रविवार, 27 दिसंबर 2020

फिसल रहा है किसान आंदोलन...

यह त्रासदीपूर्ण सच है कि कृषि उत्पादों का न्यायसंगत लाभ किसानों को नहीं मिल पाता । यह सच आज़ादी के पहले का भी है और आज़ादी के बाद का भी । ब्रिटिश इण्डिया में किसानों पर लादी गयी नील और कपास की खेती ने भी भारतीयों को आंदोलन के लिये विवश किया था । स्वतंत्र भारत में भी किसानों को समय-समय पर आंदोलन के लिये विवश होते रहना पड़ा है । वर्ष 2020 के अंतिम माह में एक बार फिर पञ्जाब और हरियाणा के किसानों ने दिल्ली की ओर कूच किया और नये कृषिसुधार कानूनों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया । किसी भी आंदोलन को प्रारम्भ करना मुश्किल होता है, उससे भी अधिक मुश्किल होता है प्रारम्भ किये गये आंदोलन को किसी और की झोली में जाने से बचा पाना । यह ठीक किसी भी स्वतंत्रतासंग्राम के लिये किये गये आंदोलन की तरह होता है जहाँ क्रांति कोई और करता है, सत्ता का प्रसाद कोई और ले जाता है ।

भारत के किसान आंदोलनों में अगले कई सालों तक याद किया जाता रहेगा 2020 का किसान आंदोलन । हमारे सामने प्रस्तुत किये गये वर्तमान परिदृश्य के अनुसार परिश्रम से कभी हार न मानने वाले पञ्जाब और हरियाणा के किसान ग़रीब हैं और कृषि सुधार कानूनों के विरुद्ध दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलनरत हैं । किसान आंदोलन में और भी कई लोगों ने प्रवेश पाने में सफलता पा ली है जो प्रधानमंत्री के मरने और ख़ालिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे हैं । टीवी पर वक्तव्य देने वाले कई तथाकथित किसान नेताओं द्वारा अपमानजनक शब्दों से प्रधानमंत्री का विरोध किया जा रहा है, उन्हें झूठा और किसानों का हत्यारा कहा जा रहा है । भारत के आम आदमी ने चौंककर देखा कि किसान आंदोलन डीविएट होकर एक राजनैतिक आंदोलन का रूप लेने लगा है । आंदोलन की पवित्रता और मूल उद्देश्यों को बचा पाना आंदोलनकारियों के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती बनता जा रहा है ।

किसान आंदोलन में कई संस्थाओं द्वारा आंदोलनकारियों के जीवन को सहज और अरामदायक बनाने के लिये अत्याधुनिक संसाधन उपलब्ध करवाये गये हैं । ये कौन लोग हैं जो ग़रीब किसानों के लिये धन की वर्षा किये दे रहे हैं ?

हम आपको तीस साल पीछे ले चलते हैं । यह कानपुर की आलू मण्डी है जहाँ आढतियों का एकछत्र साम्राज्य है । कई जिलों के किसान ट्रकों में अपना आलू लेकर यहाँ आते रहे हैं और आढ़तिये उनकी आवभगत करते रहे हैं । यहाँ ग़रीब किसानों को रिझाने के लिये कई चीजें हैं, मसलन सुबह-सुबह मलाई वाली चाय, नाश्ते में खोये की मिठाइयाँ, होटल में भोजन की व्यवस्था, रात में सोने के लिये आरामदायक व्यवस्था, और इस सबसे बढ़कर मीठी-मीठी बोली । मौसम के तेवरों को झेलने के अभ्यस्त किसान को आलू मण्डी में ससुराल का सा आभास होने लगता है और सम्मोहित किसान इन चंद दुर्लभ क्षणों को भरपूर जी लेना चाहता है । इस बीच आढ़तिये व्यापारियों से सौदा करते हैं, मोल-भाव करते हैं, किसान का माल तौलवाते हैं, आलू के कुल भार में से आलू में लगी मिट्टी का औसत भार घटा कर व्यापारी से कीमत लेते हैं और फिर किसान से हिसाब-किताब करते हैं । किसान को विदा करने का समय समीप आता है तो आढ़तिये उसे बिल थमाते हैं जिसमें आलू की कीमत में से बारदाना और तौलाई के मूल्य से लेकर धर्मादा खाता के लिये दानराशि और किसान को उपलब्ध करवायी गयी सभी सेवाओं का बाजार मूल्य काट कर शेष राशि उसे बड़े प्यार से थमा दिया करते हैं ।

