कुम्हार
दिन भर बेचे
मिट्टी के दिए
जब गहराई साँझ
तो चल दिए कुम्हार
एक टुकड़ा रोशनी
माँगने उधार.
जयविलास महल ग्वालियर का दीवान-ए-ख़ास
कफ़न बिन ही दफ़न हो गए
रेशम चढ़े मज़ार पर
एक झोपडी भी ना मयस्सर
सोना चढ़े दीवार पर .
आपकी सरकार आपके द्वार
दर्द की सीमा
समंदर की तरह है
कैसे सफ़र फिर
दास्ताँ का हो शुरू
खो गए हैं छोर
दर्दों के
किस सिरे से हो रहे तुम
रू-ब-रू.?
व्यवसाय
बिक रहे हैं धर्म के
परिधान अब बाज़ार में
दानवों के दल हैं निकले
घूमने बाज़ार में .
खुदकुशी
क्यों खामोश हैं
इस शहर में सभी
सच ने की खुदकुशी
आज फिर से अभी.
यकीं
तुम हो धोये दूध के
किस तरह कर लें यकीं
दूध भी पानी बिना
आजकल मिलता नहीं.
भूख
रूप बदले हाकिमों के
और बदली नीति भी
पर न बदली भूख की
पीड़ा कभी मज़दूर की.
लोकतंत्र
क्या हुआ जो मंच बदले
पर लोग तो बदले नहीं
फिर वही होगा तमाशा
ग़र रहे दर्शक वही .
दिन भर बेचे
जवाब देंहटाएंमिट्टी के दिए
जब गहराई साँझ
तो चल दिए कुम्हार
एक टुकड़ा रोशनी
माँगने उधार.
waah
रूप बदले हाकिमों के
जवाब देंहटाएंऔर बदली नीति भी
पर न बदली भूख की
पीड़ा कभी मज़दूर की.
............
बहुत सुन्दर सच्चाई ब्यक्त करती क्षनिकाएं .
ek se ek keemtee nageene hain kaushalendra jee!! saadhuvaad!!
जवाब देंहटाएंतुम हो धोये दूध के
जवाब देंहटाएंकिस तरह कर लें यकीं
दूध भी पानी बिना
आजकल मिलता नहीं.
बहुत खूब.
सभी क्षणिकाएं बहुत बढ़िया हैं.
शुभ कामनाएं.
एक से बढकर एक शानदार मुक्तक है।
जवाब देंहटाएंऔर पहला तो लाजवाब!!
दिन भर बेचे
मिट्टी के दिए
जब गहराई साँझ
तो चल दिए कुम्हार
एक टुकड़ा रोशनी
माँगने उधार.
वाह कौशलेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे,
दिन भर बेचे
जवाब देंहटाएंमिट्टी के दिए
जब गहराई साँझ
तो चल दिए कुम्हार
एक टुकड़ा रोशनी
माँगने उधार
...बेहतरीन।
अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!
जवाब देंहटाएंhttp://sanjaybhaskar.blogspot.com/
क्या हुआ जो मंच बदले
जवाब देंहटाएंपर लोग तो बदले नहीं
फिर वही होगा तमाशा
ग़र रहे दर्शक वही .
यथा राजा तथा प्रजा...या...यथा प्रजा तथा राजा...तमाशे बदलने के लिए...सोच को बदलना होगा...
तो चल दिए कुम्हार
एक टुकड़ा रोशनी
माँगने उधार.
जो खाना देता है...वो भूखा सोता है...जिन पर देश ने किया भरोसा...उसी ने देश को लुटा...कहाँ हैं देश के नेता...
हार्दिक स्वागत है ...नवागन्तुकों सहित आप सभी का.
जवाब देंहटाएंसशक्त क्षणिकाएँ
जवाब देंहटाएंLovely kshnikaayein.
जवाब देंहटाएंबढ़िया !
जवाब देंहटाएंदीपक और प्रकाश से मन में विचार उठा कि सुनते हैं कि कस्तूरी मृग भटकता फिरता है इधर से उधर, सुगंध के स्रोत को बाहर खोजता,,,. किन्तु ज्ञानी जानता है कि मृग के भीतर ही सुगंध का स्रोत है !
और ज्ञानियों ने जाना मृग समान मानव भी भटकता फिरता है एक पूजा-स्थल से दूसरे तक - मूर्तियों को दीप का प्रकाश दिखाते,,, किन्तु स्वयं शायद नहीं जानता कि जिस प्रकाश के स्रोत को वो ढूँढ रहा है वो उसके भीतर ही है :)
फिर वही होगा तमाशा ,लोग तो बदले नहीं ।
जवाब देंहटाएंधर्म के लिबास अब बाज़ार में बिकने लगें हैं ....
दुष्यंत कुमार जैसी आंच है आपके धारदार लेखन में भाव -कणिकाओं में जो सतसैया के दोहरे सी हैं ।
सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर ,
देखन में छोटे लगें ,घाव करें गंभीर ॥
तमाम रचनाये आपकी इस दौर से बा -वास्ता हैं .अपने समय से संवाद करती सवालात पूछतीं .
कुम्हार
जवाब देंहटाएंदिन भर बेचे
मिट्टी के दिए
जब गहराई साँझ
तो चल दिए कुम्हार
एक टुकड़ा रोशनी
माँगने उधार.
कहाँ से लाते हैं ऐसी सोच .....?
तुम हो धोये दूध के
किस तरह कर लें यकीं
दूध भी पानी बिना
आजकल मिलता नहीं.....
बिलकुल .....
आज के जमाने में तो किसी पे यकीं करना ही बेवकूफी है .....
डॉ साहब सचेत रहिये जरा .....:))
lajwaab ....
ye kyon nahin bheji saraswati suman ke liye .....