घातक विषाणु कोरोना से युद्ध
चालू है, बचाव और चिकित्सा के उपलब्ध उपाय न तो
उपयुक्त हैं और न पर्याप्त । कोरोना ने पूरे विश्व को बंदी बनाकर उसकी गतिविधियों
पर ग्रहण लगा दिया है । चिकित्सा परिणामों के बाद हताशा और अवसाद के वातावरण ने
हमारे सामने कुछ और चुनौतियाँ परोस दी हैं ।
प्रश्न उठने लगे हैं – क्या विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने
धर्म का पालन नहीं किया और अधर्माचरण में अपनी सहभागिता बनाये रखी ? क्या लॉकडाउन आवश्यक था ? क्या लॉकडाउन में होती रही शिथिलताओं ने समस्या को और भी विकराल बना दिया ?
कोरोना काल में धार्मिक क्रियाकलापों (Religious activities) के सार्वजनिक आयोजनों पर कठोरतापूर्वक पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना आवश्यक
क्यों नहीं समझा गया ? जनजीवन में व्यवहृत होने वाले सामाजिक
एवं व्यक्तिगत आचरणों की शिथिलता के पूर्ण मुक्त अभ्यास को चीन की तरह प्रतिबंधित
करने में सरकारें क्यों असमर्थ रहीं ? क्या शासन-प्रशासन ने
अपने राजधर्म का यथोचित पालन करने में उपेक्षा की ? क्या
आमजन को इस व्याधि से बचने के उपायों के बारे में शिक्षित-प्रशिक्षित करने में कोई
चूक हुई ? क्या चिकित्सा-विशेषज्ञों और सरकारों के बीच
वैज्ञानिक समझ और आपसी समन्वय का अभाव रहा है ? कोरोना की
विकरालता का भय कहीं स्वाइन फ़्लू की तरह कोई नया मेडीस्कैम तो नहीं ? कोविड-19 की चिकित्सा में चिकित्सा विज्ञान की भूमिका क्या किसी पंगु जैसी
नहीं रही है ? प्रतीक्षित वैक्सीन की कार्मुकता और
क्रियाशीलता कितनी प्रभावी होगी ? पता चला है कि फ़ाइज़र की
एंटी कोरोना वैक्सीन इन्जेक्टेबल होने कारण केवल लोअर रेस्पाइरेटरी ट्रेक्ट को ही सुरक्षा
दे सकेगी अपर रेस्पाइरेटरी ट्रेक्ट को नहीं, तब इस वैक्सीन की
उपयोगिता का जीवन के लिए क्या मूल्य ? क्या वैक्सीन के
अतिरिक्त अन्य विकल्पों पर वैज्ञानिक चिंतन किए जाने की आवश्यकता नहीं है ?
रूटीन चेक-अप में तो इंफ़्रारेड थर्मल स्केनर का प्रयोग
होने लगा है किंतु ब्लडप्रेशर नापने के लिए जिस पारम्परिक डिवाइस का उपयोग किया जा
रहा है क्या उसे हर बार विसंक्रमित नहीं किया जाना चाहिए ? क्या ओपीडी के डॉक्टर्स स्वयं को आएट्रोजेनिक फ़ैक्टर बनने
से रोकने के लिये रूटीन एक्ज़ामिनेशन में प्रयुक्त होने वाले बीपी इंस्ट्रूमेंट जैसे
डिवाइसेज़ का पूरी सतर्कता के साथ उपयोग कर पा रहे हैं ? क्या इस तरह के डिवाइसेज़ का उपयोग रिलिवेंट
इण्डीकेशन्स मिलने, अत्यावश्यक होने एवं सीमित और विशेष स्थितियों
में ही नहीं किया जाना चाहिए ? क्या हमें एड्स और स्वाइन फ़्लू की तरह कोरोना के भी साथ
रहने के लिये स्वयं को तैयार करना होगा ? चीन में कोरोना नियंत्रण के लिये क्या निरापद देशी चिकित्सा पद्धति का भी व्यवहार
किया गया है ? ज़र्मनी, अमेरिका और ब्राज़ील
आदि देशों के कुछ नागरिक कोरोनाकाल में भी अपनी जीवनशैली पर किसी भी तरह का
प्रतिबंध लगाये जाने का विरोध कर रहे हैं, भीड़ की यह वह
मानसिकता है जिससे भारत को भी जूझना पड़ रहा है, क्या भारत के
पास भीड़ के इस सर्वदा विरोधी चरित्र से निपटने के लिए प्रभावी उपाय हैं ? …प्रश्नों के पर्वत हमारे सामने हैं जबकि निष्ठापूर्वक उत्तर के प्रयास
दूर-दूर तक दिखायी नहीं देते । किंतु इतना कह देने से इतिश्री नहीं हो जाती,
हमें स्वयं को कोरोना का शिकार होने से बचाना ही होगा ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.