कोरोना विषाणु के कारण बदली हुयी परिस्थितियों में अनुकूलन के सुरक्षात्मक उपाय स्थापित करने के लिये हमें अपनी जीवनशैली में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने होंगे । वर्जनाओं की भूमि पर रचे गये इस तरह के परिवर्तनों के लिये भीड़ तैयार नहीं है । भारत के अतिबुद्धिजीवी मानते हैं कि “लोकतंत्र में सेंसरशिप का कोई स्थान नहीं होता”, हर व्यक्ति को अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीने की आज़ादी होनी चाहिये ।
भीड़, लोकतंत्र की आवश्यकता है । भीड़, लोकतंत्र की समस्या है । भीड़ में लोकतंत्र की समस्याओं के समाधान खोजने का कोई अर्थ
नहीं है । भारत के अतिबुद्धिजीवी लोग भीड़ से अपना पोषण प्राप्त करते हैं, वे सदा भीड़ के समर्थन में रहते हैं और भीड़ को बाढ़ के पानी की तरह बहने के
लिये नियंत्रणमुक्त बनाये रखना चाहते हैं । नियंत्रणमुक्त जीवन जीने वाले लोगों से
आत्मसंयम की अपेक्षा का क्या अर्थ है! यह भीड़ यदि इतनी ही आत्मसंयमित और ज्ञानवान होती
तो न कोई संक्रमण फैलता और न यह वैश्विक व्याधि होती ।
कोरोना को भीड़ से प्रेम है, अनियंत्रित हो जाना भीड़ का स्वभाव है,
उसे कोरोना से बचाना गम्भीर चुनौती है । फ़िल्मों और टीवी कार्यक्रमों में अश्लीलता और हिंसा आदि की
मर्यादा को लेकर अभी हाल ही में अभिनेता दिलीप ताहिल और फ़िल्म समीक्षक मयंक शेखर
ने बड़ी तल्ख़ टिप्पणियाँ करते हुये आम आदमी को अपनी ज़िंदगी के निर्णय स्वयं लेने और
आत्मसंयम की सीमा स्वयं तैयार करने की स्वतंत्रता प्रदान किये जाने के लिए बड़ी
उग्र वकालत की थी । यह वही आम आदमी है जो कोरोना से बचाव के लिये सुझाए गए उपायों
को अपनाने से इंकार कर देता है, जगह-जगह थूकता और
मलविसर्जन करता है, भारतीय मुद्रा से अपनी नाक साफ़ करने वाले
दृश्य का वीडियो बनाकर दुनिया को चुनौती देता है, मेडिकल टीम
को दौड़ा-दौड़ाकर मारता है और उन पर पत्थर बरसाता है । सरकारें भीड़ की मानसिकता से
निपटना जानती हैं जो मेडिकल टीम नहीं जानती । मेडिकल टीम व्याधि से निपटना जानती
है जो सरकारें नहीं जानतीं ।
उपयोग किया जा चुका मास्क एक मेडिकल कचरा है । मेडिकल कचरे
के प्रॉपर डिस्पोज़ल के प्रति हम भारतीय कितने ईमानदार हैं यह बताने की आवश्यकता
नहीं है । कई बार उपयोग के बाद मास्क कचरे के ढेर में या इधर-उधर पड़े मिलते हैं जिसके
सम्पर्क में आकर आवारा पशुओं, मुर्गियों और पक्षियों में संक्रमण की सम्भावनाएँ नयी समस्या को जन्म दे सकती हैं । टीवी में विज्ञापन आ रहे हैं, अपील की जा रही है कि मास्क अवश्य लगाएँ । किसी विज्ञापन में मिठाई वालों को यह नहीं बताया जाता कि वे
जिन हाथों से ग्राहक से नोट लेते हैं उन्हीं हाथों से मिठायी न छुएँ, किसी विज्ञापन में सब्जी वालों को यह नहीं
बताया जाता कि ड्रॉपलेट इन्फ़ेक्शन रोकने के लिए वे चीख-चीख कर सब्जी न बेचें । मास्क का विज्ञापन आवश्यक है, मास्क बिकेगा तो मास्क बनाने वाली कम्पनियों
को लाभ होगा । वैश्वीकरण की जीवनशैली ने हमें
एक-दूसरे के इतने समीप ला दिया है कि हमारी साँसें आपस में टकराए बिना नहीं रहतीं, आप किसी संक्रमण को कैसे रोक सकेंगे
...कहाँ-कहाँ रोक सकेंगे ?
बहुत सी वर्जनाएँ हैं जिनका सामान्य व्यवहार में पालन किया
जाना चाहिए । चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए पीपीई किट का प्रयोग आवश्यक
हो गया है, वाहनों को
विसंक्रमित किया जा रहा है, किसी भी अनजान सतह से शरीर के स्पर्श को
वर्ज्य माना जा रहा है, अभिवादन के लिए नमस्कार किया जाना
सुरक्षित माना जाने लगा है... इतने तामझाम के बाद भी ढेरों गलतियाँ हो जाती हैं और संक्रमण
को अवसर मिल ही जाता है । मेडिकल स्टाफ़ भी कोरोना की चपेट में आने से बच नहीं पा
रहा है, आख़िर यह चूक हो कहाँ रही है ?
कोरोना के शोर में अन्य व्याधियों से ग्रस्त रोगियों
की उपेक्षा होने लगी है । हृदयरोग, मधुमेह, अर्थ्राइटिस और रीनल डिस-ऑर्डर्स
आदि से पीड़ितों की समस्याएँ बढ़ रही हैं । चिकित्सा व्यवस्था अस्त-व्यस्त होने लगी है
। दिहाड़ी श्रमिकों, घुमंतू बंजारों, सेक्स-वर्कर्स,
किन्नरों और नाचने-गाने वाले लोक-कलाकारों के सामने जीवनयापन की समस्याएँ
हैं । शिक्षा व्यवस्था पटरी से उतर गयी है और पाकिस्तान अपने कोरोना संक्रमितों को
फ़िदायीन बनाकर भारत में घुसपैठ कराने में लगा हुआ है ।
सरकारों के पास और भी ढेरों काम हैं, आम नागरिक को अपनी भूमिका और दायित्व तय करने
होंगे ।
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