पत्तियों की सरसराहट से दीनू चौकन्ना हो गया, भागने के लिए शरीर में एक बार फिर ताक़त आ गयी । कहीं कोई लकड़बग्घा तो नहीं ...क्या पता कोई पुलिस वाला ही पीछा करते-करते आ गया हो पकड़ने के लिए । दम साधे दीनू ने सरसराहट के सम्भावित कारणों का विश्लेषण करना शुरू कर दिया । कहीं उसके जत्थे का ही तो नहीं कोई और छिपा है । ऐसा है तो अच्छा है । मुश्किल में एक-दूसरे का सहारा तो बनेंगे, लेकिन पहले पता तो चले तो कि यह सरसराहट है किसकी !

दीनू ने खेत में दो लोगों को झुक कर धीरे-धीरे आगे बढ़ते देखा, कुछ और स्पष्ट होने पर संतोष हुआ कि कोई पुलिस वाला नहीं बल्कि उसके ही जत्थे के लोग हैं – चिरईं चौबे और शरीफ़ुद्दीन की पोती रुकइया बानो । दीनू ने हौले से आवाज़ दी – “चाचा”! और फिर आकर उनसे लिपट कर रोने लगा – “हमार कवन गुनाह बा चाचा, पैदल चल के आपन डेरा जातनी, चोर-उचक्का नियन हमरा के काहें मार मरली ह पुलिस?

बाइस साल के दीनू जादो के किसी भी प्रश्न का उत्तर चिरईं चौबे तो क्या भारत में किसी भी विद्वान के पास नहीं था । चौबे चाचा कुछ नहीं बोले, विवशता और अपमान में उनकी आँखों से अविरल आँसू बहने लगे । रुकइया बानो ने अपने सामने दो मर्दों को रोते देखा तो वह भी सिसक उठी । दीनू और चौबे चाचा को चोट से अधिक अपमान की पीड़ा थी जबकि मातृ-पितृ विहीन चौदह साल की रुकइया को अपने दादा और दादी के बिछड़ने की पीड़ा थी । दादा-दादी भाग नहीं सके, मारपीट के बाद पुलिस उन्हें अपने साथ ले गयी थी । दादा-दादी को पिटते देख कर रुकइया चीखती रही, चौबे चाचा किसी तरह उसे घसीटते हुए भागने में सफल हो गये थे ।

भारत की रीढ़ माने जाने वाले मज़दूर और किसान मुश्किल में हैं । वे पहले से ही रोजगार के ऑस्टियोफ़ाइट्स से पीड़ित थे और अब उनकी रीढ़ फ़्रेक्चर्ड हो गयी है । आवागमन के साधन बहुत कम हैं, जाने वाले मज़दूर बहुत अधिक हैं, उनकी संख्या का अनुमान किसी को नहीं है । दीनू को इस बात का इल्म है कि सोशल डिस्टेंसिंग की ऐसीतैसी हो रही है । लेकिन क्या सरकार उन्हें अपने घर जाने के लिए ट्रेन नहीं उपलब्ध करवा सकती ...इस हिदायत के साथ कि यदि वे संक्रमित होते हैं तो इसके लिए वे स्वयं ज़िम्मेदार होंगे । दीनू के पिता का ऑपरेशन हुआ था तो डॉक्टर ने ऐसे ही एक कागज़ पर पहले दस्तख़त करवा लिये थे ।

चौबे चाचा ने दीनू और रुकइया के सिर पर अपने हाथ रखे फिर दोनों को बच्चों की तरह अपने पेट से चिपका लिया, बोले – “काल गति कोई नहीं जानता, बाहर पता नहीं क्या हो रहा हो, शाम हो गयी है । सालों ने पूरी ताकत लगा के मारा है, दर्द से आज तो चलना मुश्किल है । आज की रात हमें गन्ने के खेत में ही काटनी होगी, चोरों की तरह । सुबह सोचेंगे कि क्या किया जाय” । चौबे की आवाज़ में अपमान का दर्द साफ झलक रहा था ।

रुकइया फिर सिसकने लगी तो दीनू ने सांत्वना दी – “ना रे बबुनी! रो झन । कइसनो करके तहरा के दिलदार नगर चहुँपा के दम लेब हम ।

शुक्रवार, 15 मई 2020

वेद-वेदांगों की उपादेयता आज के परिप्रेक्ष्य में...


