मंगलवार, 21 दिसंबर 2021

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की योद्धा तवायफ़ों की अनकही कहानियाँ

          अपनी हस्ती मिटाकर

मिल गयी मिट्टी में

वो मिट्टी भी

जो हँसती थी कभी

बोलती थी कभी  

वो मिट्टी न होती

तो ये ताज न होता तेरे सर पे ।

नाम न पूछ

इतिहास में चिंगारियों के नाम नहीं लिखता कोई

कागज जल उठेंगे ।

 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को दो हिस्सों में देखा जाता है, एक वह जो ईस्ट-इण्डिया कम्पनी सरकार के विरुद्ध राजाओं, नवाबों और विद्रोही सिपाहियों द्वारा लड़ा गया और दूसरा वह जो ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध राजाओं और नवाबों के अतिरिक्त आम हिंदुस्तानियों और क्रांतिकारियों द्वारा भी लड़ा गया । हम इसे दो हिस्सों में बाँटे जाने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि हर हाल में यह सारी उठा-पटक अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ही थी चाहे वह कम्पनी हो या फिर ब्रिटिश सत्ता । यदि 1857 में ईस्ट इण्डिया के ख़िलाफ़ बगावत न हुयी होती तो शायद हम आज भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ग़ुलाम होते । आज हम जिस भी स्थिति में हैं उसके लिये बदलाव की उस आँधी को समग्र रूप में देखना होगा जो अंग्रेज़ी अत्याचारों के ख़िलाफ़ चलती रही ।

“घरों पर तबाही पड़ी सहर में, खुदे मेरे बाज़ार, हज़रत महल ।

तू ही बाइस-ए-ऐशो आराम है ग़रीबों की ग़मख़्वार, हज़रत महल”।

सन् 1856 में कलकत्ता रवाना होने से पहले नवाब वाज़िद अली शाह ने बड़ी हसरत और गहरे दर्द के साथ लख़नऊ का दारोमदार हज़रत महल के हवाले किया और रवाना हो गये । तलवार सत्ता को हासिल करती है और धन अवाम पर हुकूमत करता है । ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पास तलवार भी थी और पैसा भी, उसके मुकाबले तत्कालीन भारत की कुल 579 रियासतों में से मात्र इक्कीस रियासतों के पास पैसा तो था लेकिन उस पैसे की हिफ़ाज़त करने की ताकत नहीं थी । लालची और धूर्त अंग्रेज़ों ने अवसर का लाभ उठाया और भारत में व्यापार करने वाली ब्रिटेन की व्यापारिक कम्पनी एक-एक कर भारतीय रियासतें हड़पने में लग गयी ।  अंग्रेज़ों का अत्याचार बढ़ने लगा तो हिंदुस्तान की अवाम अंदर ही अंदर बगावती होने लगी । कुछ राजा-रजवाड़े और नवाब तो अंग्रेज़ों के आगे अपना ज़मीर बेचने में लगे थे तो बहुत से ऐसे भी थे जो भीतर ही भीतर अंग्रेज़ों से लोहा लेने के लिये जंगी तैयारियाँ कर रहे थे । मातंगिनी हाजरा और बेगम हज़रत महल जैसी स्त्रियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया, वह बात अलग है कि उन्हें सफलता की जगह पर सिर्फ़ तबाही ही तबाही मिली ।