मण्डी में आलू का मूल्य मिलने से पहले ही किसान एक ख़रीददार बन जाता है ...कई सुविधाओं का । किसान की उपज का मूल्य घर में आने से पहले ही निर्मम मण्डी के तौर तरीकों की भेंट चढ़ने लगता है जो व्यापार का एक सोलह आने कठोरता वाला दस्तूर है ।

कानपुर के आसपास के कई जिलों के किसान वर्षों से आलू की खेती करते रहे हैं, कभी नफ़ा तो कभी नुकसान को झेलते रहे हैं और माँग करते रहे हैं कि उनके क्षेत्र में आलू से स्टार्च और अल्कोहल बनाने की फ़ैक्ट्रीज़ स्थापित की जाएँ जिससे किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिल सके । इन किसानों में सैफई के किसान भी हैं और कन्नौज के किसान भी जहाँ डॉक्टर राममनोहर लोहिया के सिद्धांतों पर राजनीति करने वाले किसान हितैषी नेताओं की सरकार लम्बे समय तक राज करती रही है ।    

आंदोलन से पहले किसान को अपनी समस्याओं के मूल स्वरूप को पहचाना होगा और फिसलकर राजनीतिज्ञों के चंगुल में जाने से स्वयं को बचाना होगा ।


गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

भारत पर बलोचों और पख़्तूनों का ऋण...


पैंतीस साल की तरुणी क़रीमा बलोच अब इस दुनिया में नहीं है । पाकिस्तानी सेना द्वारा की जा रही बलोचों के साथ अमानवीय प्रताड़नाओं और निर्दोष युवाओं की हत्या के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली बलोच एक्टीविस्ट क़रीमा बलोच को अपहरण और तीन दिन तक प्रताड़नाओं के बाद कनाडा में मार दिया गया । करीमा की किस्मत महबूबा मुफ़्ती जैसी नहीं थी । दोनों विरोध के स्वर उठाती रही हैं किंतु करीमा को मार दिया गया, जबकि भारत में रहते तक महबूबा की ज़िंदगी को कोई ख़तरा नहीं है । करीमा ने उस देश की सेना के अत्याचारों का विरोध किया जिसने उसके देश पर हमला करके उसे बलात अपने कब्ज़े में ले लिया है । महबूबा अपने ही देश की उस सेना का विरोध करती रही हैं जो उन्हें संरक्षण देती रही है । करीमा आक्रमणकारी देश पाकिस्तान से आज़ादी चाहती थीं । महबूबा अपने ही देश भारत से आज़ादी चाहती हैं । करीमा का विरोध क्रांति है, महबूबा का विरोध बगावत है । करीमा की क्रांति उस बलोच समाज के लिये है जो निर्दोष है और जिसके अधिकारों को पिछले तिहत्तर सालों से कुचला जाता रहा है । महबूबा की बगावत उस देश के विरुद्ध है जिसने उन्हें वह सब कुछ दिया जिसकी वह कभी वास्तविक हकदार नहीं रहीं ।

भारत और पाकिस्तान में यह भी एक मौलिक अंतर है कि वहाँ विरोध के स्वरों को बुरी तरह कुचल दिया जाता है जबकि भारत में विरोध के स्वर रातोरात सेलिब्रिटी हो जाते हैं और उन्हें वी.आई.पी. सुविधायें दे दी जाती हैं ।

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान की तरह करीमा भी भारत को बलोचों का कर्ज़दार बनाकर विदा हो गयीं । इसी साल रक्षाबंधन पर करीमा ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राखी भेजकर बलोचों की आवाज़ की रक्षा की याचना की थी ।

अखण्ड भारत के पक्षधर रहे ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को पाकिस्तान सरकार ने जेल में डाल दिया । लगभग दो दशक तक पाकिस्तान की जेल में रहने के बाद जेल से छूटते ही सीमांत गांधी 1970 में सबसे पहले भारत ही आये थे और उन्होंने पख़्तूनों को पाकिस्तान से आज़ादी दिलाने की लड़ाई में साथ देने की अपील की थी । भारत के स्वतंत्रता आंदोलन संग्राम में उनके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता । ख़ान को अपने अंतिम दिनों तक भारत से एक ही मार्मिक शिकायत रही थी – “हमें भेड़ियों के लिये छोड़ दिया”।

