अज़रबैजान
में जातीय और धार्मिक विद्वेष की सालों से सुलगती आग एक दिन फिर से भभक कर जल उठी
। ऐसा अक्सर हुआ करता था किंतु यह 1980 की बात है जब अज़रबैजान में जातीय हिंसा की
लपटों ने ईसाइयों को निगलना शुरू कर दिया था । निशान के पड़ोस में कुछ लोगों ने एक
युवक का सिर काट डाला । चीख-पुकार से सहम कर चार साल की नन्हीं जेम्मा और आठ साल
के लीवॉन ने अपने पिता निशान की ओर भयभीत दृष्टि से देखा । लीवॉन ने पूछा – “क्या
ये लोग एक दिन हमें भी मार देंगे”? निशान ने बच्चों की ओर कातर
दृष्टि से देखा किंतु कोई उत्तर नहीं दिया । वर्तानूश की आँखों से आँसू बहने लगे, उसने दोनों बच्चों को कसकर अपने सीने से लगा लिया फिर बोली – “हम ज़ल्दी
ही अज़रबैजान छोड़कर आर्मीनिया चले जायेंगे”। माँ से लिपटकर दोनों बच्चों को लगा कि
अब वे पूरी तरह सुरक्षित हैं, दुनिया की कोई शक्ति उन्हें
मार नहीं सकेगी ।
कुछ
दिनों बाद जब वे आर्मीनिया के लिये प्रस्थान करने ही वाले थे कि कुछ लोगों की भीड़
ने उन्हें घेर लिया । अल्ला-हो-अकबर का नारा सुनते ही वर्तानूश चीख-चीख कर रोने
लगी । उसने जेम्मा को गोद में उठाया और लीवॉन की कलाई पकड़कर एक ओर भागी । निशान ने
भी भागने की कोशिश की किंतु भीड़ ने उस पर हमला कर दिया । निशान वहीं मारा गया ।
वर्तानूश
दोनों बच्चों के साथ किसी तरह आर्मीनिया पहुँचने में सफल हुयी । आर्मीनिया में
अपने पढ़ायी पूरी करने के बाद फ़्रांस जेम्मा का नया ठिकाना बना, वर्तानूश
ने उम्र पूरी करने के बाद परमशांति की शरण ली और युवा लीवॉन 1991 में हुये नागोर्नो
क़ाराबाख़ के युद्ध में मारा गया । निशान के परिवार में अब केवल जेम्मा ही बची है ।
जेम्मा की
स्मृति में दहशत और हैवानियत की न जाने कितनी घटनायें हमेशा के लिये दर्ज़ हो चुकी हैं
। यह लगभग चालीस सालों के इतिहास का एक बहुत छोटा सा अंश है जिसका साक्षी और
भुक्तभोगी रहा निशान का परिवार एक उदाहरण भर है । आर्मीनिया और अज़रबैजान की सीमाओं
के दोनों ओर रक्तसंघर्ष, लूटपाट और यौनहिंसा की बेशुमार घटनाओं का एक अलग ही अलिखित इतिहास पिछले
कई दशकों से रचा तो जा रहा है किंतु जिसे कोई इतिहासकार लिखित इतिहास का हिस्सा
कभी नहीं बनायेगा ।
“धर्म
यदि मनुष्य की आवश्यकता है तो उसे लेकर यह मार-काट क्यों ...और कब तक”? –जेम्मा
ने एक दिन अपने पति एलेक्स से पूछा । एलेक्स ने एक गहरी साँस ली फिर कहा – “मनुष्य
हर उस चीज के लिये मारकाट करता रहा है जो उसकी आवश्यकता है । जितनी अधिक आवश्यकता
उतनी ही अधिक मारकाट । हमारी आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं है इसलिये किसी न किसी
आवश्यकता के लिये हमेशा छीना-झपटी और मारकाट करना हमारे जीवन की ऐसी प्रवृत्ति है
जिससे मुक्त हो पाना सम्भव नहीं लगता । यह सब हर युग में होता रहा है ...आगे भी
होता रहेगा । हाँ! इस पर अंकुश लगाने के प्रयास होते रहने चाहिये”।
यह एक
सपाट और ईमानदार उत्तर था किंतु इससे जेम्मा की निराशा और भी बढ़ गयी थी ।
धीरे-धीरे उसने चर्च जाना भी छोड़ दिया । मर्सैल्ह की ख़ूबसूरत सड़कें और पार्क अब
उसे आकर्षित नहीं कर पाते । निराशा के क्षणों में मर्सैल्ह के ओल्ड पोर्ट में
घण्टों बिताने वाली जेम्मा को ओल्ड पोर्ट भी अब जैसे खाने को दौड़ने लगा । वह सोचा
करती –पशु भले ही हिंसक होते हैं ...उनमें ख़ूनी संघर्ष भी होते हैं किंतु वे एथिकल
ज़ेनोसाइड तो नहीं करते । मनुष्य तो पशुओं से भी गया गुजरा है ।
भीतर से
अशांत और ऊपर से शांत सी दिखने वाली जेम्मा से मेरी पहली भेंट ऋषिकेश में हुयी थी
। उन दिनों वह बहुत उदास थी और मुझे अवसाद की ओर बढ़ती सी दिखायी दे रही थी ।
जेम्मा
से हुयी दूसरी भेंट ने मुझे परेशान कर दिया था । पहली भेंट में उसने कहा था कि वह
सीकर है, किंतु इस बार मैंने उसे मारीज़ुआना की गिरफ़्त में जकड़ा पाया । ख़ूबसूरत
जेम्मा सूखकर काँटा हो गयी थी । गंगा के किनारे एक गँजेड़ी बाबा की झोपड़ी उसकी नयी
आश्रयस्थली थी । मैंने उससे बात करनी चाही तो उसने मुस्कराकर कहा था – “एथिकल
ज़ेनोसाइड का आज तक कोई समाधान नहीं निकल सका । योरोपीय देश तमाशा देख रहे हैं
...हर कोई तमाशा देख रहा है ...भारत भी ...और आर्मीनियन एपोस्टोपिक क्रिश्चियन
मारे जा रहे हैं । क्या क्रिश्चियन होना अपराध है ? ...अब तुम जाओ ...मैं चुप रहना
चाहती हूँ”।
जेम्मा
से मेरी तीसरी भेंट फिर कभी नहीं हो सकी । ऋषिकेश के गँजेड़ी बाबा ने बताया कि अब
वह इस दुनिया में नहीं है... ... ... ...
जेम्मा
अपनी माँ वर्तानूश के पास चली गयी । स्वर्ग में उसकी माँ ने पूछा होगा –“नागोर्नो
क़ाराबाख़ में युद्ध समाप्त हो गया न!”
जेम्मा
चुप रही होगी ...शर्म से उसने अपनी आँखों को पलकों से ढँक लिया होगा । बंद पलकों
के नीचे से रिसते आँसुओं की धारा से लिखी इबारत को पढ़कर वर्तानूश ने भी अपनी आँखों
को पलकों से ढँक लिया होगा ।
ख़ूबसूरत दुनिया को देखने के लिये बनायी गयी ये आँखें मनुष्य के बहते ख़ून को आख़िर कब तक देखती रहेंगी !
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