धीरे-धीरे, ईस्ट इण्डिया कम्पनी की चपेट में आ चुके हिंदुस्तान के बहुतेरे भाग में कम्पनी सरकार के ख़िलाफ़ अवाम का गुस्सा बेकाबू होने लगा । एक समय वह भी आया जब समाज की तिरस्कृत समझे जाने वाली तवायफ़ों ने भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया । इतिहास में इनका कहीं कोई नाम नहीं है, यहाँ तक कि लोकगीतों में भी इन्हें कोई स्थान नहीं मिल सका । तवायफ़ों के अतिरिक्त भटियारिनों और सरायवालियों ने भी स्वतंत्रता संग्राम में जो किया वह भुलाया नहीं जाना चाहिये । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारत की यह वो परित्यक्त मिट्टी थी जिसकी ख़ुश्बू ने स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं के लिये गुप्त मार्ग खोल दिये थे । क्रांति में सहायक बने बहुत से लोग ऐसे भी रहे हैं जिनकी महत्वपूर्ण भूमिकाओं के बाद भी इतिहास में उनकी कहीं कोई चर्चा नहीं होती । गन्ने के खेत में छिपे क्रांतिकारियों को चुपचाप भोजन-पानी पहुँचाने, भागने के लिये यथाशक्ति धन उपलब्ध करवाने, उन्हें अंग्रेज़ी गतिविधियों की गुप्त सूचना देने वाले... अनजान ग्रामीणों में गाँवों के वृद्धजनों और बच्चों की कहीं कोई गणना नहीं है, किंतु भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ये वो कड़ियाँ थीं जिन्होंने क्रांति को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी ।    

कला और तहज़ीब की परम्परा को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे ले जाने वाली तवायफ़ों के कोठों पर हर कोई आया करता थाक्रांतिकारी, सेनानी, अमीर, उमरे, ज़मींदार, नवाब और यहाँ तक कि अंग्रेज़ भी । शुरुआती दिनों में कोठे और सराय क्रांतिकारियों के लिये निरापद स्थान हुआ करते थे किंतु बाद में राज खुल जाने पर अंग्रेज़ों की वक्रदृष्टि से वेश्यायें, भटियारिनें और सरायवालियाँ भी बच नहीं सकीं । क्रांतिकारियों की गुप्त बैठकों, सूचनाओं के आदान-प्रदान और जासूसी के अतिरिक्त इस वर्ग ने आर्थिक रूप से भी न केवल क्रांतिकारियों बल्कि गांधी के अवज्ञा आंदोलन में भी अपनी महत्वपूर्ण आहुतियाँ डाली थीं । कानपुर, लख़नऊ, बनारस, बलिया, मुज़फ़्फ़रनगर और मुर्शिदाबाद की तवायफ़ें आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हुआ करती थीं, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नफ़रत ने उन्हें अपना सब कुछ देश के लिये न्योछावर कर देने के लिये उत्साहित कर दिया था । अंग्रेज़ों को जब पता चला तो उन्होंने कई तवायफ़ों और सरायवालियों को बंदी बनाकर उन पर शारीरिक यातनाओं का कहर ढाना शुरू कर दिया और उनकी सम्पत्तियाँ ज़ब्त कर लीं । उन्हें तबाह कर दिया गया उनमें से कई तो दाने-दाने को मोहताज होने लगीं, फिर भी उनके उत्साह और देशप्रेम में जरा भी कमी नहीं आयी और उन्होंने हर हाल में क्रांति की अलख को जलाये रखा ।

कानपुर के जिन लोगों ने शहर की तवायफ़ अज़ीज़नबाई को मर्दाना लिबास में पिस्तौल के साथ घोड़े पर देखा वही अपनी माटी के प्रति उसकी सरफ़रोशी का ऋणी हो गया । वह जासूस थी, ख़बरी थी और स्वतंत्रता सेनानी भी । अज़ीज़नबाई की तारीफ़ में किसी ने कहा– “तेरे यलगार में तामीर थी तखरीब न थी, तेरे ईसार में तरग़ीब थी तादीब न थी”।

बनारस की हुस्ना बाई ने तो बाकायदा एक तवायफ़ सभा बनाकर विदेशी सामानों का बहिष्कार किया और गहनों के स्थान पर लोहे की कड़ियाँ पहनने का आह्वान किया । तवायफ़ों ने भारत के लिये जो किया उसके लिये हर भारतीय उनके बलिदान और त्याग का कर्ज़दार है ।