मोतीहारी वाले मिसिर जी मानते हैं कि करीमा से बहुत पहले बादशाह ख़ान भी जाते-जाते शेष भारत को पख़्तूनों का कर्ज़दार बना गये थे । इस तरह अखण्ड भारत की माँग करने वाले बलोचों और पख़्तूनों का अपने मातृदेश भारत पर बहुत बड़ा ऋण है । बलोचों और पख़्तूनों के प्रति उनके मातृदेश भारत का नैतिक दायित्व बनता है जिसे गम्भीरता से पूरा किया जाना चाहिये ।   

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

असभ्य...

क्रोध से उफनते अनियंत्रित जलप्रवाह को

जब नहीं रोक सकेंगे तुम्हारे कोई भी प्रयास

छिपाने लगेंगे मुँह

तुम्हारे सारे चमत्कार

असमर्थ हो जायेगी बुलेट ट्रेन

रह जायेंगे अवाक

ध्वनि की गति से उड़ने वाले वायुयान

दिखाने लगेंगी ठेंगा

संदेश ले जाने वाली सारी सूक्ष्म तरंगें

डूब जायेंगे अंतिम कंगूरे भी

तब, खण्ड प्रलय के बाद

बचे रहेंगे

कुछ गीत

कुछ नृत्य

और

हिमालय की उत्तुङ्ग चोटियों पर

चराते हुये याक

कुछ चरवाहे ।

बसेगी

फिर ....एक नई दुनिया

उन्हीं चरवाहों से

लिखा जायेगा जिन्हें असभ्य

नयी दुनिया की नई किताबों में ।

दानद्वेष...

भारत में दान की एक उदार परम्परा रही है जिसने भारत की आर्य संस्कृति को और भी समृद्ध किया है । जैसा कि हर स्वस्थ परम्परा के साथ होता है, समय के साथ-साथ इस परम्परा में भी क्षय होता रहा जिसके कारण भारतीय समाज में दानवीरों की संख्या नगण्य सी होने लगी । हमारे समाज में जहाँ दानदाताओं की कमी हुयी है वहीं दान लेने वालों की भी कमी हुयी है । दीपदान और पुस्तकदान जैसी हमारी उत्कृष्ट दान परम्परायें भी अब बहुत कम देखने को मिलती हैं ।

दान के मामले में हमारा अनुभव बहुत विचित्र रहा है । दानद्वेष (Aversion to donation) का यह मामला दानदाता की ओर से नहीं बल्कि दान ग्रहण करने वाले की ओर से है । पुस्तकों से लगाव रहने के कारण हमारे पास उत्कृष्ट हिंदी साहित्य और दर्शनशास्त्र से लेकर मेडिकल साइंस जैसे विभिन्न विषयों पर पुस्तकों का बहुत अच्छा संकलन हो गया है । हमारा मानना है कि अच्छी पुस्तकें अधिक से अधिक सुपात्र पाठकों तक पहुँचनी चाहिये, यही सोचकर हमने पिछले लगभग एक दशक से शिक्षण संस्थाओं और पुस्तकालयों को पुस्तकें दान करने का सिलसिला प्रारम्भ किया है । दुःखद यह है कि हमें इन दोनों ही स्थानों में सुपात्रता का प्रायः अभाव ही देखने को मिला है । अभी तक मात्र एक विद्यालय, एक पुस्तकालय और एक व्यक्ति ने ही पुस्तकदान को सहर्ष स्वीकार किया शेष लोगों ने पुस्तकदान लेने में या तो उदासीनता दिखायी या फिर बहुत आनाकानी की । हमारे शिक्षित समाज के इस आइने को भी देखना और जानना सुधीजनों के लिये आवश्यक है ।

