अपनी हस्ती मिटाकर
मिल गयी मिट्टी में
वो मिट्टी भी
जो हँसती थी कभी
बोलती थी कभी ।
वो मिट्टी न होती
तो ये ताज न होता तेरे सर पे ।
नाम न पूछ
इतिहास में चिंगारियों के नाम नहीं
लिखता कोई
कागज जल उठेंगे ।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को दो
हिस्सों में देखा जाता है, एक वह
जो ईस्ट-इण्डिया कम्पनी सरकार के विरुद्ध राजाओं, नवाबों
और विद्रोही सिपाहियों द्वारा लड़ा गया और दूसरा वह जो ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध
राजाओं और
नवाबों के अतिरिक्त आम हिंदुस्तानियों और
क्रांतिकारियों द्वारा भी लड़ा गया । हम इसे दो हिस्सों में बाँटे जाने के पक्ष में
नहीं हैं क्योंकि हर हाल में यह सारी उठा-पटक अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ही थी चाहे वह
कम्पनी हो या फिर ब्रिटिश सत्ता । यदि 1857 में ईस्ट इण्डिया के ख़िलाफ़ बगावत न
हुयी होती तो शायद हम आज भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ग़ुलाम होते । आज हम जिस भी
स्थिति में हैं उसके लिये बदलाव की उस आँधी को समग्र रूप में देखना होगा जो
अंग्रेज़ी अत्याचारों के ख़िलाफ़ चलती रही ।
“घरों पर तबाही पड़ी सहर में, खुदे
मेरे बाज़ार, हज़रत
महल ।
तू ही बाइस-ए-ऐशो आराम है ग़रीबों की
ग़मख़्वार, हज़रत
महल”।
सन् 1856 में कलकत्ता रवाना होने से
पहले नवाब वाज़िद अली शाह ने बड़ी हसरत और गहरे दर्द के साथ लख़नऊ का दारोमदार हज़रत
महल के हवाले किया और रवाना हो गये । तलवार सत्ता को हासिल करती है और धन अवाम पर
हुकूमत करता है । ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पास तलवार भी थी और पैसा भी, उसके
मुकाबले तत्कालीन भारत की कुल 579 रियासतों में से मात्र इक्कीस रियासतों के पास
पैसा तो था लेकिन उस पैसे की हिफ़ाज़त करने की ताकत नहीं थी । लालची और धूर्त अंग्रेज़ों
ने अवसर का लाभ उठाया और भारत में व्यापार करने वाली ब्रिटेन की व्यापारिक कम्पनी एक-एक
कर भारतीय रियासतें हड़पने में लग गयी । अंग्रेज़ों
का अत्याचार बढ़ने लगा तो हिंदुस्तान की अवाम अंदर ही अंदर बगावती होने लगी । कुछ राजा-रजवाड़े
और नवाब तो अंग्रेज़ों के आगे अपना ज़मीर बेचने में लगे थे तो बहुत से ऐसे भी थे जो
भीतर ही भीतर अंग्रेज़ों से लोहा लेने के लिये जंगी तैयारियाँ कर रहे थे । मातंगिनी
हाजरा और बेगम हज़रत महल जैसी स्त्रियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया, वह बात
अलग है कि उन्हें सफलता की जगह पर सिर्फ़ तबाही ही तबाही मिली ।
धीरे-धीरे, ईस्ट इण्डिया
कम्पनी की चपेट में आ चुके हिंदुस्तान के बहुतेरे भाग में कम्पनी सरकार के ख़िलाफ़
अवाम का गुस्सा बेकाबू होने लगा । एक समय वह भी आया जब समाज की तिरस्कृत समझे जाने
वाली तवायफ़ों ने भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया । इतिहास में इनका कहीं
कोई नाम नहीं है, यहाँ तक
कि लोकगीतों में भी इन्हें कोई स्थान नहीं मिल सका । तवायफ़ों के अतिरिक्त
भटियारिनों और सरायवालियों ने भी स्वतंत्रता संग्राम में जो किया वह भुलाया नहीं
