इसमें कोई शक़ नहीं कि ख़ूबसूरत नैरिन
किस्मत वाली भी थी जबकि नादिरा की किस्मत...
वर्ष दो हजार चौदह का अगस्त महीना अभी
शुरू ही हुआ था कि तीन तारीख़ की सुबह अपने-अपने घरों में रोज़मर्रा के काम कर रही
औरतें और बच्चे अचानक उठे शोर-शराबे से सहम गये । गाँव के भयभीत मर्दों ने चीख-चीख
कर लोगों को गाँव छोड़कर कहीं सुरक्षित स्थान पर भाग जाने के लिए पुकारना शुरू कर
दिया था । हड़बड़ाये और भयभीत लोगों ने थोड़े से कपड़ों और कुछ मूल्यवान चीजों के साथ
इधर-उधर भागना शुरू कर दिया । उस दिन इस भीड़ में चौदह साल की एक ख़ूबसूरत बच्ची नैरिन
भी शामिल थी जो भगदड़ और हड़बड़ाहट में अपनी अम्मी और अब्बू से बिछड़ गयी । नैरिन के
साथ था उसका बड़ा भाई और बचपन की एक सहेली शायमा । वे तीनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े
हुये भाग रहे थे । भागते समय नैरिन के भाई की आँखें अपनी नवविवाहिता नादिरा को खोज
रही थीं । वह बदहवास सा नादिरा-नादिरा चिल्लाता जा रहा था ।
ईराक़ के पश्चिमी छोर पर स्थित निनवेह
के मैदानी इलाके में बसे तेल उज़र में ज़िन्दग़ी रोज की तरह चल रही थी । यज़ीदियों का
यह एक शांत इलाक़ा था जिसमें वे न जाने कितनी पीढ़ियों से रहते आये थे । दो हजार
बारह में इस्लामिक स्टेट के लिए सक्रिय हुये ज़िहादियों ने मध्य एशिया के
ग़ैरमुस्लिमों के अस्तित्व को पूरी तरह नकार दिया और उनका नस्लीय उन्मूलन शुरू कर
दिया । धीरे-धीरे इस्लामिक स्टेट के प्रभुत्व वाले ईराक़ और सीरिया के कई क्षेत्रों
में इस्लामिक लड़ाकों और सरकार के बीच जंग छिड़ गयी । इस्लामिक लड़ाके जहाँ जाते वहाँ
तबाही मच जाती ।
तेल उज़र की भी शांति को ज़ल्दी ही
ग्रहण लग गया, वहाँ के
शांत वातावरण में पिछले कई महीनों से रोज-रोज उथल-पुथल मचाने वाली आइसिस की
क्रूरता की नयी-नयी ख़बरें लोगों को भयभीत करने लगी थीं । इस्लामिक स्टेट के ज़िहादी
ग़ैर मुस्लिम लड़कियों की अस्मत लूट रहे थे, उन्हें ज़ानवरों की तरह पीट रहे थे, ग़ैरमुस्लिमों को या तो मुसलमान बना रहे
थे या फिर उनकी हत्यायें कर रहे थे जबकि ईराक़ की सरकार और फ़ौज़ उनके सामने लाचार हो
रही थी । सिंजर और मोसुल के कई इलाकों पर इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों का कब्ज़ा हो
गया । आसपास के गाँवों और शहरों से आने वाली ख़बरों ने तेल उज़र की फिज़ां में दहशत
घोल दी थी ।
तीन
अगस्त दो हजार चौदह की उस सुबह तेल उज़र की बदहवास भीड़ में हजारों की संख्या में
स्त्रियों और मर्दों ने सिंजर का रुख़ किया । भीड़ में छोटे-छोटे बच्चे और बुज़ुर्ग
स्त्री-पुरुष भी थे जो बाकी लोगों की तुलना में निरंतर पिछड़ते जा रहे थे । भीड़ के
एक हिस्से ने उत्तर दिशा की ओर लक्ष्य किया, यह एक