यह किस्सा है कानपुर की हुसैनी ख़ानम बेगम का जो नाना साहब की रखैल हुआ करती थीं । तारीख़ थी14 मई और साल था 1857 का जब दोपहर के वक़्त कम्पनी सरकार के अधिकारी क्रांतिकारियों के डर से अपने-अपने परिवार के साथ गंगा के रास्ते नाव से इलाहाबाद भागने की तैयारी में थे । नाना साहब के साथी भी आसपास ही थे, तभी कम्पनी के कुछ अधिकारियों ने क्रांतिकारियों पर गोली चला दी जिससे क्रांतिकारी बेकाबू हो गये और उन्होंने नावों पर हमला कर दिया । क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों की स्त्रियों और बच्चों को अलग करके मर्दों को गोली मार दी । बाद में नानाराव के आदेश से उन सभी स्त्रियों और बच्चों को बीबीघर भेज दिया गया जो कम्पनी अधिकारियों की अय्याशगाह हुआ करती थी और जहाँ उनकी ख़िदमत में भारतीय लड़कियों को परोसा जाता था । नाना ने उनकी सुरक्षा के लिये हुसैनी खानम बेगम और कुछ सुरक्षा कर्मियों को तैनात कर दिया । नाना की यह इंसानियत उनके किसी काम नहीं आयी । बीबीघर की अंग्रेज़ स्त्रियों ने कम्पनी सरकार के लिये जासूसी शुरू कर दी और इलाहाबाद सूचनायें पहुँचाने लगीं । ज़ल्दी ही अहसानफ़रामोश अंग्रेज़ों ने कानपुर को चारो ओर से घेरना शुरू कर दिया जिससे क्रोधित होकर तात्या टोपे ने बीबीघर की स्त्रियों और बच्चों को मार देने का संदेश भिजवाया । नाना और उनके क्रांतिकारी साथियों ने तात्या के इस आदेश को मानने से इन्कार कर दिया । तब हुसैनी ख़ानम बेगम ने अपने आशिक सरवर ख़ान की मदद ली जो दो मुसलमान कसाइयों और दो अन्य हिन्दुओं को लेकर आया जिनमें से एक की पहचान सौराचंद के रूप में हुयी । इन लोगों ने 15 जुलाई1857 को बीबीघर की कुल 73 अंग्रेज़ स्त्रियों और उनके 125 बच्चों को तलवार से काट डाला । सुबह उनकी लाशें बीबीघर के बड़े कुएँ में फेक दी गयीं । कानपुर में जिस समय यह सब हो रहा था उसी समय फ़तेहगढ़ में कम्पनी सरकार के सैनिक भारतीय क्रांतिकारियों के ज़िंदा ज़िस्मों में आग लगाकर उन्हें हवा में उछाल रहे थे और उनकी चीखों पर ज़श्न मना रहे थे ।  

बीबीघर नरसंहार के बाद अंग्रेज़ों ने कानपुर के आसपास के कई गाँवों में आग लगा दी और नानाराव पार्क में बरगद के पेड़ पर135 क्रांतिकारियों को एक साथ फाँसी पर लटका दिया । कानपुर की ही एक और तवायफ़ होस्सैनी बाई इस नरसंहार की मुख्य योजनाकारों में से एक थीं ।

कानपुर विद्रोह के बाद कम्पनी ने कानपुर और उसके आसपास के गाँवों में आगजनी और कत्लेआम किया जिसमें छह हजार लोग मारे गये और कई क्रांतिक्कारियों को फाँसी दी गयी । कम्पनी के अधिकारी ब्राम्हणों को पकड़-पकड़ कर पहले तो उन्हें बीबीघर की फ़र्श पर पड़े ख़ून को जीभ से चाटकर साफ़ करवाते और फिर उनकी हत्या कर देते । 31 जुलाई 1857 को एक और घटना हुयी, कम्पनी अधिकारियों के हुक्म से मुस्लिम क्रांतिकारियों के मुँह में ज़बरन सुअर का और हिन्दू क्रांतिकारियों के मुँह में गाय का माँस ठूसा गया फिर उनकी हत्या कर दी गयी । कम्पनी के अधिकारी ने कहा कि हम तुम्हें मरने के बाद भी स्वर्ग का हकदार नहीं बनने देंगे ।