जाना चाहिये । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारत की यह वो परित्यक्त मिट्टी थी
जिसकी ख़ुश्बू ने स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं के लिये गुप्त मार्ग खोल दिये थे ।
क्रांति में सहायक बने बहुत से लोग ऐसे भी रहे हैं जिनकी महत्वपूर्ण भूमिकाओं के बाद
भी इतिहास में उनकी कहीं कोई चर्चा नहीं होती । गन्ने के खेत में छिपे क्रांतिकारियों
को चुपचाप भोजन-पानी पहुँचाने, भागने के
लिये यथाशक्ति धन उपलब्ध करवाने, उन्हें अंग्रेज़ी
गतिविधियों की गुप्त सूचना देने वाले... अनजान ग्रामीणों में गाँवों के वृद्धजनों और
बच्चों की कहीं कोई गणना नहीं है, किंतु भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम की ये वो कड़ियाँ थीं जिन्होंने क्रांति को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभायी थी ।
कला और तहज़ीब की परम्परा को पीढ़ी दर
पीढ़ी आगे ले जाने वाली तवायफ़ों के कोठों पर हर कोई आया करता था– क्रांतिकारी, सेनानी, अमीर, उमरे, ज़मींदार, नवाब और यहाँ
तक कि अंग्रेज़ भी । शुरुआती दिनों में कोठे और सराय क्रांतिकारियों के लिये निरापद
स्थान हुआ करते थे किंतु बाद में राज खुल जाने पर अंग्रेज़ों की वक्रदृष्टि से
वेश्यायें, भटियारिनें
और सरायवालियाँ भी बच नहीं सकीं । क्रांतिकारियों की गुप्त बैठकों, सूचनाओं
के आदान-प्रदान और
जासूसी के अतिरिक्त इस वर्ग ने आर्थिक रूप से भी न केवल क्रांतिकारियों बल्कि
गांधी के अवज्ञा आंदोलन में भी अपनी महत्वपूर्ण आहुतियाँ डाली थीं । कानपुर, लख़नऊ, बनारस, बलिया, मुज़फ़्फ़रनगर
और मुर्शिदाबाद की तवायफ़ें आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हुआ करती थीं, अंग्रेज़ों
के ख़िलाफ़ नफ़रत ने उन्हें अपना सब कुछ देश के लिये न्योछावर कर देने के लिये
उत्साहित कर दिया था । अंग्रेज़ों को जब पता चला तो उन्होंने कई तवायफ़ों और
सरायवालियों को बंदी बनाकर उन पर शारीरिक यातनाओं का कहर ढाना शुरू कर दिया और उनकी
सम्पत्तियाँ ज़ब्त कर लीं । उन्हें तबाह कर दिया गया उनमें से कई तो दाने-दाने को
मोहताज होने लगीं, फिर भी
उनके उत्साह और देशप्रेम में जरा भी कमी नहीं आयी और उन्होंने हर हाल में क्रांति
की अलख को जलाये रखा ।
कानपुर के जिन लोगों ने शहर की तवायफ़
अज़ीज़नबाई को मर्दाना लिबास में पिस्तौल के साथ घोड़े पर देखा वही अपनी माटी के
प्रति उसकी सरफ़रोशी का ऋणी हो गया । वह जासूस थी, ख़बरी थी
और स्वतंत्रता सेनानी भी । अज़ीज़नबाई की तारीफ़ में किसी ने कहा– “तेरे यलगार में
तामीर थी तखरीब न थी, तेरे
ईसार में तरग़ीब थी तादीब न थी”।
बनारस की हुस्ना बाई ने तो बाकायदा एक
तवायफ़ सभा बनाकर विदेशी सामानों का
बहिष्कार किया और गहनों के स्थान पर लोहे की कड़ियाँ पहनने का आह्वान किया ।
तवायफ़ों ने भारत के लिये जो किया उसके लिये हर भारतीय उनके बलिदान और त्याग का
कर्ज़दार है ।