हमारे शहर में एक बहुत बड़ी शिक्षण संस्था है । मन में आया कि पुस्तकदान के लिये इससे अधिक उपयुक्त स्थान और क्या हो सकता है! बस, हमने एक थैले में बहुत सी पुस्तकें भरीं और पहुँच गये शिक्षण संस्था में किंतु हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब संस्था के कर्मचारी ने पुस्तकें देखे बिना ही दान में स्वीकार करने से साफ़ इंकार कर दिया । हमारे समझाने-बुझाने का भी उस कर्मचारी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा किंतु अंत में उस कर्मचारी ने सुझाव दिया कि यदि संस्था के मालिक सिफ़ारिश करेंगे तो वह ये पुस्तकें स्वीकार कर लेगा । हम थैला उठाकर संस्था के  मालिक के पास पहुँचे और उनसे निवेदन किया कि वे अपने कर्मचारी से पुस्तकें स्वीकार करने की सिफ़ारिश कर दें । हमारे आश्चर्य ने सीमाओं से परे जाकर कुछ और आयाम तय करते हुये हमारी आँखें निकालकर हमारी हथेली पर रख दीं जब संस्था के मालिक ने भी पुस्तकें देखे बिना ही लेने से साफ इंकार कर दिया । हमने यह सोचा भी नहीं था कि हमें ये पुस्तकें वापस लेकर आना होगा । हमने मोर्चा सँभाला और मालिक को मनाने में जुट गये । एक बहुत लम्बी चर्चा के बाद अंततः मालिक ने कृपा की और अपने कर्मचारी को बुलाकर सिफ़ारिश कर दी । हम ख़ुश हुये ।

संस्था के कर्मचारी को यह सिफ़ारिश शायद अच्छी नहीं लगी, उसने एक ओर उँगली से संकेत करते हुये उपेक्षा से कहा अपना थैला वहाँ छोड़ दीजिये । हमने कहा, हम पुस्तकें निकालकर वहाँ रख देंगे आप बाद में यथास्थान रख लीजियेगा । कर्मचारी ने कहा, थैले में से निकाल कर रखेंगे तो हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी, आप थैले सहित छोड़ कर जाइये । हमें कर्मचारी की आज्ञा का पालन करना पड़ा ।

इस घटना के बाद से अब हम अपने शहर की किसी संस्था को पुस्तकें दान करने से डरने लगे हैं । यह हमारी असफलता है कि हम अपने शहर में पुस्तकदान के लिये सुपात्र संस्थाओं को खोज नहीं पा रहे हैं । अब हम सोच रहे हैं कि हमें अपनी पुस्तकों के भंडार का एक हिस्सा काँगड़ा मेडिकल कॉलेज को और एक हिस्सा नैनीताल की जिला लाइब्रेरी को देना चाहिये, किंतु बस्तर से काँगड़ा और नैनीताल तक इतनी पुस्तकें लेकर जाना इतना सरल है क्या!


गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

यात्रा...

धूप में तपिश

तब भी थी, आज भी है

हवायें

तब भी चलती थीं, आज भी चलती हैं

जल

तब भी प्यास बुझाता था, आज भी बुझाता है

चिड़ियाँ

तब भी कलरव करती थीं, आज भी करती हैं

केवल समय

कुछ और आगे बढ़ गया है ।

गर्भ में

आशाओं का भण्डार लिये

एक कली

लिखकर अपने पीछे एक उत्तराधिकार

मुरझा कर

झर चुकी है

झरी हुयी पंखुड़ियों को

अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता

न धूप, न हवा, न जल और न चिड़ियों का कलरव ।

काल सापेक्ष है यह सम्पूर्ण यात्रा

मिलन और विरह की तरह । 

बुधवार, 9 दिसंबर 2020

एक आंदोलन ज़हर के विरुद्ध भी क्यों नहीं...

खुजली...

महीनों दवाइयाँ खाने के बाद भी यदि खुजली ठीक नहीं हो रही है तो अपनी जीवनशैली पर ध्यान देना होगा । जीवनशैलीजन्य दुष्प्रभावों को दवाइयों से समाप्त नहीं किया जा सकता ।

एक्ज़ीमा, सोरियासिस और टीनिया जैसे चर्म रोगों के अतिरिक्त अग्न्याशय, लिवर, किडनी और थायरॉयड की समस्याओं के कारण भी खुजली हो सकती है । सही चिकित्सा से इन्हें ठीक या नियंत्रित किया जा सकता है किंतु जो खुजली तमाम दवाइयों के बाद भी ठीक नहीं होती उसके आगे हर कोई हथियार डालता दिखायी देता है । ओपियॉइड जैसी दवाइयों के स्तेमाल से होने वाली खुजली ओपियॉइड का स्तेमाल बंद कर देने से ठीक की जा सकती है किंतु उन रसायनों का क्या जिन्हें डियो, साबुन और खाद्यपदार्थों के रूप में हम अपनी जीवनशैली में सम्मिलित कर चुके हैं ?