           यह तो छोड़िये, 15 अगस्त सन् 1947 को जबकि भारत को आज़ाद कर दिया गया था, सुबह सतना के आज़ाद मैदान में जब उपस्थित भीड़ में से कोई राष्ट्रगीत गाने के लिये तैयार नहीं हुआ तो वहाँ की तवायफ़ पंखुड़ीजान ने ही आगे बढ़कर बंकिमचंद्र के लिखे गीत को गाने का साहस किया ।

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

मोतीहारी वाले मिसिर जी की चार बकबक

 १-   

कविता लिखा कर

      

सो जा मोहन प्यारे!

जागा मत कर

सोये-सोये कविता लिखा कर ।

गीतकार है

तो प्रेम के गीत लिख

कोई कितने भी जड़ता रहे तड़ातड़ तमाचे

प्रतिक्रिया मत कर 

खिलखिलाकर हँसा कर 

कविता लिखा कर ।

 

उत्कर्ष के गीत गा

पीड़ा को भूल जा ।

साहित्यकार है न!

तभी तो तेरी सोच निगेटिव है

पॉज़िटिव बन

बकबक मत कर

डाटा सजाया कर 

प्रशंसा के लेख लिखा कर

ऐश किया कर, ज़िंदगी जिया कर

कविता लिखा कर ।

 

तू साहित्यकार है

तो सच क्यों बोलता है बे! 

कल्पना के पर लगाकर

आसमान में उड़ा कर 

तुझे राजनीति से क्या लेना देना!

मुझ से कुछ सीख

कभी सच मत बोल

तोल मोल कर नहीं 

झूठ को सच बनाकर बोल

भाँति भाँति के रूप धरा कर

आइने तोड़

तुमुल को शांति कहा कर

कविता लिखा कर ।

 

२-  

पहला हक

 

आज़ादी तो मिल गयी

बिना खड्ग बिना ढाल

हक नहीं मिला

वह भी दिला दे बाबा 

बिना खड्ग बिना ढाल ।

 

मालिक ने दे दिया उन्हें

पहला हक

जिन्होंने किया था ऐलान कि वे

नहीं रह सकते

साथ हमारे ।

ले लिया ओसारा

उन्होंने हमारा

मगर रहते हैं आज भी, साथ हमारे

भूनते हुये होरा छाती पर हमारी

दलते हुये मूँग छाती पर हमारी

नहीं गये वे कहीं भी 

और ले लिये सारे हक

हमारे, हमारे बाप दादों के । 

हमने पूछा

हमारा हक कहाँ है

उन्होंने खींच लीं तलवारें

ख़ामोश! तुझे पता नहीं

काफ़िरों का हक नहीं होता

हमने पूछा – “हम कहाँ रहें?”

उसने कहा जहन्नुम में

और फिर चला दी तलवार ।

मेरे ज़िस्म से फूट पड़ा

ख़ून का फव्वारा

ठीक तभी खिल उठा

उनके ग़ुलदस्ते में

एक और काला ग़ुलाब

गुलाब ने गीत गाया

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा...।

 

३-

उसी नम्बर पर

 

सरकार की बात

रिश्वत न दें

रिश्वत की माँग की शिकायत

इस फोन नम्बर और ई मेल पर करें ।

 

बात मान ली हमने

कर दी शिकायत

दो साल हो गये

नहीं मिल पाया समयमान वेतन

बाबू कहता है, ले लो न

उसी नम्बर पर बात करके ।

 

४-

न्योछावर

 

