शुक्रवार, 15 मई 2020

वेद-वेदांगों की उपादेयता आज के परिप्रेक्ष्य में...


कठोपनिषद् पर किसी चिकित्सक को चिंतन करने या कुछ लिखने की क्या आवश्यकता ? यह एक स्वाभाविक सा प्रश्न उठता है । वेद-वेदांग कभी भी मेरे पाठ्यक्रम के भाग नहीं रहे और न मुझमें इतनी योग्यता है कि उन्हें उसी रूप में समझ सकूँ जिस रूप में उन्हें प्रस्तुत किया गया है । वेद सार्वकालिक हैं, आज के परिप्रेक्ष्य में वेद-वेदांगों की उपादेयता को हमें पहचानना होगा । हमें अपनी सभी समस्याओं के लिए वेद-वेदांगों के समीप जाने की आवश्यकता है अन्यथा फिर इन आर्ष ग्रंथों की उपयोगिता ही क्या रह जायेगी ? नचिकेता की कथा मेरे लिए केवल कथा मात्र नहीं है । वहाँ घटनाएँ हैं, चरित्र है, चिंतन है, खण्डन-मण्डन है…. रूढ़ परम्परा के परिमार्जन का संदेश है और है सोशल रीफ़ॉर्मेशन की प्रेरणा । कथा के तत्व में प्रवेश किए बिना कोई भी कथा व्यर्थ लगती है मुझे । 

पढ़ायी के दिनों में साथीछात्र वेद-वेदांग और आधुनिक विज्ञान को परस्पर विरोधी दृष्टि से देखा करते थे । जब मैं कहता कि कोई भी विज्ञान वेद से परे नहीं है तब साथी छात्र बहुत बुरा मान जाते और उन्हें लगता कि मैं वेदों को विकृत कर रहा हूँ । फिर एक ऐसा दौर आया जब आधुनिक विज्ञान की सभी उपलब्धियों का स्रोत वेद-वेदांग को बताये जाने की प्रतिस्पर्धा होने लगी । वायुयान, दूरदर्शन, एटम बम, बैटरी आदि के बारे में कहा जाने लगा कि यह तो हमारे वेदों में पहले से ही वर्णित था विदेशियों ने वेदों से सारा ज्ञान चुराकर ये चीजें तैयार कर डालीं । अर्थात् वेद-वेदांग को देखने-समझने की भारतीय दृष्टि ये चीजें नहीं बना सकी किंतु विदेशियों की दृष्टि ने सब कुछ बना डाला । मुझे लगता है कि cognitive applicability का यह एक बहुत अच्छा उदाहरण है ।
वेद सार्वकालिक हैं, हर युग में सत्य हैं, हर युग के अनुरूप तत्कालीन समस्यायों के समाधान हैं । जब मैं कहता हूँ कि कम्युनिज़्म की मौलिक अवधारणा के मूल स्रोत वेद-वेदांग हैं तो मुझे इसमें कोई विरोधाभास नहीं दिखायी देता । ज़र्मन दार्शनिक और सुधारवादी कम्युनिस्ट शॉपेन हॉवर ने स्वीकार किया कि उसके चिंतन में उपनिषदों का बहुत अधिक प्रभाव रहा है । ज्ञान के प्रति यह उसकी अपनी cognitive applicability थी । यही बात मैं वैशेषिक दर्शन के लिए भी कहता हूँ । वैशेषिक दर्शन को अच्छी तरह समझने के लिए पहले क़्वाण्टम फ़िज़िक्स को समझ लेना आवश्यक है । हो सकता है कि किसी को लगे कि मैं यह घालमेल क्यों कर रहा हूँ ? वास्तव में हम पिछले लगभग दो हजार साल से जिस परिवेश में रह रहे हैं वह वेद-वेदांग विरोधी रहा है । हमारी शिक्षा भी वेद-केदांगों के प्रतिकूल ही रही है । वेदों को भलीभाँति समझने के लिये न तो परिवेश अनुकूल है, न हमें वैदिक संस्कृत आती है । हम जिस कीचड़ में फँसे हुये हैं उससे बाहर निकलने के लिए घालमेल करना मुझे प्रासंगिक लगता है । अँधेरा रात का हो या किसी गहरी गुफा का ...उसे दूर करने के लिए हमें आदिकाल से केवल प्रकाश की ही आवश्यकता रही है ।   

