डुमराँव
के दीनू जादो को नोयडा से नौ सौ किलोमीटर दूर अपने गाँव जाना है । ट्रेन बंद है, बसें
बंद हैं । मज़दूरों को ले जाने के लिए जो ट्रेन और बसें हैं भी वो शायद उसके लिए
नहीं हैं, किनके लिए हैं... पता नहीं ।
रोटी की
तलाश में डुमराँव छोड़कर नोयड़ा आए दीनू ने कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था कि एक
दिन उसे रोटी की तलाश में वापस डुमराँव की ही राह पकड़नी होगी, नोयडा
की चमक-धमक से दूर वापस डुमराँव । दीनू ही क्या किसी ने भी नहीं सोचा था कि वायरस
की ताकत के डर से भारत भर की रेल तक चलनी बंद हो जायेगी । लोग आपस में बात करते –
“कमाल का ताक़तवर भैरस है कोरोनवा, सुने हैं अँखिया से तऽ लोहकवे
नहीं करता है, आ चुप्पे से गला में घुस के मार देता है,
साँसो नहीं ले पाता है आदमी, टिविया मंऽ देखे
हैं कइसे टप्प से गिर के मर रहा है लो । छत्तीसगढ़ में नक्सली रेल बंद कर देता है,
दू-चार दिन तक गड़िया नहीं चलता है, फेर चलने
लगता है । लेकिन ई कोरोनवा त नक्सलियो से बड़का ताक़तवर है, गड़िया
बंद हुआ त बंदए हो गया, बुझाता है अब कब्बो चलवे नहीं
करेगा”।
बहुत से
लोग नोयडा से पैदल ही चल पड़े हैं ...किसी को बिहार जाना है, किसी
को बंगाल तो किसी को यूपी । दीनू ने बुज़ुर्गों से सुना है कि सौ साल पहले तो लोग लोटा-डोर
और सत्तू की एक पोटली के सहारे ही पैदल चल कर मीलों की मंज़िल पूरी कर लिया करते थे
। इस बात को याद करके दीनू के ज़िस्म में ताक़त आ जाती है । अब और नहीं, नोयडा का दाना-पानी अब ख़त्म, कल जो जत्था निकलेगा
उसी के साथ दीनू को भी चल देना होगा ।
सुना है
कि सोशल डिस्टेंसिंग बनाकर रहना होगा । क्या होता है सोशल डिस्टेंसिंग ? दो-चार
लोगों से पूछने के बाद ही दीनू को पता लग गया कि दूर-दूर रहना है और किसी को छूना
नहीं है ...यानी बाबा के ज़माने में जैसे छुआछूत हुआ करती थी ...कुछ-कुछ वैसी ही
होती है सोशल डिस्टेंसिंग । धत्त तेरे की ! खोदा पहाड़ निकली चुहिया । सीधे-सीधे
क्यों नहीं कहते कि छुआ तो छूत लग जायेगी इसलिए न छुआ न छूत ।
सोशल
डिस्टेंसिंग एक ऐसा कॉन्सेप्ट है जो हड़बड़ाहट में सोशियो-पोलीटिकल जेल से निकलकर सबके
सिर चढ़कर बोलने लगा गोया किसी ग़ुलाम को सल्तनत सौंप दी गयी हो । बाद में होश आया तो
पता लगा कि इससे तो ग़लत संदेश जा रहा है । सुधार किया गया कि करो वही जो कर रहे हो
लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग के स्थान पर फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग कहो । सुधार होते-होते देर
हो गई, ज़ुबान पर चढ़े शब्द इतनी ज़ल्दी कहीं उतरते हैं भला!
नोयडा से
दीनू के जत्थे को निकले आज दूसरा दिन है । सोशल डिस्टेंसिंग और भीड़ की आपस में कभी
नहीं बनती । दीनू जोर से बोलता है – “देहियाँ ले देहियाँ छुआता हो मरदे, तना दुरिया
बना के चलऽ न त कोरोनवा लागि जाई हो” । दीनू की चेतावनी भीड़ में गुम हो जाती है ।
दीनू भीड़ से अपने ज़िस्म को बचाने की असम्भव कोशिश करता है फिर खीझ कर कहता है – “बऽ
मरदे! तोहरए लो खातिर बिहार के बदनामी होता, डिस्टेंसवा बना
के चले में कवन मोस्किल बा” ?