कठोपनिषद् पर किसी चिकित्सक को चिंतन करने या कुछ लिखने की क्या आवश्यकता ? यह एक स्वाभाविक सा प्रश्न उठता है । वेद-वेदांग कभी भी मेरे पाठ्यक्रम के भाग नहीं रहे और न मुझमें इतनी योग्यता है कि उन्हें उसी रूप में समझ सकूँ जिस रूप में उन्हें प्रस्तुत किया गया है । वेद सार्वकालिक हैं, आज के परिप्रेक्ष्य में वेद-वेदांगों की उपादेयता को हमें पहचानना होगा । हमें अपनी सभी समस्याओं के लिए वेद-वेदांगों के समीप जाने की आवश्यकता है अन्यथा फिर इन आर्ष ग्रंथों की उपयोगिता ही क्या रह जायेगी ? नचिकेता की कथा मेरे लिए केवल कथा मात्र नहीं है । वहाँ घटनाएँ हैं, चरित्र है, चिंतन है, खण्डन-मण्डन है…. रूढ़ परम्परा के परिमार्जन का संदेश है और है सोशल रीफ़ॉर्मेशन की प्रेरणा । कथा के तत्व में प्रवेश किए बिना कोई भी कथा व्यर्थ लगती है मुझे । 

पढ़ायी के दिनों में साथीछात्र वेद-वेदांग और आधुनिक विज्ञान को परस्पर विरोधी दृष्टि से देखा करते थे । जब मैं कहता कि कोई भी विज्ञान वेद से परे नहीं है तब साथी छात्र बहुत बुरा मान जाते और उन्हें लगता कि मैं वेदों को विकृत कर रहा हूँ । फिर एक ऐसा दौर आया जब आधुनिक विज्ञान की सभी उपलब्धियों का स्रोत वेद-वेदांग को बताये जाने की प्रतिस्पर्धा होने लगी । वायुयान, दूरदर्शन, एटम बम, बैटरी आदि के बारे में कहा जाने लगा कि यह तो हमारे वेदों में पहले से ही वर्णित था विदेशियों ने वेदों से सारा ज्ञान चुराकर ये चीजें तैयार कर डालीं । अर्थात् वेद-वेदांग को देखने-समझने की भारतीय दृष्टि ये चीजें नहीं बना सकी किंतु विदेशियों की दृष्टि ने सब कुछ बना डाला । मुझे लगता है कि cognitive applicability का यह एक बहुत अच्छा उदाहरण है ।
वेद सार्वकालिक हैं, हर युग में सत्य हैं, हर युग के अनुरूप तत्कालीन समस्यायों के समाधान हैं । जब मैं कहता हूँ कि कम्युनिज़्म की मौलिक अवधारणा के मूल स्रोत वेद-वेदांग हैं तो मुझे इसमें कोई विरोधाभास नहीं दिखायी देता । ज़र्मन दार्शनिक और सुधारवादी कम्युनिस्ट शॉपेन हॉवर ने स्वीकार किया कि उसके चिंतन में उपनिषदों का बहुत अधिक प्रभाव रहा है । ज्ञान के प्रति यह उसकी अपनी cognitive applicability थी । यही बात मैं वैशेषिक दर्शन के लिए भी कहता हूँ । वैशेषिक दर्शन को अच्छी तरह समझने के लिए पहले क़्वाण्टम फ़िज़िक्स को समझ लेना आवश्यक है । हो सकता है कि किसी को लगे कि मैं यह घालमेल क्यों कर रहा हूँ ? वास्तव में हम पिछले लगभग दो हजार साल से जिस परिवेश में रह रहे हैं वह वेद-वेदांग विरोधी रहा है । हमारी शिक्षा भी वेद-केदांगों के प्रतिकूल ही रही है । वेदों को भलीभाँति समझने के लिये न तो परिवेश अनुकूल है, न हमें वैदिक संस्कृत आती है । हम जिस कीचड़ में फँसे हुये हैं उससे बाहर निकलने के लिए घालमेल करना मुझे प्रासंगिक लगता है । अँधेरा रात का हो या किसी गहरी गुफा का ...उसे दूर करने के लिए हमें आदिकाल से केवल प्रकाश की ही आवश्यकता रही है ।   