मेरा ड्राइविंग लायसेंस

री-न्यू करवा दे कोई

तो जानूँ

बिना दिये न्योछावर।

मंगलवार, 14 दिसंबर 2021

यतो धर्मस्ततो जयः

            थाने में दरोगा साहब के ऑफ़िस में किसी ने लिख दिया – “यतो धर्मस्ततो जयः। भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भी अशोक चक्र के नीचे किसी ने लिख दिया – “यतो धर्मस्ततो जयः। भारत के वर्तमान चिंतकों से पूछे बिना ही लिख दिया और सरे आम हिन्दुत्वावादकर दिया ।

इक्कीसवीं सदी के चिंतक अभय दुबे ने आज एक टीवी चैनल पर कहा – “राजनीति में धर्म का घालमेल उचित नहीं। अभय दुबे अकेले नहीं हैं, भारत के वर्तमान राजनीतिज्ञ और समाजचिंतक आज इसी पथ पर चल रहे हैं । कम्युनिस्ट देशों में धर्म अफीम हो गया, भारत में धर्म एक वर्ज्य विषय हो गया ।  

पश्चिम में जब चर्च राज्य की सर्वोच्च शक्ति बन गये तो चर्च निरंकुश हो गये और भ्रष्टाचार चरम पर पहुँच गया । पश्चिम ने माना कि चर्च धर्म के केंद्र हैं, जहाँ निरंकुशता जन्म लेती है । पश्चिम में चर्चविरोधी लहर चली, धर्म को पृथक करो । राजनीति ही नहीं विज्ञान, संगीत, कला, शिक्षा, समाज, व्यापार और युद्ध आदि जीवन के सभी विषयों से धर्म को पृथक कर दिया गया । चर्च शक्तिहीन हो गये । शिक्षा, समाज, युद्ध और व्यापार आदि धर्ममुक्त हुये । रामायण और महाभारतकालीन युद्धों का स्थान गुरिल्ला युद्धों ने ले लिया ।

पश्चिम में धर्म और राज्य आदि की अवधारणायें भारत से पूरी तरह भिन्न थीं । किंतु पश्चिम में जो लहर चली उसका भारत में भी स्वागत किया गया । जबकि यहाँ उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी । भारत तो सदा से कहता रहा है – यतो धर्मस्ततो जयः। महाभारत के उद्योगपर्व, भीष्मपर्व, द्रोणपर्व, स्त्रीपर्व, अनुशासनपर्व और शल्यपर्व में भी बारम्बार यही कहा जाता रहा– यतो धर्मस्ततो जयः। इस आशा से कहा जाता रहा कि कदाचित लोग समझ जायें और युद्ध रुक जाय, कदाचित कुछ लोगों की समझ में आ जाय कि धर्म कहाँ है और कहाँ नहीं है । किंतु जिन्हें समझना था वे नहीं समझे । कृष्ण युद्ध को रोकना चाहते थे किंतु युद्ध होकर ही रहा ।

युद्ध होने की स्थिति में उसके परिणाम की ओर स्पष्ट संकेत करते हुये श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा – “क्षपयिष्यति नः सर्वांस सुव्यक्तं महारणे । विदितं मे हृषीकेश यतो धर्मस्ततो जयः”॥

महात्मा विदुर ने धृतराष्ट्र को समझाया तो दबे मन से उसने इस सत्य को स्वीकार तो किया किंतु उसी क्षण अपनी विवशता भी बता दी– “सर्वं त्वमायतीयुक्तं भाषसे प्राज्ञसंमतम् । न चोत्सहे सुतं त्यक्तुं यतो धर्मस्ततो जयः

द्वैपायनव्यास ने धृतराष्ट्र से कहा – “दिष्टमेतत्पुरा चैव नात्र शोचितुमर्हसि । न चैव शक्यं संयंतु यतो धर्मस्ततो जयः

युद्ध सामने था, युधिष्ठिर डाँवाडोल होने लगे तो अर्जुन को भी कहना पड़ा– “त्यक्त्वा धर्मं च लोभं च मोहं चोद्यममास्थिताः ।  युध्यध्वमनहंकारा यतो धर्मस्ततो जयः ॥

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा– “न ते युद्धान्निवर्तंते धर्मोपेता महाबलाः । श्रिया परमया युक्ता यतो धर्मस्ततो जयः”॥

