प्रकृति और उसके
अंग-उपांग मनुष्य के लिए सदा से गुरु की भूमिका निभाते रहे हैं । हमने अभी तक जो
भी सीखा और त्रुटियों में सुधार किया उस सबमें प्रकृति की भूमिका सर्वोपरि रही है
। कोरोना भी प्रकृति का एक उपांग है जिससे आज हम सब इतने भयभीत हैं । वास्तव में शनि
ग्रह की तरह कोरोना भी हमें हमारे कर्मों का यथोचित परिणाम देने के मामले में बहुत
ही कठोर सिद्ध हुआ है । कुछ उपलब्धियाँ क्या मिल गयीं हमने उनके अहंकार में डूबकर अपना
बहुत कुछ खो दिया । प्रकृति हमें चेतावनी देती है, सुधरने का अवसर देती है और फिर भी हम न मानें तो हमें कठोर दण्ड देती है
।
पैसा और पद के
आकर्षण की दीवानगी में हम पूर्वजों के संचित ज्ञान को विस्मृत करते रहे और अपने
अर्जित ज्ञान की उपेक्षा करते रहे । परिणामतः हमारी जीवनशैली पूरी तरह अप्राकृतिक
और अवैज्ञानिक होती चली गयी । हम वह सब करते रहे जो वर्ज्य और हमारे स्वास्थ्य के
लिए घातक है ।
कोरोना संक्रमण
से पहले तक हम किसी की नहीं सुनते थे, संक्रमण
काल के प्रारम्भिक महीनों में भी नहीं सुनते थे किंतु मृत्यु के तांडव ने हमें बाध्य
कर दिया कि हम सुनें भी, सोचें भी और जीवनशैली को बदलें भी ।
अभी तक हमने फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग के बार में ही सोचा है वह भी पक्षपातपूर्ण ढंग से,
लेकिन अब हमें जंकफ़ूड और खाने में प्रयुक्त होने वाले अखाद्य तेलों
और रंगों के बारे में भी गम्भीरता से सोचना होगा । आप पूछ सकते हैं कि भला कोरोना
से इसका क्या सम्बंध ?
कोरोना ने जिन
लोगों को क्षति पहुँचाई है उनमें मुख्यरूप से वे लोग सम्मिलित हैं जिनकी
रोगप्रतिरोध क्षमता कम है या जो पहले से टीवी या फेफड़ों के अन्य इन्फ़ेक्शन, डायबिटीज, हृदय रोग, मोटापा और लिवर डिसऑर्डर जैसी गम्भीर व्याधियों से पीड़ित रहे हैं ।
स्पष्ट है कि कोरोना ने तो एक दण्डनायक की तरह सामने आकर हमारी विकृत हो चुकी
जीवनशैली का हमें दण्ड देना प्रारम्भ किया है । मैं बारबार कहूँगा कि कोरोना ने तो
उन अवसरों का लाभ उठाया है जो हमने उसे जाने-अनजाने उपलब्ध करवा दिये हैं ।
भारत दुनिया में
डायबिटीज, हृदय रोग और मुँह के कैंसर के मामले में
अग्रणी देश की भूमिका में है । रिफ़ाइण्ड तेल, जंकफ़ूड,
इंजेक्शन वाला दूध और सब्जियाँ, जेनेटिकली
मोडीफ़ाइड अनाज, कपूरी तमाख़ू और गुटखा जैसी अखाद्य चीजों ने
हमारी इच्छाओं और आवश्यकताओं पर अपना अधिकार कर लिया है । वैज्ञानिक उपलब्धियों के
मूर्खतापूर्ण दुरुपयोग ने सब कुछ बदल कर रख दिया है । हमने हवा, पानी, मिट्टी, दूध, और खाद्य-पेय पदार्थों को विषाक्त कर दिया है, इस सबके
बाद भी हमें कोरोना या इसी तरह के किसी अन्य विषाणु या जीवाणु से यह उम्मीद क्यों
करनी चाहिये कि वह हमें अपार्चुनिस्टिक इनफ़ेक्शन का शिकार नहीं बनायेगा जबकि हमने ख़ुद
ही उसे सारी सुविधाएं उपलब्ध करवा दी हैं और उसे आमंत्रणपत्र भी भेज दिया है!
आवश्यक हो गया है
मेडिकल क्रिटिक भी...
यह क्रिटिक का
युग है… तो फ़्रीडम ऑफ़ एक्स्प्रेशन का लाभ उठाते हुये
हमें दर्शन, अध्यात्म, राजनीति और सांस्कृतिक
मूल्यों पर तीर चलाने के साथ-साथ अपनी जीवनशैली और मेडिकल साइंस को भी क्रिटिक के
निशाने पर रखना चाहिये । ध्यान रहे, विज्ञान के लिए क्रिटिक अपरिहार्य
है, उसके बिना विज्ञान की कोई गति सम्भव नहीं अन्यथा फिर वह एक
रूढ़ि मात्र हो कर रह जायेगा ।
पिछले आठ महीनों
से लगभग हर दिन कोरोना के सम्बंध में रंग बदलती मेडिकल अवधारणाओं (और तदनुरूप फ़तवाओं)
ने वैज्ञानिक चिंतन की पद्धतियों और कार्यप्रणालियों का मज़ाक बना कर रख दिया है । ताजा
फ़तवा यह है कि यद्यपि कोरोना का सोशल ट्रांसमिशन प्राम्भ हो चुका है किंतु बच्चों को
फ़ेस्क मास्क की आवश्यकता नहीं है । यद्यपि कोरोना दिन-ब-दिन गम्भीर होता जा रहा है
फिर भी शादी-बारातों में मेहमानों की संख्या पर से प्रतिबंध हटा लिया गया है । यद्यपि
कोरोना दो मीटर से अधिक दूर तक भी पहुँच कर संक्रमण फैला सकता है तथापि लॉक-डाउन में
और छूट देने पर विचार किया जा रहा है । वर्ष 2021 में एण्टी कोरोना वैक्सीन आने की
सम्भावना है यद्यपि इसकी सफलता के बार में अभी पूरी तरह से कुछ कहा नहीं जा सकता ।
यद्यपि कोरोना की कोई स्पेसिफ़िक दवाई उपलब्ध नहीं है फिर भी हम रोगियों के इलाज़ में
लाखों रुपये वसूल कर रहे हैं ।
ताले और चाबी की
तरह कोई वैक्सीन किसी ख़ास किस्म के वायरस या बैक्टीरिया के लिए ही उपयोगी होता है, अतः इस बात की कोई गारण्टी नहीं कि जब तक एण्टी कोरोना वैक्सीन
आम आदमी के लिए उपलब्ध होगी तब तक कोरोना वायरस के स्ट्रेन में कोई परिवर्तन नहीं हो
जायेगा । मैंने अपने पूरे जीवन में मेडिकल साइंस को इतना विरोधाभासी और अनिश्चितताओं
से भरा हुआ इससे पहले कभी नहीं पाया ।
अब यह आम आदमी को
तय करना है कि उसे अपनी जीवनशैली में सुधार करना है या एण्टी कोरोना वैक्सीन और स्पेसिफ़िक
दवाइयों के आने की प्रतीक्षा करनी है ।
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