यदि हमने
आश्वासनों पर भरोसा किया होता तो अब तक दुनिया के कम से कम पाँच देश – चीन, इज़्रेल, अमेरिका, रूस
और भारत कोरोना की वैक्सीन मार्केट में परोस चुके होते । तो क्या अब वैज्ञानिक भी
आश्वासन देने लगे हैं ?
सार्स समूह के
सदस्य कोरोना का वर्तमान स्ट्रेन अभी तक अपनी विश्वविजय यात्रा पर अजेय आगे बढ़ता
जा रहा है । हमारे सारे किले उसे देखते ही ढहने लगते हैं ....क्योंकि हमारी रणनीति
पूरी तरह दोषपूर्ण और अप्राकृतिक है । ध्यान रहे ...जो अप्राकृतिक है वह
अवैज्ञानिक भी है ।
...तो क्या अब
समय नहीं आ गया है कि हमें अपनी रिसर्च मेथॉडोलॉज़ी और लक्ष्यों पर पुनः चिंतन करना
चाहिये?
कोरोना वैक्सीन
की राह में खड़ी समस्याएँ –
1-
अन्य RNA पोलीमरेज़ेस की तरह कोरोना वायरस के मामले में भी प्रोटीन प्रूफ़रीडिंग
की क्षमता नहीं होती जिसके कारण इसकी म्यूटेशन दर यानी रूप बदलने की क्षमता बहुत
अधिक होती है । इसका यही गुण वैक्सीन की
सफलता पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है ।
2-
कोरोना वायरस “पॉज़िटिव
सेंस सिंगल स्ट्रेण्ड” यानी
चौथे समूह का आर.एन.ए. वायरस है जो स्वभाव से ही बहुत अधिक संक्रामक होता है ।
इसका ज़ेनोम साइज़ भी 26 से 32 किलोबेसेज़ का है जो इस समूह में सबसे अधिक है ।
3-
यद्यपि पॉज़िटिव सेंस
आर.एन.ए. वायरस बहुत अधिक संक्रामक होते हैं किंतु इसी कारण से इनका आर.एन.ए.
वैक्सीन बनाने के लिए कहीं अधिक सरल है, तो भी
अमेरिका की MODERNA लैब पिछले कई दशकों से RNA पर ही काम कर रही है और आज तक उसे एक बार भी सफलता नहीं मिल सकी है ।
किस्मत अपने-अपने कोटे की...
कोरोना वायरस का एक अद्भुत गुण यह भी है कि यह भिन्न-भिन्न
प्राणियों के प्रति भिन्न-भिन्न व्यवहार प्रदर्शित करता है । मनुष्यों के प्रति भी
इसके व्यवहार में बड़ी भिन्नता देखी जा रही है ।
मनुष्यों में
अपने शिकार के पहले से बीमार फेफड़ों के प्रति इस वायरस का व्यवहार कहीं अधिक क्रूर
और घातक है जबकि स्वस्थ व्यक्तियों के प्रति इसका व्यवहार अपेक्षाकृत रिस्पेक्टिव और
रस्मी है जिसका स्पष्ट उदाहरण कोरोना संक्रमितों के एसिम्प्टोमैटिक केसेज़ में
देखने को मिल रहा है ।
कस्तूरी कुण्डल
बसै मृग़ ढूँढय वन माहिं...
हम सब कोरोना के
पीछे पड़ गये हैं जबकि हमें स्वयं के पीछे पड़ना चाहिए था । यदि हम अपना सारा ध्यान
छलिया और महादुष्ट स्वभाव वाले चीन और पाकिस्तान की प्रकृति को बदलने की ओर केंद्रित
कर देंगे तो हमारी अन्य रचनात्मक गतिविधियाँ और विकास कार्य बाधित हो जायेंगे ।
किसी फ़ॉरेन इनफ़िल्ट्रेशन से बचने के लिए हमें हमारे ही बीच के गद्दारों से निपटना
होगा और अपने सुरक्षा तंत्र को सुदृढ़ करना होगा । कभी-कभी हमारे शरीर में भी कुछ
कोशिकायें गद्दार की तरह काम करने लगती हैं । वैज्ञानिकों को कोरोना शिकार के
एसिम्प्टोमैटिक केसेज़ पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये । ये वे दीपक हैं जो
अँधेरे में रोशनी दे रहे हैं और हममे से कोई भी उस रोशनी को देखना ही नहीं चाहता
बल्कि हम ...द सो काल्ड साइंटिस्ट्स, केवल
अँधेरों की ओर दौड़ते चले जा रहे हैं ।
कोई केस
एसिम्प्टोमैटिक क्यों होता है, कैसे
होता है ? जब चारों ओर आग लगी हो तो कुछ लोग पूरी तरह
सुरक्षित कैसे हैं, क्यों हैं? क्या
हमारे शोध की दिशा इस ओर नहीं होनी चाहिये ?
...और आज की
अंतिम बात यह कि हम पता नहीं कबसे RNA वायरस
समूहों से घिरे हुये हैं, हमारी तमाम कोशिशों के बाद भी हम
उनसे मुक्त नहीं हो सके हैं । हम आज भी HIV, HCV, Ebola, Zika, respiratory syncytrial Virus,
Influenza, Yellow fever Virus, Dengue, Rhinovirus और Human
T-lymphotropicvirus type-1 जैसे न जाने कितने घातक वायरस समूहों के
साथ रह रहे हैं । क्या हम इनके लिए आज तक भी कोई वैक्सीन बना सके? आप पोलियो और टीबी की बात कहेंगे । टीवी तो जाकर फिर वापस आ गया और पोलियो
वायरस अपने किस नए रूप में आने की तैयारी कर रहा है ...किसी को नहीं पता । कई बार मुझे
लगता है कि हम अपनी सभ्यता को निहायत मूर्खता के साथ क्रूर अंत की ओर ले जा रहे हैं
।
अब हमें वायरस
से मुक्ति यानी टोटल इरेडीकेशन के यूटोपियन ख़्वाब से निकलकर बाहर आना होगा और
प्रकृतिप्रदत्त अपने शारीरिक सुरक्षातंत्र को सुदृढ़ करने के लिए अपनी जीवनशैली में
आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे ।
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