वेद मानते हैं कि कुछ भी नया नहीं होता, जिसे भी हम नया समझते हैं वह सब पुनरावृत्ति है । जिसे हम पहली बार देखते-सुनते या जानते हैं वह हमारे लिए नया प्रतीत होता है किंतु ऐसा तो हमसे पहले भी सभी के साथ होता रहा है । न कोई घटना नयी होती है, न कोई पदार्थ नया होता और न हम नये होते हैं । सब कुछ पुनरावृत्तियों का हिस्सा है । न राजतंत्र नया है, न लोकतंत्र, न अधिनायकतंत्र और न कम्युनिज़्म ...सभी विचारधाराओं की पुनरावृत्ति होती रहती है । आर्ष आख्यानों में देव, दानव, दैत्य, राक्षस, मनुष्य, गंधर्व, किन्नर आदि के चरित्रों और स्वभावों के बारे में हम पढ़ते-सुनते रहे हैं और अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप उनसे प्रेरित होते रहे हैं ।

कम्युनिज़्म हम भारतीयों के लिए एक विदेशी शब्द है किंतु उसकी अवधारणा न तो नयी है और न विदेशी । कम्युनिज़्म के नाम पर दुनिया भर के कामरेड्स जो कुछ करते रहे हैं उससे यह एक असहिष्णु सम्प्रदाय के रूप में हमारे सामने प्रकट हुआ है जिससे कम्युनिज़्म की मूल अवधारणा दूषित हुयी है जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप एक ऐसा वर्ग खड़ा हो गया जो कम्युनिस्ट्स को असामाजिक-अराजक-उग्र और हिंसक मानने लगा है । मूल कम्युनिज़्म लिंगभेदरहित वर्गविहीन समाज, सत्ता का विकेंद्रीकरण, आत्मशासित जनता, सम्पत्ति का विकेंद्रीकरण और शोषणमुक्त समाज आदि की बात (केवल बात भर) करता है, इसमें यदि सहिष्णुता को और जोड़ दिया जाय तो यह सारी व्यवस्था वैदिक सभ्यता ही हो जाती है । दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं सका ।
भारत की सनातन परम्परा खण्डन-मण्डन (Critic), निरंतर परिमार्जन (Reformation), त्याग (sacrifice), दान (distribution of money and commodities) आदि उत्कृष्ट मानवीय भावों और कर्त्तव्यों से आप्लावित होती रही है । यदि वर्णाश्रम पद्धति और सहिष्णूता के उत्कृष्टगुण को छोड़ दिया जाय तो कामरेड्स भी इन्हीं बातों का बखान करते दिखायी देते हैं । वह बात अलग है कि कलियुग में अच्छे सिद्धांतों का अस्तित्व केवल भाषणों में बखान करने तक ही सीमित रह गया है । कम्युनिस्ट देशों का अमानवीय आचरण किसी से छिपा नहीं है ।

स्पष्टतः क्रिटिक कोई नई चीज नहीं है और न कामरेड्स का उस पर एकाधिकार है । आर्षग्रंथ करणीय और अकरणीय आचरणों के संदेशों से भरे पड़े हैं । कलियुग में शेर की खाल ओढ़ कर चलने की परम्परा प्रचलित हुयी है । महान सिद्धांतों और महापुरुषों का हमने आपस में बँटवारा कर लिया है, किसी को अतिक्रमण करने की अनुमति नहीं है । उपनिषदों पर ज़र्मन दार्शनिकों  का अधिकार है, बाबा साहब आम्बेडकर पर बसपा का, गांधी जी पर कांग्रेस का, राम पर भाजपा का, हरे रंग पर मुसलमानों का, भगवा रंग पर हिंदुओं का, अल्लाह पर इस्लाम का, ब्रह्म पर सनातनियों का ....। हर समुदाय को अपने-अपने हिस्से की चीजों को ही स्तेमाल करने की अनुमति है । हमने धरती-आकाश-पानी सबको बाँट दिया, ग़नीमत है कि हवाओं और चिड़ियों का अभी तक बँटवारा नहीं हुआ है ।

