रविवार, 15 नवंबर 2020

कुख्यात अपराधी नहीं, माननीय कहिये उन्हें...

...जो जेल में रहते हुये चुनाव लड़ने के अधिकारी है, जिन्हें टिकट लेने के लिये कोई प्रयास नहीं करना होता बल्कि विभिन्न राजनीतिक दलों से टिकट परोसा जाता है और जो जेल में रहते हुये ही चुनाव लड़कर विजयी हो जाते हैं ।

बिहार में अभी-अभी यानी नवम्बर 2020 में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुये हैं । चुनाव जीतने के बाद का परिदृश्य यह है कि जिस पुलिस ने गम्भीर किस्म के “छोटे-मोटे” अपराधों के आरोप में जिन्हें जेल में बंद किया था वही पुलिस अब उन्हें ससम्मान विधायक के बंगले में पहुँचायेगी और वे लोग अपने-अपने विधानसभा क्षेत्र के राजा की तरह राज करने लगेंगे । राज वे पहले भी करते थे किंतु तब वे विधिसम्मत राजा नहीं थे, अब वे विधिसम्मत राजा हो गये हैं ।

पाटलिपुत्र यानी पटना के ए.एन. सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के डायरेक्टर डी.एम. दिवाकर ने बताया है कि मोकामा के “छोटे सरकार” यानी गम्भीर किस्म के 38 आपराधिक मामलों के लिये जेल में बंद कुख़्यात डॉन अनंत सिंह जी जेल में रहत हुये चुनाव जीत गये हैं यानी अब वे लोकतंत्र की नैया के विधिसम्मत मल्लाह बन गये हैं ।

बधायी हो ....भारत के महान संविधान को ।

कुछ समय पहले ही भारत की सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनैतिक दलों को आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे प्रत्याशियों का पूरा विवरण जनता के लिये प्रकाशित करने और यह स्पष्ट करने के निर्देश दिये थे कि ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने के लिये टिकट क्यों दिये गये ?

जनताजनार्दन को सूचित करने की दृष्टि से राजनीतिक दलों द्वारा बड़े गर्व से बताया गया कि 2020 के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करने वाले 68 फ़ीसदी विधायक गम्भीर किस्म के अपराधों में विभिन्न न्यायालयों में विचारण का सामना कर रहे हैं, यह संख्या पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में 10 फ़ीसदी अधिक है । अपराध के आरोप भी क़माल के हैं, यानी ...हत्या, हत्या के प्रयास, डकैती, अपहरण, वैश्यावृत्ति की ठेकेदारी (बोले तो चकला चलाने का धंधा), यौनशोषण में संलिप्तता, ज़बरिया चौथ वसूली, दूसरे की ज़मीन पर कब्ज़ा करने और घातक हथियार एवं विस्फोटक रखने जैसी “छोटी-मोटी ग़लतियों” के लिये “मासूमों के ख़िलाफ़ राजनीति विद्वेषवश षड्यंत्र” कर दिया गया है । भारतीय राजनीतिक विश्लेषक भी क़माल के हैं, उनके अनुसार– “यही तो भारतीय लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है (...कि कुख्यात अपराधी भी ठसके के साथ जनता का भाग्यविधाता बन सकता है” ।

राजनीतिक विश्लेषकों की इस धूर्तता पर मोतीहारी वाले मिसिर जी ने गुस्से की भंगिमा वाला मुँह बनाते हुये अपनी तीखी टिप्पणी दी है– “निहायत बदसूरती को ख़ूबसूरती कहकर महिमामंडित करने की ग़ुस्ताख़ियाँ करते हुये इतराना वर्तमान भारत की सबसे घटिया त्रासदी है, …धूर्त महाबुद्धिजीवी अक्षम्य वैचारिक अपराध करने में लगे हुये हैं । ऐसे लोगों का कपाल तो पीकदान बनाने के लायक भी नहीं हैं” ।

गोरखपुर वाले ओझा जी कई मामलों में मोतीहारी वाले मिसिर जी से सहमत नहीं होते, उनकी गुस्से वाली प्रतिटिप्पणी को भी नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता – “जनता जनार्दन को दिखायी नहीं देता कि वह अपना भोट किसके पक्ष में गिरा रही है ? अपराधी को भोट गिराइयेगा और फिर उन्हीं से पाँच साल तक फूल बरसाने की उम्मीद किजिएगा ! …यानी जनता ही स्पष्ट कर दे रही कि उसे साफ सुथरा माननीय नहीं बल्कि अपराधी माननीय चाहिये । मैं इसीलिये कहता हूँ कि जनता को कोई अधिकार नहीं बनता कि वह सरकार को दोष दे”।

और हाँ ! जीते हुये मननीयों में करोड़पतियों की संख्या इस बार 67 फ़ीसदी से बढ़कर 81 फ़ीसदी हो गयी है । यानी करोड़पति और अपराधीवृत्ति का सामना करने वाले माननीय बिहार की तक़दीर लिखने के लिये तैयार हो चुके हैं ।

इस बार की दीवाली पर मोतीहारी वाले मिसिर जी ने प्रश्नों की पूरी एक लड़ी दाग दी है – “क्या भारत में साफ-सुथरी छवि वाले और निष्ठावान प्रत्याशियों का अकाल है ? राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में विवादास्पद छवि वाले लोगों की ही संख्या अधिक क्यों होती है ? जनता अच्छी छवि वाले लोगों को वोट न देकर आपराधिकवृत्तियों के लिये कुख्यात रहे लोगों को वोट क्यों देती है ? क्या जनता के चुनाव में कोई दबाव और बाध्यता होती है या वे ही दबंगों को राजनीति के लिये आवश्यक मानते हैं ? क्या प्रत्याशियों के चयन के लिये संविधान में किसी परिवर्तन की आवश्यकता है ? जिस भारत में राजा को भगवान का स्थान दिया जाता रहा है वहाँ इन आधुनिक राजाओं का स्थान क्या होना चाहिये ? …ये वे अनिवार्य प्रश्न हैं जिनके उत्तर इतिहास में दर्ज़ किये जायेंगे” ।


2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.