पराली
जल रही थी, दिल्ली वालों के फेफड़े सुलगने लगे थे, माननीय कोर्ट
जी ने पराली जलाने पर एक करोड़ रुपये का अर्थदण्ड सुना दिया. पराली अब भी जल रही है,
दिल्ली वालों के फेफ़ड़े अब भी सुलग रहे हैं । माननीय जी के फ़ैसले को
पराली जलाने वालों ने पराली के साथ ख़ाक कर दिया । दिल्ली दुनिया के सबसे अधिक
प्रदूषित शहरों की सूची से बाहर निकलने के लिये तड़पने लगी । पूसा विश्वविद्यालय ने
उपाय सुझाया ...जलाओ मत खाद बना लो । दिल्ली के राजा ने कहा ...खाद बनाने का खर्चा
हम दे देंगे । विज्ञापन पर करोड़ों रुपये खर्च होने लगे, खाद
बनाने पर भी करोड़ों रुपये खर्च होंगे ...जो आम आदमी की जेब से देर-सबेर वसूल कर
लिया जायेगा । दिल्ली का राजा ख़ुश है ...वन मोर बिजनेस इस क्रिएटेड फ़ॉर द वेलफ़ेयर
ऑफ़ माय रिआया । पराली जलाने वाले मस्त हैं, पराली अभी भी जल
रही है ।
हिमगिरि
के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह, एक व्यक्ति भीगे नयनों से देख
रहा था प्रबल प्रवाह । कामायनी की ये पंक्तियाँ पढ़ने के बाद मन में प्रश्न उठा था –
एक व्यक्ति ही क्यों, बाकी लोग कहाँ चले गये थे
?
इस प्रश्न
का उत्तर आज मिल गया है । पराली जलेगी, प्रदूषण होगा, ग्लोबल वार्मिंग होगी, ग्लेशियर पिघलेंगे, बाढ़ आयेगी, बाढ़ में सब कुछ तबाह हो जायेगा, कुछ लोग ऊँचे स्थान की ओर भागेंगे, हिमगिरि के उत्तुंग
शिखर तक पहुँचते-पहुँचते केवल एक व्यक्ति ही बचेगा ....बाकी सब बीच में ही मर जायेंगे
।
कृषिप्रधान
देश के लिये पराली कभी समस्या नहीं हो सकती किंतु विगत कुछ वर्षों से पराली को
खरपतवार की श्रेणी में सम्मिलित्त करके समस्या बना लिया गया है । पराली पशुओं का
आहार है । हमने गाँवों में पशुओं की संख्या बहुत कम कर दी है । बैलों का स्थान
ट्रैक्टर्स को दे दिया है । गोबर की प्राकृतिक खाद का स्थान केमिकल फ़र्टीलायज़र्स को
दे दिया है और उपजाऊ भूमि को बंजरभूमि में बदलने के आत्मघाती षड्यंत्र को अपना
उद्देश्य बना लिया है ।
खेत की
पराली और घर के बुज़ुर्ग प्रगतिशील समाज के लिये समस्या मान लिये गये हैं ।
बुज़ुर्गों के लिये वृद्धाश्रम हैं, पराली के लिये माचिस की एक
तीली है । समस्या क्रिएट करना और फिर उनका समाधान करना उन्नति और विकास के प्रतीक
हैं । हम दुनिया को समाप्त करने की ओर हर क्षण एक कदम और आगे बढ़ा रहे हैं ।
लोहकत बाटे मिलत नइ खे...
भोपाल प्रवास
से वापस बस्तर आ रहे चौरसिया जी को कोरोना ने पकड़ लिया, कहाँ जा
रहे हो मियाँ, इधर हम भी तो हैं ।
रास्ते में
ही फेफड़ों ने साँस लेने से इंकार कर दिया तो बेटे ने आनन-फानन में नागपुर में रुककर
एक अस्पताल में चौरसिया जी को भर्ती करवा दिया । ठीक एक माह बाद चौरसिया जी के शरीर
ने पूर्ण विराम लगा दिया । लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी चौरसिया जी अपने घर वापस
नहीं आ सके ...और इससे भी अधिक दुःखद बात यह कि मात्र दाल-चावल खाने के शौकीन चौरसिया
जी चाह कर भी दाल-भात खाये बिना ही चले गये । एक माह में वे एक बार भी दाल-भात नहीं
खा सके सके ।
बेशुमार
उपलब्धियों के बाद भी हम सब कितने विवश हैं ! बहुत कुछ पाकर भी हमें वह नहीं मिल पाता
जो किसी क्षण हमारे अस्तित्व के लिये बहुत आवश्यक होता है ।
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