जिस वृक्ष की जड़ें भारत से निकालकर
अरब में लगा दी गयी हों और उन्हें अरबी पोषण दिया जा रहा हो उस पेड़ के पत्ते, पुष्प
और फल भारतीय कैसे हो सकते हैं! यह लाख टके का प्रश्न है जिसकी “मिली-जुली
संस्कृति” के नाम
पर भारत में लगातार उपेक्षा की जाती रही है।“मिली-जुली
संस्कृति” इस्लामिक
विस्तारवादियों का वह बहाना है जो भारत में अरबी मान्यताओं को स्थापित करने और
भारतीय मूल्यों को समाप्त करने के लिए गढ़ा गया है।
शाक्य राजकुमार गौतम ने तो बुद्धत्व
के लिए राज्य को त्याग दिया पर उनके अनुयाइयों द्वारा बौद्ध मत की स्थापना और
राज्यसंचालन में उसके हस्तक्षेप के बाद से हमारी अपनी जड़ों को निरन्तर काटा जाता
रहा है। इस काल में हमारी सनातन जड़ों को सत्ता से पोषण भी नहीं मिल सका, उनके
रखवाले स्वयं भी कभी निष्क्रिय तो कभी असहाय होते रहे हैं। किसी संस्कृति के
अस्तित्व के लिए उसकी जड़ों को काट देने की राज्याश्रित प्रक्रिया भारत के लिए बहुत
बड़े संकट का कारण है। 1947 में सत्ता हस्तांतरण के बाद से ये प्रतिकूल स्थितियाँ
और भी विकट होती रही हैं।
जब तक धर्मांतरण को मतांतरण और भारतीय
राष्टृवाद से जोड़ कर नहीं देखा जाएगा तब तक भारत पर असुरक्षा और पराधीनता के घनघोर
बादल छाए रहेंगे। जिन्हें *भारतीयराष्ट्रवाद* से चिढ़ है उनके लिए हम इसके स्थान पर
*मानवीयराष्ट्रवाद* का विकल्प रखना चाहेंगे।
भारतीय मुसलमान और ईसाई की चिंता
मक्का-मदीना और येरुशलयीम को लेकर होती है, अयोध्या, काशी और
मथुरा को लेकर नहीं। मोहनभागवत जैसे मानसिक पक्षाघात से पीड़ित लोग भारत के लाखों
मंदिरों के इतिहास और उनसे जुड़ी भारतीय परम्पराओं को त्याग देने की बात करने लगे
हैं। एक सच्चे भारतीय को इन सभी षड्यंत्रों की गहरायी को समझना होगा। नालंदा जैसे
कई विश्वविद्यालयों को जलाकर नष्ट कर देने वाली आसुरी परम्परा के लोगों को संरक्षण
देना भारत के सर्वनाश को आमंत्रित करना है। भारतीय संस्कृति को बचाये रखने के लिए
भारत को अंगोला, स्लोवाकिया, ट्यूनीशिया, इस्तोनिया
और आस्ट्रेलिया की नीति पर चलना ही होगा। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। जब
अंगोला और ट्यूनीशिया जैसे देश असुरत्व को पहचान कर उससे मुक्ति पाने की दिशा में
अग्रसर हो चुके हैं तो विश्वगुरु का दम्भ भरने वाले भारत को ऐसा क्यों नहीं करना
चाहिए?
हम कब तक इस तात्विक सत्य की उपेक्षा
करते रहेंगे कि विभिन्न स्थानों और दिशाओं से प्रारंभ होकर एक ही बिंदु और दिशा की
ओर होने वाली यात्रायें उन यात्राओं से भिन्न हैं जो एक ही बिंदु और दिशा से
प्रारंभ होकर किसी दूसरे बिंदु और दिशा की ओर की जाती हैं। हमें यह झूठ बताया जाता
रहा है कि सभी धर्म हमें ईश्वर की ओर ही ले जाते हैं। हम जीवमात्र के कल्याण की
दिशा में प्रयत्नशील होते हैं जबकि कुछ लोग हमें देखते ही घात लगाकर मार डालने को
अपने जीवन का उद्देश्य बना चुके हैं। हत्या करने वाले और मरने वाले की यात्रा की
दिशा और उद्देश्य एकसमान कैसे हो सकते हैं!
सावधान! असुर तो झूठ बोलते रहेंगे, हमें झूठ और सच के अंतर को समझना होगा।