भीष्म ने तो दुर्योधन से साफ-साफ कह दिया “राजन्सत्वमयो ह्येष तमोरागविवर्जितः । यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः”॥

धर्ममूलक शिक्षा, धर्ममूलक आचरण, धर्ममूलक व्यापार, धर्ममूलक सत्ता ....सब कुछ धर्ममूलक हो, भारतीय चिंतन धर्म को जीवन के मूल में देखता है ।   

भारत की दुर्दशा के लिये वह अनीति उत्तरदायी है जिसने धर्म को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से विदा कर दिया और उसे मात्र कर्मकाण्ड का विषय बना दिया । सच कहूँ तो भारत अब एक अधार्मिक देश हो गया है । राज्याश्रय के बिना शिक्षा, व्यापार, चिकित्सा, सरोवर या मंदिर, किसी का विकास सम्भव नहीं । अभय दुबे जी राज्य के सर्वाङ्गीण विकास के लिये राज्याश्रय का होना आवश्यक क्यों नहीं मानते?

रविवार, 12 दिसंबर 2021

लोकतंत्र में व्यक्तिपूजा

पश्चिमी देशों में व्यक्तिपूजा के लिये मूर्तियों का प्रचलन रहा है । हम इसे वैयक्तिक प्रभुता की महत्वाकांक्षा और दासता की घोषणा मानते हैं । प्रकृतिपूजक वैदिक कालीन भारत में ऐसी कोई परम्परा कभी नहीं रही । वैदिकोत्तर भारत में प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीकस्वरूप देवी-देवताओं की पूजा के लिये काल्पनिक मानवाकार मूर्तियों का प्रचलन अस्तित्व में आया । राजमुद्रा प्रणाली में राजाओं के चित्र का अंकन भी बहुत बाद में प्रारम्भ हुआ जो आज तक विद्यमान है ।

मोतीहारी वाले मिसिर जी मानते हैं कि व्यक्तिपूजा लोकतंत्र ही नहीं राजतंत्र के लिए भी घातक है । राम, कृष्ण और परशुराम जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर व्यक्तिपूजा अंततः विवाद और वंशवाद को ही समृद्ध करती है । 

अद्वैत दर्शन के प्रणेता रहे भारत के संदर्भ में इसका महत्व और भी अधिक हो जाता है । सैद्धांतिक दृष्टि से देखा जाय तो निराकार ब्रह्म के उपासक देश में व्यक्तिपूजा का कोई स्थान नहीं होना चाहिये ।

किसी महान व्यक्ति के लिए आदरणीय या परम आदरणीय जैसे सम्बोधन क्या पर्याप्त नहीं हैं? मिसिर जी के अनुसार “किसी भी व्यक्ति के लिए “परमपूज्य...” “हिज़ हाईनेस” और “मी लॉर्ड” जैसे सम्बोधन मस्तिष्क की उन खिड़कियों को बंद कर देते हैं जहाँ से होकर विभिन्न विचारों की बयार अंदर प्रवेश करती है और अव्यापक एवं अनृत विचारों को बाहर निकलने के लिये अवसर प्रदान करती है । परिणामतः, धीरे-धीरे हम अपने सीमित विचारों के साथ संकुचित होने लगते हैं । वैचारिक संकीर्णता जहाँ सहज मनोविज्ञान के विपरीत एक अवैज्ञानिक स्थिति है वहीं यह हमारे अंदर असहिष्णुता के बीज बोने का कारण भी बन जाया करती है” ।

खरी-खरी कहने वाले मोतीहारी वाले मिसिर जी बताते हैं– “राष्ट्रीयमुद्रा में किसी मनुष्य के चित्र का अंकन साम्राज्यवादी और अधिनायकवादी मानसिकता की घोषणा के साथ-साथ उस देश के निवासियों की वैचारिक स्वतंत्रता को भी सीमित करता है । लगभग यही बात भवनों, राजमार्गों, सेतुओं, बाँधों और रेलवे स्टेशन आदि अन्य संरचनाओं के लिये भी लागू होती है”।

