देश
आज़ाद है, हम आज़ाद हैं, हम कुछ भी करें, कैसे
भी रहें आपको क्या ? आप हमें इस रूप में नहीं देखना चाहते तो
अपनी आँख़ें बंद कर लो, मना किसने किया है ? कला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सेंसर लगाना हमारी आज़ादी की हत्या है ।
यदि आपको हमारी कला अच्छी नहीं लगती तो आपको अपने ऊपर आत्मसेंसरशिप लागू करना
चाहिये ।
कपड़े सत्य
को छिपाते हैं, मर्यादा और सभ्यता के नाम पर यह एक आडम्बर है । ईश्वर ने कोई मर्यादा नहीं
बनायी, हम तो शहर से लेकर समंदर के किनारे तक हर जगह उसी रूप
में विचरण करेंगे जिस शाश्वतरूप में उसने हमें धरती पर भेजा है... पूर्ण नग्न ।
साइन्टिफ़िक
थॉट से सदासर्वदा ओतप्रोत रहने वाले ये वे प्रगतिशील लोग हैं जो ईश्वर की सत्ता पर
प्रश्न उठाने की प्रतिस्पर्धा में सबसे आगे रहते हैं ।
फ़िल्म
सेंसरशिप पर नये कानून की बात आते ही “पर्दे की ज़िन्दगी, काम
और हिंसा के दृश्यों पर नैतिक मर्यादा की कैंची” और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” पर
एक बार फिर हंगामा शुरू हो गया है । सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने वाले अतिबुद्धिजीवी बुरी तरह नाराज़ हैं और उन्होंने
अमर्यादित शब्दों का प्रयोग करना शुरू कर दिया है । फ़िल्मों और इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया पर उपलब्ध वीडियोज़ में दिखाये जाने वाले काम, विकृतकाम
एवं हिंसा के दृश्यों और अश्लील संवादों की बौछारों पर मर्यादारेखा खींचने की तैयारी
हो रही है । फ़िल्म समीक्षक मयंक शेखर बहुत नाराज़ हैं गोया किसी ने उनकी मुर्गियाँ
ज़बरन उठा ली हों । उन्होंने फरमाया – “यह तो आम आदमी यानी दर्शक को नीचा दिखाना हो
गया कि उन्हें अपने फ़ैसले ख़ुद लेने की तमीज़ नहीं है और उन्हें वही देखना चाहिये जो
उन्हें दिखाया जाय, उन्हें वही सोचना चाहिये जो उनसे सोचवाया
जाय… सरकार आम आदमी को इतना गिरा हुआ क्यों सोचती है ?
यह ब्रिटिश साम्राज्यवादी सोच है । यदि आपको कोई फ़िल्म या दृश्य
पसंद नहीं है तो आप न देखें” ।
फ़िल्म अभिनेता
दिलीप ताहिल ने तो यहाँ तक कह दिया कि – “ये कम दिमाग वाले लोग हैं जो हर चीज को
बैन करने की माँग करते हैं । संविधान मानता है कि अट्ठारह साल की उम्र वाले
व्यक्ति को सरकार चुनने की योग्यता है लेकिन सरकार यह नहीं मानना चाहती कि अट्ठारह
साल का वह व्यक्ति अपनी ज़िंदगी के अन्य फ़ैसले भी ख़ुद ले सकने की योग्यता रखता है ।
लोकतंत्र में सेंसरशिप का कोई स्थान नहीं होता । सत्तर साल हो गये आज़ादी मिले
लेकिन सरकार हमें अब भी आज़ाद नहीं करना चाहती । अब तो तय करने दो दर्शक को कि वह
क्या देखे और क्या नहीं” ।
लेफ़्टियाना
थॉर्नीफ़ोलिया (लेफ़्ट के अतिवाद से लटपटाया हुआ कँटीला) चिंतन जिस “आत्मनिर्णय की
स्वतंत्रता” की वकालत करता है उसकी जड़ें “सत्ताविहीन आत्मशासित समाज” के यूटोपियन
थॉट में निहित हैं । विनोबा भावे ने भी “आत्मशासित समाज” की वकालत की थी । किंतु समाज
में ऐसे कितने लोग हैं जो आत्मशासित हो पाते हैं ? यदि ऐसा हो पाता तो
किसी शासन-अनुशासन प्रणाली की आवश्यकता ही न होती, चारो ओर
रामराज्य होता, शांति होती, कोई विवाद
न होता, कोई अपराध न होता, हर व्यक्ति
साधु और सात्विक होता ।
मयंक
शेखर और दिलीप ताहिल लोकतंत्र की दुहाई देकर जिस स्वतंत्रता की वकालत कर रहे हैं क्या
वह समाज को अराजकता की ओर ले जाने वाला नहीं है ! लोकतंत्र अपने आप में एक तंत्र
है जो एक अनुशासन की बात करता है ...यह अनुशासनविहीनता और अराजकता नहीं हैं ...यह हमारे
निर्णय लेने के अधिकार अपने प्रतिनिधि को सौंपने का तंत्र है । लोकतंत्र और “अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता” का अर्थ “अनियंत्रित और अश्लील गतिविधियों की स्वतंत्रता की
अभिव्यक्ति” कैसे हो सकता है !
बहुत से
अतिबुद्धिजीवियों को इस बात से भी परेशानी है कि “क्या श्लील है और क्या अश्लील यह
तय करने का अधिकार सरकार को किसने दिया”? हम तो पोर्न फ़िल्में बनायेंगे,
हम तो सेक्स के हर विकृत कृत्य पर फ़िल्म बनायेंगे, हम आदमी को ज़िबह करने के दृश्य दिखायेंगे, हम तो
आदमी-औरत को मल-मूत्र विसर्जन करते हुये दिखायेंगे... सुधारवादियों को किसने कहा
कि वे यह सब देखें । आप अपनी आँखें बंद भी तो कर सकते हैं, जिसे
अच्छा लगता है वह देखेगा, जिसे नहीं अच्छा लगेगा वह अपना
टीवी बंद कर देगा । मोदी जी क्यों परेशान हो रहे हैं ?
यानी आप
हर वह चीज दिखाने के लिये हठ कर रहे हैं जिसे समाज वर्ज्य मानता आया है ...और यह
भी कि कला और मनोरंजन के नाम पर आपके पास दिखाने के लिये इन सब विषयों के अतिरिक्त
और कुछ है ही नहीं ?
जंगल
शांत रहता है
वहाँ
यौनापराध नहीं होते
नग्नता
उनकी जीवनशैली
है
प्रदर्शन
का हिस्सा नहीं ।
सभ्य
समाज के भव्य शहरों में
पहनकर
भी कपड़े
तुम
करने
लगे हो
प्रदर्शन
अपनी
नग्नता का
और नहीं
रोक पाते
क्रूर
यौनापराध ।
तुमने पूछा
किसने
हक दिया किसी को
उठाने
का तुम पर उँगली
लगाम
क्यों नहीं लगा लेते लोग
अपनी ही
आँखों पर
“विकृति
हमारी
नग्नता में नहीं
तुम्हारी
आँखों में है
पापी हम
नहीं
तुम हो”
।
आँखें
ताड़
लेती हैं
दृश्य
के उद्देश्य
फिर
वे
देखने लगती हैं
वह सब
कुछ
जो
परोसा जाता है उन्हें ।
दृश्य पूछते
हैं
कि आँखें
उन्हें देखती ही क्यों हैं,
आँखें
पूछती हैं
कि दृश्य
आँखों
के सामने
प्रकट
ही क्यों होते हैं ?
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