यह किस्सा है कानपुर की हुसैनी ख़ानम बेगम का जो नाना साहब की रखैल हुआ करती थीं । तारीख़ थी14 मई और साल था 1857 का जब दोपहर के वक़्त कम्पनी सरकार के अधिकारी क्रांतिकारियों के डर से अपने-अपने परिवार के साथ गंगा के रास्ते नाव से इलाहाबाद भागने की तैयारी में थे । नाना साहब के साथी भी आसपास ही थे, तभी कम्पनी के कुछ अधिकारियों ने क्रांतिकारियों पर गोली चला दी जिससे क्रांतिकारी बेकाबू हो गये और उन्होंने नावों पर हमला कर दिया । क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों की स्त्रियों और बच्चों को अलग करके मर्दों को गोली मार दी । बाद में नानाराव के आदेश से उन सभी स्त्रियों और बच्चों को बीबीघर भेज दिया गया जो कम्पनी अधिकारियों की अय्याशगाह हुआ करती थी और जहाँ उनकी ख़िदमत में भारतीय लड़कियों को परोसा जाता था । नाना ने उनकी सुरक्षा के लिये हुसैनी खानम बेगम और कुछ सुरक्षा कर्मियों को तैनात कर दिया । नाना की यह इंसानियत उनके किसी काम नहीं आयी । बीबीघर की अंग्रेज़ स्त्रियों ने कम्पनी सरकार के लिये जासूसी शुरू कर दी और इलाहाबाद सूचनायें पहुँचाने लगीं । ज़ल्दी ही अहसानफ़रामोश अंग्रेज़ों ने कानपुर को चारो ओर से घेरना शुरू कर दिया जिससे क्रोधित होकर तात्या टोपे ने बीबीघर की स्त्रियों और बच्चों को मार देने का संदेश भिजवाया । नाना और उनके क्रांतिकारी साथियों ने तात्या के इस आदेश को मानने से इन्कार कर दिया । तब हुसैनी ख़ानम बेगम ने अपने आशिक सरवर ख़ान की मदद ली जो दो मुसलमान कसाइयों और दो अन्य हिन्दुओं को लेकर आया जिनमें से एक की पहचान सौराचंद के रूप में हुयी । इन लोगों ने 15 जुलाई1857 को बीबीघर की कुल 73 अंग्रेज़ स्त्रियों और उनके 125 बच्चों को तलवार से काट डाला । सुबह उनकी लाशें बीबीघर के बड़े कुएँ में फेक दी गयीं । कानपुर में जिस समय यह सब हो रहा था उसी समय फ़तेहगढ़ में कम्पनी सरकार के सैनिक भारतीय क्रांतिकारियों के ज़िंदा ज़िस्मों में आग लगाकर उन्हें हवा में उछाल रहे थे और उनकी चीखों पर ज़श्न मना रहे थे ।
बीबीघर नरसंहार के बाद अंग्रेज़ों ने
कानपुर के आसपास के कई गाँवों में आग लगा दी और नानाराव पार्क में बरगद के पेड़ पर135
क्रांतिकारियों को एक साथ फाँसी पर लटका दिया । कानपुर की ही एक और तवायफ़ होस्सैनी
बाई इस नरसंहार की मुख्य योजनाकारों में से एक थीं ।
कानपुर विद्रोह के बाद कम्पनी ने कानपुर
और उसके आसपास के गाँवों में आगजनी और कत्लेआम किया जिसमें छह हजार लोग मारे गये
और कई क्रांतिक्कारियों को फाँसी दी गयी । कम्पनी के अधिकारी ब्राम्हणों को
पकड़-पकड़ कर पहले तो उन्हें बीबीघर की फ़र्श पर पड़े ख़ून को जीभ से चाटकर साफ़ करवाते
और फिर उनकी हत्या कर देते । 31 जुलाई 1857 को एक और घटना हुयी, कम्पनी
अधिकारियों के हुक्म से मुस्लिम क्रांतिकारियों के मुँह में ज़बरन सुअर का और
हिन्दू क्रांतिकारियों के मुँह में गाय का माँस ठूसा गया फिर उनकी हत्या कर दी गयी
। कम्पनी के अधिकारी ने कहा कि हम तुम्हें मरने के बाद भी स्वर्ग का हकदार नहीं
बनने देंगे ।
यह तो छोड़िये, 15 अगस्त
सन् 1947 को जबकि भारत को आज़ाद कर दिया गया था, सुबह
सतना के आज़ाद मैदान में जब उपस्थित भीड़ में से कोई राष्ट्रगीत गाने के लिये तैयार
नहीं हुआ तो वहाँ की तवायफ़ पंखुड़ीजान ने ही आगे बढ़कर बंकिमचंद्र के लिखे गीत को
गाने का साहस किया ।