बीच में
पता नहीं क्यों दिल्ली वाले जत्थे के कुछ लोग सड़क छोड़कर रेल की पटरी-पटरी पकड़कर
चलने लगे । दीनू ने अपना जत्था नहीं छोड़ा, उसके जत्थे में शामिल है
बिहियाँ के बाबू सिंह का परिवार, दिलदारनगर के शरीफ़ुद्दीन का
परिवार और भोजपुर के चिरईं चौबे । भीड़ बेशुमार है, भीड़ में न
जाने कितने जत्थे हैं, हर जत्थे में ज़ोश है ...आपन-आपन डेरा
जाय के ज़ोश ।
गठरी-मोटरी
उठाये सड़क पर पैदल चलते लोगों का जनसमूह, रोते हुये दुधमुहों को चुप
करवाती माएँ, थक कर ठुनठुनाते हुए बच्चे - “माई केतना दुरिया
बाचल बा, माई भूख लागल बा, चिनिया बदाम
कीन द न माई!” माएँ झूठ नहीं बोलना चाहतीं फिर भी वे अपने नादान बच्चों से झूठ
बोलती हैं – “नघिचइले बा बबुआ, आगे कवनो दुकान मिली त कीन
देब जा चिनिया बदाम”।
माओं को
पता है रास्ते में कहीं कोई दुकान नहीं मिलेगी जहाँ से चिनिया बदाम ख़रीदा जा सके ।
भीड़ में
अचानक भगदड़ मच गयी । आगे बढ़ते लोग पीछे पलटने लगे, कुछ इधर-उधर भागने
लगे, चीख-पुकार मच गई । कहीं से आवाज आयी – “भागा हो लो,
आगे लाठीचार्ज हो रऽहल बा” । दूसरी आवाज़ आती है – “लाठीचार्ज ना...
गोलिया चऽलता, सड़क छोड़ खेत-खेत भागऽ, बाप
रे बाप कऽइसन काल आ गऽइल बा, गलती कोरोना के आ सजा गरीब
गुरबा के, सतियानास हो पोलिस के”।
फ़िज़िकल
डिस्टेंस का पालन न करना और लॉकडाउन का उल्लंघन कर सड़क पर निकलना कानूनन अपराध है
। पत्थरबाजी, मारपीट, दादा टाइप नेताओं की डाँट और थूक की शिकार हो चुकी पुलिस अब भीड़ को देखते ही खीझ
उठती है । पुलिस ने भीड़ को आगे जाने से रोका तो भीड़ उग्र हो गयी, पुलिस को देखकर बच्चे रोने लगे । किसी ने पुलिस की तरफ़ ईंट का एक टुकड़ा
फेका तो पुलिस को लाठी भाँजने और अपनी खीझ निकालने का मौका मिल गया ।
थोड़ी ही
देर में सड़क खाली हो गयी । खेतों में नीलगायों के झुण्ड ने बड़े अचरज से सब कुछ
देखा । देखा कि इंसान बदहवास से इधर-उधर भाग रहे हैं, गोया
कोई शेर आ गया हो । कुछ इंसान खेतों की ओर भागे, नीलगायों ने
इंसानों को अपनी ओर आते देखा तो वे भी भाग खड़ी हुयीं ।
दीनू के
सिर में पुलिस की लाठी से और घुटने में सड़क पर गिरने से चोट लगी । गठरी-मोटरी कहाँ
गिर गयी पता नहीं । गन्ने के खेत में पड़े-पड़े दीनू ने सोचा कि अब दिन में किसी खेत
में छिप कर आराम करेगा और रात में ही आगे बढ़ेगा ।
भूख और
प्यास लगने के बाद भी दीनू का मन गन्ना चूसने का नहीं हुआ । सिर से बहता लहू अब तक
सूख चुका था, चोट के दर्द से ज़्यादा फूटी किस्मत का दर्द असहनीय था । खेत में छिपे दीनू
को अपने जत्थे के लोगों का ख़्याल आया । ओफ़्फ़! अब किसे कहाँ खोजूँ ! तभी खेत में
पत्तियों की सरसराहट से दीनू चौकन्ना हो गया, भागने के लिए शरीर
में एक बार फिर ताक़त आ गयी । कहीं कोई लकड़बग्घा तो नहीं ...क्या पता कोई पुलिस
वाला ही पीछा करते-करते आ गया हो पकड़ने के लिए । दम साधे दीनू ने सरसराहट के
सम्भावित कारणों का विश्लेषण करना शुरू कर दिया । कहीं उसके जत्थे का ही तो नहीं
कोई और छिपा है । ऐसा है तो अच्छा है । मुश्किल में एक-दूसरे का सहारा तो बनेंगे,
लेकिन पहले पता तो चले तो कि यह सरसराहट है किसकी !