दूध से लेकर सब्जियों, फलों और अनाजों में भी हम बेशुमार ज़हर घोलते जा रहे हैं । कौन घोल रहा है यह ज़हर? कहाँ से मिलता है व्हाइट और ग्रीन रिवोल्यूशनर्स को यह ज़हर ? कोई प्रतिबंधित क्यों नहीं करता इन तमाम ज़हरों को ? किसान और डेयरी वाले कोई संगठन इस ज़हर के विरुद्ध कोई आंदोलन क्यों नहीं करते ? आम जनता ख़ुशी-ख़ुशी इस ज़हर को क्यों अपने शरीर में झोंकती जा रही है ? स्वास्थ्य सीमाओं का निरंतर उल्लंघन करते रहने के लिये आप दोषी किसे ठहरायेंगे ?

अभी हमने केवल ज़हरीले रसायनों की बात की है, जेनेटिकली मोडीफ़ायड फसलों की बात फिर कभी करेंगे जो मनुष्य की नस्ल के लिये ही गम्भीर चुनौती बन चुकी हैं ।

एक आंदोलन इसके लिये भी क्यों नहीं?

दवाइयों का विशाल मार्केट होता है, मार्केट में ग्राहकों की भीड़ होती है । ग्राहकों की संख्या में निरंतर वृद्धि मार्केट का उसूल होता है । इशारा स्पष्ट है, जो समझे उसका भला, जो ना समझे उसका भी भला ।

हवा में ज़हर है, पानी में ज़हर है, अन्न में ज़हर है, फलों-सब्जियों और दूध में भी ज़हर है जिसके कारण असाध्य बीमारियों की बहार है । ज़हर हमारे चिंतन में भी व्याप्त हो चुका है । भारत में सेरिब्रल पैल्सी, कैंसर, ओबेसिटी, डायबिटीज़, थायरॉयड, मल्टीपल ओवेरियन सिस्ट, फ़ाइब्रॉयड यूटेरस, ऑब्सेसिव कम्पल्सिव बिहैवियर, अल्ज़ाइमर और पार्किंसंस जैसी गम्भीर बीमारियाँ बढ़ती ही जा रही हैं । क्या इनके कारणों की व्यापकता पर भी कभी कोई समुद्रमंथन होगा ? 

दिल्ली की सीमाओं पर अन्नदाता आंदोलनरत हैं ...किंतु उनकी माँगों में खाद्यपदार्थों में ज़हर घोलने वाले रसायनों पर प्रतिबंध लगाये जाने की माँग़ सम्मिलित नहीं है ।

हमारे आदरणीय अन्नदाता गोभी पर ज़हरीली दवाई स्प्रे करते हैं जिससे वह अगले दिन तक बेचने लायक हो जाय । हमारे पूज्य अन्नदाता लौकी, बैंगन, तरबूज आदि के डंठल में इंजेक्शन लगाते हैं जिससे अल्पसमय में ही वह सब्जी इतनी बड़ी हो जाय कि उसे तुरंत बेचा जा सके । फसल के परिपक्व होने में लगने वाले प्राकृतिक समय तक कोई प्रतीक्षा नहीं करना चाहता । किसानों को एक-दो दिन में ही अपेक्षित परिणाम चाहिये, फिर भले ही वह ज़हर के इंजेक्शन द्वारा क्यों न मिले ।

भ्रूण को विकसित होने में लगने वाली निर्धारित अवधि में कटौती करके उसे रातोरात विकसित कर डालने की मानसिकता इस धरती से मनुष्यों को समाप्त कर देगी ।

प्राकृतिक विकास में लगने वाले समय को क़ैद करने की रावणी वृत्ति व्यापक हो चुकी है । एक आंदोलन इसके लिये भी क्यों नहीं होना चाहिये ?