सद्दाम हुसैन और स्टालिन की मूर्तियों का हश्र हम देख चुके हैं । बाहियान में महात्मा बुद्ध की मूर्ति के हश्र की पीड़ा स्थायी हो चुकी है । महापुरुषों की मूर्तियों का समय-समय पर उनके विरोधियों द्वारा अपमान रोष और विद्रोह का कारण बनता है । क्या हम एक ऐसे भारत की रचना नहीं कर सकते जहाँ किसी व्यक्ति की कोई मूर्ति न हो और राष्ट्रीय मुद्रा पर किसी व्यक्ति का चित्र न हो? आख़िर कोई लोकतांत्रिक शासनसत्ता अपने नागरिकों को व्यक्तिपूजा के लिये बाध्य क्यों करना चाहती है?


शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

सच्चे राष्ट्रसेवक के निधन पर ख़ुशी?

         दिनांक 8 दिसम्बर 2021 का दिन भारत में रह रहे कुछ अभारतीयों के लिये ख़ुशी का पैगाम ले कर आया जब सी.डी.एस. बिपिन रावत और उनकी पत्नी मधूलिका रावत सहित ग्यारह अन्य सैन्य अधिकारियों ने अप्रत्याशितरूप से स्वर्गारोहण किया । कुन्नूर में उनका चोपर दुर्घटनाग्रस्त हो गया और पल भर में ही सभी लोग आग की गोद में समा गए, यह सब बहुत ही पीड़ादायक था । भारत के लिये यह एक बहुत बड़ी क्षति है । देश के सच्चे सपूत अब हमारे बीच नहीं हैं, जबकि एक सैन्य अधिकारी अभी भी जीवन और मृत्यु के बीच संघर्षरत हैं ।

इस पीड़ादायी दुर्घटना से जहाँ देश-विदेश के लोग अवाक और दुःखी हुये, वहीं घटना के बाद सोशल मीडिया पर प्रकाशित कुछ लोगों की नकारात्मक टिप्पणियों ने भारत को और भी अवाक एवं दुःखी कर दिया । इन नकारात्मक टिप्पणियों ने भारत को सूचित कर दिया है कि भारत में भारत के शत्रु कितने निर्लज्ज और दुस्साहसी हो गये हैं । भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कनाडा सहित पूरी दुनिया ने देखा कि भारत में भारत की जड़ें खोदने वाले लोग कितनी जड़ें खोद चुके हैं ...और कितनी अभी खोद रहे हैं ।

वीर बलिदानी बिपिन रावत के निधन से भारत के कुछ नेता, कुछ अभिनेता, कुछ पत्रकार, इस्लाम समर्थक कुछ सेक्युलर्स और कुछ इस्लामिक ज़िहादी परम प्रसन्न हुये, उन्होंने घोर निर्लज्जता का डंका बजाते हुये भारतीय सेना, वीर बिपिन रावत, वीर सैन्य अधिकारियों और प्रधानमंत्री के बारे में अपमानजनक टिप्पणियाँ करते हुये अपनी प्रसन्नता व्यक्त की । हर किसी ने बड़ी हैरानी से भारत में पल रहे विषैले नागों को भारत के विरुद्ध सोशल मीडिया पर विषवमन करते हुये देखा । देश के सच्चे सपूत बिपिन रावत के निधन पर जब कोई कहे – “हिसाब चुकता”, तो इन दो शब्दों के निहितार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती । क्या ऐसे किसी भी व्यक्ति को भारत में रहने का कोई अधिकार होना चाहिये?