गुरुवार, 14 मई 2020

कठोपनिषद् ...01

नचिकेता और हॉरख़ेइमर...
दुनिया भर के कामरेड्स के दार्शनिक गुरु शोपेन हॉवर (Arthur Schopenhauer) की एक बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि पुराणों और उपनिषदों से उद्भूत प्रेरणा कम्युनिज़्म की मूल अवधारणा को जन्म देती है । अर्थात् वैदिक और वैदिकोत्तर ग्रंथ कम्युनिज़्म के आदिस्रोत हैं ।
ज़र्मन दार्शनिक और फ़्रेंकफ़र्त स्कूल के संस्थापकसदस्य मैक्स हॉरख़ेइमर जब वर्ष1930 में सामाजिक शोध संस्थान के निदेशक बने तो उन्होंने ब्राह्मणों के अनवरत परिमार्जनसिद्धांत के अनुरूप योरोप में क्रिटिक थ्योरी को सुस्थापित करने का प्रयास किया । क्रिटिक का मूल सिद्धांत बालक नचिकेता की उस जिज्ञासा से विकसित होता है जिसके परिणामस्वरूप उसे पिता के कोप का भागी बनना पड़ता है । नचिकेता के समय तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में परिमार्जन और रीफ़ॉर्मेशन की आवश्यकता थी । बालक नचिकेता ने अपने बाल्यकाल में भोगी कुछ घटनाओं से उस सामाजिक संक्रांति काल को पहचान लिया जिसमें तत्कालीन आवश्यकता के अनुसार कुछ सुधार सम्भव हो सके ।  

आज कोरोना विषाणु ने पूरी दुनिया में एक ऐसी संक्रांति को जन्म दिया है जिसके परिणाम पूरे विश्व के लिए रीफ़ॉर्मेटिव और भविष्य में सुखद प्रमाणित होने वाले हैं । ऐसी ही एक संक्रांति ने योरोप में दार्शनिक-सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक एवं औद्योगिक रीफ़ॉर्मेशन्स को आमंत्रित किया था । नचिकेता के प्रसंग में आज मैं उन सबकी चर्चा भी करना चाहूँगा ।

आज मैं वर्ष 1918 में आए influenza pandemic के इतिहास के कुछ पृष्ठ खोलना चाहता हूँ जिसमें पूरे विश्व में लगभग पचास मिलियन लोगों की मृत्यु की सूचना अंकित है । बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चार-पाँच दशकों तक यमराज ने घूम-घूम कर पूरी धरती पर शासन करते हुये करोड़ों लोगों को अकाल मृत्यु का शिकार बनाया । यमराज के एकछत्र शासन का प्रारम्भ होता है प्रथम विश्वयुद्ध के साथ जो 28 जुलाई 1914 से 11 नवम्बर 1918 तक चला । इस युद्ध में लगभग बाइस मिलियन लोगों की मृत्यु हुयी, यह संख्या इनफ़्ल्युंज़ा पैण्डेमिक से होने वाली मौतों की संख्या के आधे से भी कम है । उस समय पूरे योरोप में साम्राज्यवादी और राष्ट्रवादी विचार अपने-अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत थे । योरोपीय देश आपस में युद्ध कर रहे थे, ओट्टोमन साम्राज्य का अंत हो चुका था और शक्ति संतुलन के लिए विश्व भर में महायुद्ध की भूमिकायें निर्मित हो चुकी थीं । यह प्रथम विश्वयुद्ध था जिसे “The war to end all wars” माना गया । किंतु वास्तव में ऐसा कुछ भी हुआ नहीं, युद्ध इसके बाद भी हुये । कुछ ही साल बाद ज़र्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया जो एक और विश्वयुद्ध में बदल गया । यह द्वितीय विश्वयुद्ध था जो 01 सितम्बर 1939 से प्रारम्भ होकर 02 सितम्बर 1945 तक चला । द्वितीय विश्वयुद्ध में सात करोड़ तीस लाख से अधिक लोग यमराज के शिकार हुये । ये सारी मौतें स्वाभाविक नहीं थीं, इसलिए मैं इन्हें इन्ड्यूस्ड मौत कहना चाहता हूँ ।

तत्कालीन वैश्विक उथल-पुथल के बीच प्रतिक्रियावादी विचारधारा के परिणामस्वरूप वर्ष 1923 में ज़र्मनी में फ़्रेंकफ़र्त स्कूल की स्थापना हुयी जहाँ कार्ल मार्क्स, गेलेन, शॉपेन हॉवर आदि दार्शनिकों और सुधारवादियों के विचारों को मूर्तरूप देने का कार्य प्रारम्भ हुआ किंतु कनु सान्याल के नक्सलवाड़ी आंदोलन की तरह यह वैचारिक आंदोलन भी आंतरिक विचारों में उलझने लगा । नक्सलवाड़ी आंदोलन के जनक कनु सान्याल को आत्महत्या कर लेनी पड़ी । योरोप में किसी विचारक ने आत्महत्या नहीं की बल्कि मैक्स हॉरख़ेइमर अपने नवकम्युनिज़्म के साथ फ़्रेन्नकफ़र्त स्कूल के नये सारथी बनकर उभरे ।

