गुरुवार, 13 अगस्त 2020

राष्ट्रवाद पर रविश चिंतन से आगे...

आज की चर्चा गम्भीर है इसलिए Socio-philosophical ‘isms’ पर चर्चा करने से पहले एक पुराना गाना गुनगुना लिया जाय – 

कस्मे वादे प्यार वफ़ा सब, वादे हैं वादों का क्या

“वाद” में लिपटे वादे झूठे, वादों पे भरोसा करना क्या

“क्रिटिक अच्छा, क्रिटिकवाद नहीं; समालोचना अच्छी पर अंध-आलोचना नहीं अन्यथा अव्याप्तिदोष को रोका नहीं जा सकेगा । सत्य की प्रकृति व्याप्त होने की है, अव्याप्ति और एकांगी होने की नहीं । समूह में हम सब एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं इसलिए समालोचना सामूहिक जीवन की अनिवार्य माँग है” । - मिसिर जी ॥

पटना से प्रकाशित होने वाले आर्यावर्त्त समाचार पत्र के सम्पादन विभाग से 1984 में स्तीफ़ा देने के बाद बक्सर में रामरेखाघाट पर गंगाजी के शांत प्रवाह को देखते हुये एक दिन मिसिर जी को यह बोध प्राप्त हुआ था । उन दिनों पटना शहर में साम्यवादियों का बोलबाला हुआ करता था और शहर की आमजनता हँसिया-हथोड़ा वालों को ख़ुशी-ख़ुशी वोट दिया करती थी । मिसिर जी पुर्णिया से सीपीएम के विधायक अजित सरकार से तो प्रभावित थे किंतु पार्टी की विचारधारा और कार्यप्रणाली उन्हें प्रभावित नहीं कर सकी । मिसिर जी के वज़नदार तर्कों में एक यह भी हुआ करता – औषधि से अस्वस्थ व्यक्ति की प्राणरक्षा होती है किंतु उससे पेट की भूख नहीं मिटायी जा सकती । कठिन स्थितियों में कॉर्टीज़ोन से रोगी की प्राणरक्षा सम्भव है इसलिए अब साम्यवादियों की ज़िद है कि वे पूरी दुनिया के लोगों को केवल कॉर्टीज़ोन ही खिलायेंगे, वह भी भर पेट” ।

एक समय वह भी था जब मोतीहारी वाले मिसिर जी को भी कॉर्टीज़ोन ने बहुत आकर्षित किया था । यह तब की बात है जव वे युवा थे और माओ की लाल किताब की साम्यवादी दुनिया में खोये हुये थे । चीन, ज़र्मनी, फ़्रांस और रूस के साम्यवादी दर्शन से प्रभावित मिसिर जी का ज़ल्दी ही साम्यवाद से मोह भंग हो गया और उन्हें कम्युनिज़्म के काले जादू से मुक्ति मिल गयी । फिर उससे आगे की यात्रा ने मिसिर जी को इण्डियन कामरेड से भारत का सनातनी आर्य बना दिया । मिसिर जी आज भी मानते हैं कि युवाओं को अपनी चिंतन यात्रा साम्यवाद से प्रारम्भ कर क़्वांटम फ़िज़िक्स और टाओइज़्म से होते हुये कणाद के वैशेषिक, कपिल के सांख्य, पतंजलि के योग, गौतम के न्याय, जैमिनि के मीमांसा और बादरायण के वेदांत दर्शन की ओर करनी चाहिये । चिंतन यात्रा का यह पथ वैचारिक भटकाव को रोकता है और जिज्ञासु को हर तरह के वादों (Socio-philosophical isms) से मुक्त रखता है ।   

वास्तव में हम सब विभिन्न सम-विषम परिस्थितियों, मानसिकताओं, विचारों, निहित स्वार्थों और मर्यादाओं के जटिल समुच्चय में जीने के लिए बाध्य हैं । इस समुच्चय का सामना करने के लिए एक ऐसे लचीलेपन की आवश्यकता होती है जो मर्यादाओं के अनुशासन में प्रवाहित हो सके । कट्टरता और वादों की जड़ता हमें आगे नहीं बढ़ने देती । मोतीहारी वाले क्रिटिकवादी रविश पाण्डे जे.एन.यू. और ओस्मानिया यूनीवर्सिटी के छात्रों को तो प्रभावित कर लेते हैं पर मोतीहारी के ही मिसिर जी को कभी प्रभावित नहीं कर सके ।   

यदि हम विभिन्न वादों (Socio-philosophical isms) से मुक्त नहीं हैं तो हम संघर्षों को आमंत्रित करते हैं । जब हम राष्ट्रवादी बनते हैं तो अशोक बनते हैं और जब मानवतावादी बनते हैं तो बुद्ध बनते हैं । आम आदमी इनमें से कुछ भी नहीं बन पाता । चीनी राष्ट्राध्यक्ष राष्ट्रवादी हैं जो अपने राष्ट्र की मीमाओं के विस्तार में ही राष्ट्रवाद देख पाते हैं । भारत में ऐसे राष्ट्रवाद के लिए कभी कोई स्थान नहीं रहा । हम राष्ट्रवादी नहीं बल्कि राष्ट्रभक्त हैं, हम मानवतावादी नहीं बल्कि मानवताप्रेमी हैं । 

मिसिर जी मानते हैं कि युद्ध में शत्रु की हत्या करना राष्ट्रीय कर्तव्य है, पर घायल शत्रु की रक्षा करना मानवता है । जीवन ऐसी ही विसंगतियों और विरोधाभासों से भरा है । हमें बड़ी सावधानी से एक ऐसे मध्यपथ का निर्माण करना होता है जो बहुजनसुखाय हो । “सर्वे भवंतु सुखिनः” की कामना हमारा आदर्श है जो मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना के कारण कभी यथार्थ नहीं बन पाता इसलिए सर्वजनसुखाय की कामना एक ऐसी कल्पना है जिसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता । वास्तविक अस्तित्व होता तो आज कोई दुःखी नहीं होता, आज कोई रोगी नहीं होता, किसी को अपने अकल्याण की चिंता नहीं होती और धरती सर्वविकार रहित होती । किंतु हम जानते हैं कि यह सब सम्भव नहीं है, इसीलिए हमें प्रतिपल अपने लिए पथनिर्माण की आवश्यकता बनी रहती है । हम जीवन भर शोषण और शोषण के विरुद्ध होने वाले संघर्षों के शिकार बने रहते हैं इसीलिए पथिकभाव भारत के आर्यजीवन का यथार्थ रहा है ।  

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