वेदानुराग
हो या वेदविद्वेष कुछ भी बलात् उत्पन्न नहीं किया जा सकता । आज कठोपनिषद् पढ़ते समय
याद हो आया कि कुछ समूह वैदिकादि आर्ष ग्रंथों को मनुवाद रचित षड्यंत्र मानते हैं
। मुझे आश्चर्य है कि वैदिक ग्रंथों के अध्ययन-मनन के बाद कोई समूह इतना वेदविद्वेषी
कैसे हो सकता है जबकि वैदिक संदेश उनके हित में कहीं अधिक हैं । किंतु यदि अध्ययन किए
बिना ही वे इतने बड़े निश्चय तक पहुँचे हैं तो उन्हें आर्षग्रंथों का अध्ययन कर लेना
चाइए ।
अपनी वाम
विचारधारा को परिमार्जित करने के लिए वामपंथियों को भी वेदाध्ययन करना चाहिए, कम से
कम वामपंथियों के गुरु शोपेन हॉर का तो यही मानना है । शोपेन हॉर की प्रस्तावित सूची
में मैं मनुस्मृति को भी जोड़ना चाहूँगा, यह सब उनके लिए प्रस्तावित
है जो वेद और मनु के प्रति घोर विद्वेषभाव रखने वाले हैं । मेरा विश्वास है कि अध्ययन
के बाद वे लोग भी इन ग्रंथों के प्रशंसक तो हो ही जायेंगे, बहुत
अच्छे वामपंथी भी हो जायेंगे ।
वैदिक
ग्रंथ तो परम्परा से समृद्ध होते रहे ज्ञान के परिणाम हैं । ज्ञान को एक झटके में ख़ारिज़
नहीं किया जा सकता । जानने योग्य ज्ञान को विद्या कहते हैं, वेद विद्या
के आदिभण्डार हैं । सूचना को हम ज्ञान नहीं कह सकते, ज्ञान के
साथ सर्व कल्याणकारी भाव भी जुड़ा हुआ है । बम बनाने या भ्रष्टाचरण में निपुणता जानकारी
है ज्ञान नहीं और इसीलिए वह सर्वकल्याणकारी नहीं है । कृषि आदि की जानकारी सर्वकल्याणकारी
है जबकि तत्वज्ञान आत्मकल्याणकारी ।
उपनिषद्
पढ़ते समय कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए –
1- प्राच्य
साहित्य तत्कालीन समाज की अच्छाइयों-बुराइयों और विसंगतियों के चित्रण से मुक्त नहीं
है । इसका अर्थ यह नहीं है कि वेद और उपनिषद् आदि बुराइयों और विसंगतियों का उपदेश
देते हैं बल्कि यह है कि बुराइयों और विसंगतियों से जूझते हुये जीवन को किस तरह उत्कृष्ट
बनाया जाय । चिकित्सक के लिए आवश्यक है कि उसे शरीर की नॉर्मल और एबनॉर्मल दोनों ही
स्थितियों का अच्छी तरह ज्ञान हो । किसी भी एक स्थिति का ज्ञान होने से न तो निदान
सम्भव है और न चिकित्सा । भारत का प्राच्य साहित्य एक चिकित्सक और उपदेशक की भूमिका
में है जिसका उद्देश्य समाज को स्वस्थ बनाए रखना तो है ही रुग्ण होने पर उसकी चिकित्सा
करना भी है ।
2- चतुर्युगों
की अवधारणा तत्कालीन समाज के गुणों-अवगुणों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व को ज्ञापित करती
है, यहाँ कोई शार्प डिमार्केशन नहीं है ।
3- हर युग के
चार प्रमुख गुणात्मक स्तम्भ होते हैं, जिनका निरंतर क्षरण होता रहता
है । निरंतर क्षरित होते रहने वाले गुणों-अवगुणों का स्थान दूसरे गुणों-अवगुणों से
पूरित होता रहता है । जब किसी युग के चारों गुणात्मक स्तम्भों का पूरी तरह क्षरण हो
जाता है तब एक नया युग अपने पूर्ण बालस्वरूप के साथ प्रकट होता है । इसका अर्थ यह हुआ
कि सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि युगों
के गुण आनुपातिक प्रवर्द्धता के साथ सभी युगों में वर्तमान रहते हैं ।
4- चतुर्युगीन
अवधारणा प्रकृति की एक जटिल व्यवस्था को समझने में सहयोग करती है, ठीक उस
बॉडी-फ़्ल्युड की तरह जिसमें सीरम-प्लाज़्मा-ब्लडसेल्स और माइक्रोन्यूट्रींट्स आदि निरंतर
परिवर्तनशील स्थिति में होते हैं । जब तक हम बॉडी फ़्ल्युड के कण्टेन का एक निश्चित्
थ्रेश-होल्ड तक सम्मान करते हैं, तब तक हम स्वस्थ रहते हैं,
थ्रेश-होल्ड का अपमान एक ऐसी पैथोलॉज़िकल प्रोसेज़ को उत्पन्न करता है
जिससे हम रुग्ण हो जाते हैं । शरीर की नॉर्मल फ़िज़ियोलॉज़िकल प्रोसेज़ हो या पैथोलॉज़िकल
प्रोसेज़, सब कुछ आनुपातिक होती है ।
5- गुणांतर
क्षरण प्रकृति की अपरिहार्य व्यवस्था है, जन्म लेने
के क्षण से ही हम मृत्यु की ओर चल पड़ते हैं, यानी जन्म की यात्रा
मृत्यु की ओर ही होती है, सृजन की यात्रा क्षरण की ओर ही होती
है । यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही एक जटिल आनुपातिक व्यवस्था का परिणाम है ।
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