दीनू ने
खेत में दो लोगों को झुक कर धीरे-धीरे आगे बढ़ते देखा, कुछ
और स्पष्ट होने पर संतोष हुआ कि कोई पुलिस वाला नहीं बल्कि उसके ही जत्थे के लोग
हैं – चिरईं चौबे और शरीफ़ुद्दीन की पोती रुकइया बानो । दीनू ने हौले से आवाज़ दी –
“चाचा”! और फिर आकर उनसे लिपट कर रोने लगा – “हमार कवन गुनाह बा चाचा, पैदल चल के आपन डेरा जातनी, चोर-उचक्का नियन हमरा के
काहें मार मरली ह पुलिस?”
बाइस
साल के दीनू जादो के किसी भी प्रश्न का उत्तर चिरईं चौबे तो क्या भारत में किसी भी
विद्वान के पास नहीं था । चौबे चाचा कुछ नहीं बोले, विवशता और अपमान में उनकी
आँखों से अविरल आँसू बहने लगे । रुकइया बानो ने अपने सामने दो मर्दों को रोते देखा
तो वह भी सिसक उठी । दीनू और चौबे चाचा को चोट से अधिक अपमान की पीड़ा थी जबकि
मातृ-पितृ विहीन चौदह साल की रुकइया को अपने दादा और दादी के बिछड़ने की पीड़ा थी । दादा-दादी
भाग नहीं सके, मारपीट के बाद पुलिस उन्हें अपने साथ ले गयी
थी । दादा-दादी को पिटते देख कर रुकइया चीखती रही, चौबे चाचा
किसी तरह उसे घसीटते हुए भागने में सफल हो गये थे ।
भारत की
रीढ़ माने जाने वाले मज़दूर और किसान मुश्किल में हैं । वे पहले से ही रोजगार के ऑस्टियोफ़ाइट्स
से पीड़ित थे और अब उनकी रीढ़ फ़्रेक्चर्ड हो गयी है । आवागमन के साधन बहुत कम हैं, जाने
वाले मज़दूर बहुत अधिक हैं, उनकी संख्या का अनुमान किसी को
नहीं है । दीनू को इस बात का इल्म है कि सोशल डिस्टेंसिंग की ऐसीतैसी हो रही है । लेकिन
क्या सरकार उन्हें अपने घर जाने के लिए ट्रेन नहीं उपलब्ध करवा सकती ...इस हिदायत
के साथ कि यदि वे संक्रमित होते हैं तो इसके लिए वे स्वयं ज़िम्मेदार होंगे । दीनू
के पिता का ऑपरेशन हुआ था तो डॉक्टर ने ऐसे ही एक कागज़ पर पहले दस्तख़त करवा लिये
थे ।
चौबे
चाचा ने दीनू और रुकइया के सिर पर अपने हाथ रखे फिर दोनों को बच्चों की तरह अपने
पेट से चिपका लिया, बोले – “काल गति कोई नहीं जानता, बाहर पता नहीं क्या
हो रहा हो, शाम हो गयी है । सालों ने पूरी ताकत लगा के मारा
है, दर्द से आज तो चलना मुश्किल है । आज की रात हमें गन्ने
के खेत में ही काटनी होगी, चोरों की तरह । सुबह सोचेंगे कि
क्या किया जाय” । चौबे की आवाज़ में अपमान का दर्द साफ झलक रहा था ।
रुकइया
फिर सिसकने लगी तो दीनू ने सांत्वना दी – “ना रे बबुनी! रो झन । कइसनो करके तहरा
के दिलदार नगर चहुँपा के दम लेब हम ।