वेद मानते हैं कि कुछ भी नया नहीं होता, जिसे भी हम नया समझते हैं वह सब पुनरावृत्ति है । जिसे हम पहली बार देखते-सुनते या जानते हैं वह हमारे लिए नया प्रतीत होता है किंतु ऐसा तो हमसे पहले भी सभी के साथ होता रहा है । न कोई घटना नयी होती है, न कोई पदार्थ नया होता और न हम नये होते हैं । सब कुछ पुनरावृत्तियों का हिस्सा है । न राजतंत्र नया है, न लोकतंत्र, न अधिनायकतंत्र और न कम्युनिज़्म ...सभी विचारधाराओं की पुनरावृत्ति होती रहती है । आर्ष आख्यानों में देव, दानव, दैत्य, राक्षस, मनुष्य, गंधर्व, किन्नर आदि के चरित्रों और स्वभावों के बारे में हम पढ़ते-सुनते रहे हैं और अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप उनसे प्रेरित होते रहे हैं ।

कम्युनिज़्म हम भारतीयों के लिए एक विदेशी शब्द है किंतु उसकी अवधारणा न तो नयी है और न विदेशी । कम्युनिज़्म के नाम पर दुनिया भर के कामरेड्स जो कुछ करते रहे हैं उससे यह एक असहिष्णु सम्प्रदाय के रूप में हमारे सामने प्रकट हुआ है जिससे कम्युनिज़्म की मूल अवधारणा दूषित हुयी है जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप एक ऐसा वर्ग खड़ा हो गया जो कम्युनिस्ट्स को असामाजिक-अराजक-उग्र और हिंसक मानने लगा है । मूल कम्युनिज़्म लिंगभेदरहित वर्गविहीन समाज, सत्ता का विकेंद्रीकरण, आत्मशासित जनता, सम्पत्ति का विकेंद्रीकरण और शोषणमुक्त समाज आदि की बात (केवल बात भर) करता है, इसमें यदि सहिष्णुता को और जोड़ दिया जाय तो यह सारी व्यवस्था वैदिक सभ्यता ही हो जाती है । दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं सका ।
भारत की सनातन परम्परा खण्डन-मण्डन (Critic), निरंतर परिमार्जन (Reformation), त्याग (sacrifice), दान (distribution of money and commodities) आदि उत्कृष्ट मानवीय भावों और कर्त्तव्यों से आप्लावित होती रही है । यदि वर्णाश्रम पद्धति और सहिष्णूता के उत्कृष्टगुण को छोड़ दिया जाय तो कामरेड्स भी इन्हीं बातों का बखान करते दिखायी देते हैं । वह बात अलग है कि कलियुग में अच्छे सिद्धांतों का अस्तित्व केवल भाषणों में बखान करने तक ही सीमित रह गया है । कम्युनिस्ट देशों का अमानवीय आचरण किसी से छिपा नहीं है ।

स्पष्टतः क्रिटिक कोई नई चीज नहीं है और न कामरेड्स का उस पर एकाधिकार है । आर्षग्रंथ करणीय और अकरणीय आचरणों के संदेशों से भरे पड़े हैं । कलियुग में शेर की खाल ओढ़ कर चलने की परम्परा प्रचलित हुयी है । महान सिद्धांतों और महापुरुषों का हमने आपस में बँटवारा कर लिया है, किसी को अतिक्रमण करने की अनुमति नहीं है । उपनिषदों पर ज़र्मन दार्शनिकों  का अधिकार है, बाबा साहब आम्बेडकर पर बसपा का, गांधी जी पर कांग्रेस का, राम पर भाजपा का, हरे रंग पर मुसलमानों का, भगवा रंग पर हिंदुओं का, अल्लाह पर इस्लाम का, ब्रह्म पर सनातनियों का ....। हर समुदाय को अपने-अपने हिस्से की चीजों को ही स्तेमाल करने की अनुमति है । हमने धरती-आकाश-पानी सबको बाँट दिया, ग़नीमत है कि हवाओं और चिड़ियों का अभी तक बँटवारा नहीं हुआ है ।

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