नचिकेता के प्रसंग में फ़्रेंकफ़र्त स्कूल और उसकी स्थापना के कारणभूत विश्वयुद्ध आदि की बातें बहुत आवश्यक हैं । इन बातों की प्रासंगिकता कोरोना संक्रमण और पाकिस्तान द्वारा छेड़े गये छद्मयुद्ध की विभीषिका के बीच उत्पन्न रीफ़ोर्मेशन के अवसरों को पहचाने जाने के लिए महत्वपूर्ण है । नचिकेता तत्कालीन “शोषक परम्पराओं का विरोध” करते हैं और “अनवरत परिमार्जन” सिद्धान्त को पुनर्स्थापित करते हैं । मैक्स हॉरख़ेइमर भी रीफ़ॉर्मेशन के लिए क्रिटिक थ्योरी को अपना हथियार बनाते हैं । आजके वैश्विक परिदृश्य में स्पष्ट हो चुकी विभीषिकाओं के बीच रीफ़ॉर्मेशन के अवसरों को पहचानते हुये हमें हमारी सक्रिय भूमिका को निभाने की आवश्यकता है ।  

कठोपनिषद् की प्रथम वल्ली नचिकेता द्वारा दान पर उठाये गये संदेह से प्रारम्भ होती है । वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक ने यज्ञ में अपना सब कुछ दान कर दिया । समाज में सम्पत्ति का फ़्लो बनाए रखने के लिए सुपात्र व्यक्तियों को दान दिए जाने की परम्परा भारत में रही है । सर्वस्व दान की यह परम्परा कम्युनिज़्म की मूल अवधारणा है जिसे आज के खाँटी कम्युनिस्ट भी व्यवहार में नहीं लाना चाहते । उद्दालक के पिता वाजश्रवा (वाज=अन्न, श्रवः=श्रेय) ने अन्नदान के द्वारा यश प्राप्त किया था । दान की इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुये उद्दालक ने भी यज्ञ में अपना सर्वस्वदान करने की इच्छा से अपने पशुधन को भी दान कर दिया ।  

बालक नचिकेता ने देखा कि अशक्त (निरिंद्रियाः) गायों को दान के लिए समूहों में विभक्त किया जा रहा है, वे सभी गायें अब दूध देने लायक नहीं रही थीं (दुग्धदोहा) । नचिकेता को मालूम था कि ऐसी गायों को दान देने से दानकर्ता को दान का पुण्य लाभ नहीं मिलेगा बल्कि ऐसे दानकर्ता को आनंदरहित स्थिति का सामना करना पड़ेगा (अनंदा नाम ते लोकाः तान् स गच्छति ता ददत्) । शास्त्र और व्यवहार में इस विरोधाभास को देखकर नचिकेता ने पिता से पूछ दिया कि वे उसे किस व्यक्ति को दान देंगे ? इसके बाद की कथा आप सबको मालूम है ।
क्रिटिक और रीफ़ॉर्मेशन का ही एक और प्रसंग है जिसमें नचिकेता दैहिक वासनापूर्ति हेतु अपनी माँ को एक युवक द्वारा हाथ पकड़कर ले जाए जाने का विरोध करते हैं । तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में किसी भी पुरुष की यौनाकांक्षाओं की पूर्ति करना हर स्त्री का कर्तव्य माना जाता था, भले ही वह उसकी पत्नी न हो । बाद में आगे चलकर नचिकेता ने विवाह को एक अनिवार्य व्यवस्था के रूप में स्थापित किया । यद्यपि औपनिषदिक आख्यानों से प्रेरित होने वाले पश्चिमी दार्शनिकों ने नचिकेता के इस रीफ़ॉर्मेशन को स्वीकार नहीं किया और समाज से शोषण को समाप्त करने के लिए विवाह और परिवार को समाप्त कर दिए जाने की व्यवस्था को आवश्यक मानने लगे । भारत में उमर ख़ालिद, शेहला और कन्हैया जैसे वामपंथियों द्वारा क्रिटिक के नाम पर केवल विरोध किया जाता है, हर वर्तमान चीज का विरोध ...फिर वह साम्राज्यवाद हो या राष्ट्रवाद या फिर नचिकेता के खाँटी साम्यवादी विचार । भारत में हर साल आयोजित किया जाने वाला  “किस ऑफ़ लव” आंदोलन एक ऐसे क्रिटिक का प्रतीक है जिसमें निगेटिविज़्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ।