आपको
याद होगा, जिस समय जे.एन.यू. में क्रिटिकसिद्धांतप्रेमी उमर ख़ालिद, कन्हैया कुमार, डी. अपराजिता राजा, शेहला रशीद शोरा और उनके कई क्रिटिकल प्रोफ़ेसर्स भारतीय संसद पर हमला करने
वाले अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाने की तैयारी में रायता फैला बैठे तब बहुत से
साहित्यकारों, कलाकारों, राजनीतिज्ञों
और चिंतकों को राष्ट्रवाद की शल्यचिकित्सा का अवसर मिल गया था । महीनों तक
राष्ट्रवाद की व्याख्यायें होती रहीं और अंत में राष्ट्रवाद को फासीवाद का एक
आतंकी चोला पहना कर मरखने साँड़ की तरह नई पीढ़ी के पीछे छोड़ दिया गया था । तब,
अवध नरेश श्रीराम, विक्रमादित्य और
हर्षवर्द्धन जैसे आर्यावर्त के महान सम्राटों के राष्ट्रवंशज हैरान होकर जे.एन.यू.
रचित मोडीफ़ाइड राष्ट्रवाद की इस बहस को सुनते रहे ।
आज
श्रीराम मंदिर के पुनर्निर्माण के अवसर पर एक बार फिर बहुचर्चित टीवी सम्पादक, रचनात्मक
साहित्यकार, यथार्थवादी चिंतक तथा लेखन एवं पत्रकारिता में
कई पुरस्कारों से सम्मानित किए जा चुके रविश कुमार को राष्ट्रवाद के साथ-साथ
मंदिरों के औचित्य पर भी बहस परोसने का अवसर प्राप्त हो गया ।
रविश
कुमार ने अपनी चर्चा में “टैगोर के राष्ट्रवाद”, “सुभाष के राष्ट्रवाद”,
“नैतिक राष्ट्रवाद” और “मानवतावादी राष्ट्रवाद”
जैसे शब्दों का भरपूर प्रयोग करते हुये अपने जिस “वाद” को प्रस्तुत किया उसे मैं “रविश
कुमार का धरातलवाद” कहना चाहूँगा ।
रविश
कुमार पांडे अपने एकांगी तर्कों के साथ जब धरातल की बात करते हैं तो उनकी बातें
भारत की नयी पीढ़ी को बहुत प्रभावित करती हैं । रविश कुमार के इस धरातलवाद को समझना
इसलिए भी बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके ऊपर कोई शून्याकाश नहीं होता । वैक्यूम, चूँकि
अध्यात्मिक ऊर्जा की तरह दिखायी नहीं देता इसलिए यथार्थवादियों की दृष्टि में उसका
कोई महत्व नहीं होता । वह बात अलग है कि भौतिकशास्त्रियों और इंजीनियर्स ने इसी
अदृष्टव्य वैक्यूम का उपयोग करके न जाने कितने भारी भरकम भौतिक कार्यों को करने
में सफलता पायी है । आज दुनिया का कोई भी भौतिकशास्त्री और इंजीनियर भौतिक जगत में
वैक्यूम के महत्व को नकार सकने की स्थिति में नहीं है । रविश कुमार जैसे भौतिकवादी
अदृश्य होने के कारण शून्याकाश को स्वीकार नहीं कर सकते इसीलिए अध्यात्म जैसे तत्व
भी उनके लिए अर्थहीन और औचित्यहीन ही रहते हैं । यही कारण है कि जब अयोध्या में
राममंदिर के पुनर्निर्माण का शिलान्यास किया जाता है तो वे कोरोना, भूख, बाढ़, मौत और कोरोनापीड़ितों
के उपेक्षित शवों की बात करते हुये मंदिरों के निर्माण के औचित्य पर प्रश्न खड़े
करते हैं । यहाँ मैं यह समझ पाने में असमर्थ रहा कि यदि किसी कोरोनापीड़ित व्यक्ति
की मृत्यु के बाद उसके स्वजन शव की उपेक्षा करने लगे हैं तो इसमें शासन-प्रशासन और
व्यवस्थाओं का क्या दोष!
मोतीहारी
के ब्राह्मण रविश कुमार पांडे मंदिर के औचित्य पर प्रश्न उठाने के साथ जब रविंद्रनाथ
ठाकुर के मानवतावादी दृष्टिकोण को सामने लाते हैं और उसे राष्ट्रवाद के ऊपर
प्रतिष्ठित करने का प्रयास करते हैं तो एक अधूरी बहस को एक बार फिर थोड़ी सी गति
मिल जाती है । शायद यह बहस कभी पूरी होगी भी नहीं, तथापि इसे यूँ ही अधर
में छोड़ा भी नहीं जा सकता ।
राष्ट्रवाद, नैतिकतावाद,
मानवतावाद और अध्यात्मवाद इनमें से किसी भी तत्व को अनुशासन के बिना
देख पाने में मैं सदा ही असमर्थ रहा हूँ । रविश कुमार का मन-हृदय राष्ट्रवाद को फासीवाद
के रूप में देख पाता है और इसीलिए “राष्ट्रमुक्त वैश्विक साम्यवाद” उनका प्रिय स्वप्न
बन जाता है । रविश कुमार को भारतीय राष्ट्रवाद में अनुशासनिक तत्व का समावेश पसंद
नहीं है, वे उसे स्वार्थ, फासीवाद और
अमानवीय मानते रहे हैं । रविश को स्वतंत्रता चाहिये, ऐसी
स्वतंत्रता जहाँ अनुशासन जैसे किसी तत्व का कोई अस्तित्व नहीं है । यहाँ यह स्पष्ट
कर देना आवश्यक है कि मैं किसी भी “वाद” को उस लौहपाश के रूप में देख पाता हूँ जो नैतिकता,
मानवता और अध्यात्म जैसे महान और व्यापक आयाम वाले तत्वों की
व्यापकता को सीमित करता है और उनके स्वरूप को एकांगी बनाकर प्रस्तुत करता है ।
वास्तव में, मैं किसी भी वाद को तोड़ते हुये आगे बढ़ने में
विश्वास रखता हूँ । वाद हमारे दृष्टिकोण को सीमित करते हैं, जबकि
हमें अपने चिंतन को हर तरह के “वाद” से मुक्त रखना होगा ।
विकृति
मनुष्य को आकर्षित करती है, प्रकृति उसे सचेत करती है । मानव इतिहास के तमाम कालखण्डों में ऐसे ही
चक्रों की भरमार है जिनसे जूझते हुये आज हम यहाँ तक आ पहुँचे हैं । रविश कुमार
पांडे की मान्यता है कि मंदिर एक व्यर्थ का वैभव है जिसका मनुष्य जीवन के लिए कोई
अर्थ नहीं होता । भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो यह मानते हैं कि मंदिरों
में पाखण्ड होते हैं और वे आम लोगों को बेवकूफ़ बनाते हैं । धर्मनिरपेक्षता के नाम
पर ऐसे लोग चर्चों और मस्ज़िदों के निर्माण पर कभी कोई टिप्पणी नहीं करते । मैं
मानता हूँ कि हमारी सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता रोटी, कपड़ा,
मकान और सुरक्षा है । हम मनुष्य जीवन के अब तक के इतिहास में इन्हीं
चीजों के उत्पादन, वितरण और सुलभ उपलब्धता के लिए संघर्ष
करते रहे हैं । यह संघर्ष अभी तक चल ही रहा है, जब तक यह
संघर्ष समाप्त न हो जाय तब तक कोई और काम करने की आवश्यकता से वामपंथियों और
धरातलवादियों का सदा विरोध रहा है । तब मैं जानना चाहता हूँ कि इन संघर्षों के
पूर्ण हुये बिना ऐश-ओ-आराम की अन्य तमाम चीजों की भी क्या आवश्यकता है ? महँगी फ़्लाइट्स में यात्रा करने, महँगे होटलों में
बुद्धिविलास के सेमिनार आयोजित करने, महँगी शराब पीने और
आमोद-प्रमोद के लिए सिनेमा-थिएटर्स पर भी पैसा ख़र्च करने की क्या आवश्यकता ?
शराब
यदि तुम्हारी आवश्यकता है तो मंदिर हमारी आवश्यकता है । जो रोटी हमें शारीरिक
शक्ति देती है, उसी रोटी को नैतिक अनुशासन के साथ अर्जित करने की मानसिक शक्ति हमें
मंदिरों से मिलती है । एक बार फिर कह रहा हूँ कि मैं न तो रोटीवाद के पक्ष में हूँ
और न मंदिरवाद के पक्ष में । रही बात राष्ट्रवाद की, तो
क्रिटिक के लिए यह रविश का एक प्रिय शब्द हो सकता है, मेरे
लिये तो वाद रहित राष्ट्र ही महत्वपूर्ण है । वैश्विक साम्यवाद, सीमाविहीन देश और धर्मविहीन समाज जैसी यूटोपियन अवधारणायें बुद्धिविलास के
विषय हो सकते हैं, किंतु वास्तव में यथार्थ के धरातल पर इनका
कोई अस्तित्व सम्भव नहीं है ।
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