यह त्रासदीपूर्ण
सच है कि कृषि उत्पादों का न्यायसंगत लाभ किसानों को नहीं मिल पाता । यह सच आज़ादी के
पहले का भी है और आज़ादी के बाद का भी । ब्रिटिश इण्डिया में किसानों पर लादी गयी नील
और कपास की खेती ने भी भारतीयों को आंदोलन के लिये विवश किया था । स्वतंत्र भारत में
भी किसानों को समय-समय पर आंदोलन के लिये विवश होते रहना पड़ा है । वर्ष 2020 के अंतिम
माह में एक बार फिर पञ्जाब और हरियाणा के किसानों ने दिल्ली की ओर कूच किया और नये
कृषिसुधार कानूनों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया । किसी भी आंदोलन को प्रारम्भ करना मुश्किल
होता है, उससे भी अधिक मुश्किल होता है प्रारम्भ किये गये आंदोलन को किसी और की झोली
में जाने से बचा पाना । यह ठीक किसी भी स्वतंत्रतासंग्राम के लिये किये गये आंदोलन
की तरह होता है जहाँ क्रांति कोई और करता है, सत्ता का प्रसाद
कोई और ले जाता है ।
भारत के
किसान आंदोलनों में अगले कई सालों तक याद किया जाता रहेगा 2020 का किसान आंदोलन । हमारे
सामने प्रस्तुत किये गये वर्तमान परिदृश्य के अनुसार परिश्रम से कभी हार न मानने वाले
पञ्जाब और हरियाणा के किसान ग़रीब हैं और कृषि सुधार कानूनों के विरुद्ध दिल्ली की सीमाओं
पर आंदोलनरत हैं । किसान आंदोलन में और भी कई लोगों ने प्रवेश पाने में सफलता पा ली
है जो प्रधानमंत्री के मरने और ख़ालिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे हैं । टीवी पर वक्तव्य
देने वाले कई तथाकथित किसान नेताओं द्वारा अपमानजनक शब्दों से प्रधानमंत्री का विरोध
किया जा रहा है, उन्हें झूठा और किसानों का हत्यारा कहा जा रहा है । भारत के आम आदमी ने
चौंककर देखा कि किसान आंदोलन डीविएट होकर एक राजनैतिक आंदोलन का रूप लेने लगा है ।
आंदोलन की पवित्रता और मूल उद्देश्यों को बचा पाना आंदोलनकारियों के लिये एक बहुत बड़ी
चुनौती बनता जा रहा है ।
किसान आंदोलन
में कई संस्थाओं द्वारा आंदोलनकारियों के जीवन को सहज और अरामदायक बनाने के लिये अत्याधुनिक
संसाधन उपलब्ध करवाये गये हैं । ये कौन लोग हैं जो ग़रीब किसानों के लिये धन की वर्षा
किये दे रहे हैं ?
हम आपको
तीस साल पीछे ले चलते हैं । यह कानपुर की आलू मण्डी है जहाँ आढतियों का एकछत्र साम्राज्य
है । कई जिलों के किसान ट्रकों में अपना आलू लेकर यहाँ आते रहे हैं और आढ़तिये उनकी
आवभगत करते रहे हैं । यहाँ ग़रीब किसानों को रिझाने के लिये कई चीजें हैं, मसलन –
सुबह-सुबह मलाई वाली चाय, नाश्ते में खोये की मिठाइयाँ,
होटल में भोजन की व्यवस्था, रात में सोने के लिये
आरामदायक व्यवस्था, और इस सबसे बढ़कर मीठी-मीठी बोली । मौसम के
तेवरों को झेलने के अभ्यस्त किसान को आलू मण्डी में ससुराल का सा आभास होने लगता है
और सम्मोहित किसान इन चंद दुर्लभ क्षणों को भरपूर जी लेना चाहता है । इस बीच आढ़तिये
व्यापारियों से सौदा करते हैं, मोल-भाव करते हैं, किसान का माल तौलवाते हैं, आलू के कुल भार में से
आलू में लगी मिट्टी का औसत भार घटा कर व्यापारी से कीमत लेते हैं और फिर किसान से हिसाब-किताब
करते हैं । किसान को विदा करने का समय समीप आता है तो आढ़तिये उसे बिल थमाते हैं जिसमें
आलू की कीमत में से बारदाना और तौलाई के मूल्य से लेकर धर्मादा खाता के लिये दानराशि
और किसान को उपलब्ध करवायी गयी सभी सेवाओं का बाजार मूल्य काट कर शेष राशि उसे बड़े
प्यार से थमा दिया करते हैं ।
मण्डी में
आलू का मूल्य मिलने से पहले ही किसान एक ख़रीददार बन जाता है ...कई सुविधाओं का । किसान
की उपज का मूल्य घर में आने से पहले ही निर्मम मण्डी के तौर तरीकों की भेंट चढ़ने लगता
है जो व्यापार का एक सोलह आने कठोरता वाला दस्तूर है ।
कानपुर
के आसपास के कई जिलों के किसान वर्षों से आलू की खेती करते रहे हैं, कभी
नफ़ा तो कभी नुकसान को झेलते रहे हैं और माँग करते रहे हैं कि उनके क्षेत्र में आलू
से स्टार्च और अल्कोहल बनाने की फ़ैक्ट्रीज़ स्थापित की जाएँ जिससे किसानों को उनकी
उपज का उचित मूल्य मिल सके । इन किसानों में सैफई के किसान भी हैं और कन्नौज के
किसान भी जहाँ डॉक्टर राममनोहर लोहिया के सिद्धांतों पर राजनीति करने वाले किसान
हितैषी नेताओं की सरकार लम्बे समय तक राज करती रही है ।
आंदोलन से
पहले किसान को अपनी समस्याओं के मूल स्वरूप को पहचाना होगा और फिसलकर राजनीतिज्ञों
के चंगुल में जाने से स्वयं को बचाना होगा ।