ओस्मानिया विश्वविद्यालय के प्राध्यापक मुस्तफ़ा रियाज़ हैदराबादी ने सोशल मीडिया पर लिखा – “मर गया, अब मोदी की बारी है, इंशाअल्ला”। विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले एक प्राध्यापक की यह भाषा उसके उन कुसंस्कारों की झलक दिखाती है जो भारत और भारतीय सेना के विरुद्ध नफ़रत से भरी हुयी है । भारत की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व समर्पित कर देने को हर पल तैयार रहने वाले बिपिन रावत के प्रति इतना विषवमन क्या हमें भारतविरोधियों की दुष्ट योजनाओं और उनके अभियानों के प्रति आगाह नहीं करते हैं!  

भारत के एक अन्य नागरिक आसिफ़ मियाँ ने ख़ुशी व्यक्त की – “दुःखी होने का कोई कारण नहीं क्योंकि यह एक मिनी ईद की तरह है”।

जवाहरलाल नेहरू द्वारा 1938 में स्थापित इण्डियन नेशनल कांग्रेस के नियंत्रण वाली कम्पनी एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेडसे प्रकाशित होने वाले चर्चित समाचारपत्र नेशनल हेरल्ड, जिसका स्वामित्व यंग इण्डिया लिमिटेड कम्पनीके पास है, की वर्तमान सम्पादिका ऐश्लिन मैथ्यू ने सैन्य अधिकारियों के निधन को दैवीय हस्तक्षेपनिरूपित करते हुये अपनी ख़ुशी की अभिव्यक्ति – “Devine interventions” लिखकर की ।

कांग्रेस नेता अशोक सिंह गार्चा ने फरमाया – “सेना प्रमुख (बिपिन रावत) संघी प्रमुख बन गये और उन्होंने देश के धर्मनिरपेक्ष लोकाचार के साथ विश्वासघात किया”।

ऐसे लोगों की दृष्टि में धर्मनिरपेक्षता का केवल एक ही अर्थ होता है, इस्लाम का निरंकुश विस्तार । भारत और भारतीयता के इन शत्रुओं से हजार कदम आगे बढ़कर सेना से सेवानिवृत्त हुये कर्नल बलजीत बक्शी निर्लज्जतापूर्वक लिखते हैं – “Karma has its own way of dealing with people”.

एक और पूर्व सैन्य अधिकारी लेफ़्टीनेंट कर्नल अनिल दुहून भारत की तीनों सेनाओं के सर्वोच्च अधिकारी के निधन पर बगावती तेवर में अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुये लिखते हैं – “Karm always hits back”.

भारत के इन पूर्व सैन्य अधिकारियों का आरोप है कि भारतीय सेना के जवानों ने बिपिन रावत के नेतृत्व में कश्मीर में पत्थरबाजों और अलगाववादी आतंकियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करते हुये कश्मीर पर पाकिस्तान का अधिकार नहीं होने दिया । इन पूर्व सैन्य अधिकारियों ने तब कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की जब कश्मीरी युवा सेना पर पत्थर बरसाते थे और पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी सेना पर घातक हमले करते थे । हम अनुमान कर सकते हैं कि इस तरह के सैन्य अधिकारियों ने अपने सेवाकाल में देश के साथ क्या-क्या नहीं किया होगा! इन पूर्व सैन्य अधिकारियों की निर्लज्ज अभिव्यक्ति हमें सावधान करती है और हैरान भी ।

सेना प्रमुख के निधन के बाद इस तरह की विश्वासघाती प्रतिक्रियाओं पर आम नागरिकों की प्रतिक्रिया वातावरण को उत्तेजना से भर देती है, आम नागरिक चाहता है कि ऐसे लोगों को देशद्रोह के आरोप में फाँसी की सजा होनी ही चाहिये, अन्यथा यह विषबेल बढ़ती ही रहेगी । पूर्व सैन्य अधिकारियों और उच्चशिक्षित लोगों की विश्वासघाती टिप्पणियाँ हमें आहत करती हैं, हमारा धैर्य चुक गया है, हमारी सहनशीलता को ललकारा जा रहा है । हम ऐसे विश्वासघाती और भारतविरोधी भारतीयों को भारत का नागरिक होने के योग्य नहीं मानते ।