रेगिस्तानी इलाक़ा था जिसे पार करने के बाद वे सब सिंज़र पहाड़ पर बने एक शरणार्थी
शिविर में पहुँचना चाहते थे । उन्हें अपने कस्बे तेल-उज़र से निकले हुये ब-मुश्किल
अभी एक घण्टा ही हुआ होगा कि स्वचालित हथियारों और आइसिस के झण्डों से लैस गाड़ियों
में सवार इस्लामिक ज़िहादियों ने भीड़ को घेर लिया । भयभीत औरतों और बच्चों ने बुरी
तरह रोना-चीखना शुरू कर दिया, चारों
ओर कोहराम सा मच गया । इस कोहराम से आइसिस के ज़िहादियों का उत्साहवर्द्धन हुआ, वे
अल्लाह-हो-अकबर के नारे लगाने लगे, उनके
चेहरों पर विजय का उल्लास था । अपनी
पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार वे सब गाड़ियों से नीचे उतरे और भीड़ को तीन समूहों
में बाँट दिया । एक समूह में थीं किशोरियाँ और युवतियाँ, दूसरे
में थे बच्चे, किशोर
और युवा जबकि तीसरे समूह में बुज़ुर्ग स्त्रियों और मर्दों को शामिल किया गया था ।
ज़िहादियों ने बुज़ुर्ग औरतों और मर्दों से सारी नगदी और ज़ेवरात छीन कर उन्हें पास
के एक नखलिस्तान में बेसहारा छोड़ दिया, किशोरियों
और युवतियों को ट्रक में ठूँस दिया जबकि तीसरे समूह को गोलियों से भून दिया । नैरिन
के बड़े भाई को, जिसकी
उम्र महज़ उन्नीस साल थी और जिसकी मात्र छह महीने पहले ही शादी हुयी थी, ज़िहादियों
ने गोली मार दी । मर्दों के उस समूह में अब कोई भी ज़िन्दा नहीं था ।
दोपहर के बाद यज़ीदी औरतों से भरे ट्रक
को सीरिया की सरहद के पास एक छोटे से कस्बे बाज में एक स्कूल के पास रोका गया । जब
ट्रक से उतर कर यज़ीदी स्त्रियों ने स्कूल में प्रवेश किया तो उन्होंने देखा कि
वहाँ स्कूल में पहले से क़ैद कुछ यज़ीदी स्त्रियाँ मौज़ूद थीं और वे भी अपने घर के कई
मर्दों को हमेशा के लिए खो चुकी थीं । दहशत की काली छाया उनके चेहरों पर साफ़ नज़र आ
रही थी । नैरिन भयभीत थी लेकिन उसके मस्तिष्क में कई तरह की बातें उमड़-घुमड़ रही
थीं । जब सभी स्त्रियाँ स्कूल के अन्दर दाख़िल हो गयीं तो एक ज़िहादी ने अन्दर आकर
ऊँची आवाज़ में शहादा शुरू किया – “मैंने
इस बात की पूरी तस्दीक कर ली है कि अल्लाह के अलावा और कोई दूसरा ख़ुदा नहीं है और
यह भी कि एकमात्र मोहम्मद ही उनके रसूल हैं” । इसके
बाद उसने कहा कि सभी स्त्रियाँ उसकी इस बात को दोहरायें जिससे कि वे मुसलमान बन
सकें । दहशतज़दा औरतों ने एक-दूसरे के चेहरों की ओर देखा और ख़ामोश ही बनी रहीं, उन्होंने
शहादा की उस घोषणा को नहीं दोहराया । यज़ीदी औरतों ने मरने या फिर हर तरह के नर्क़
को झेलने का फ़ैसला कर लिया था । इससे ज़िहादी गुस्से में आ गये और उन्होंने
यज़ीदियों की धार्मिक मान्यताओं को कोसना और बद-दुआ देना शुरू कर दिया ।
दो दिन बाद उन सबको आइसिस के ईराक़ी
मुख्यालय मोसुल ले जाया गया जहाँ एक बड़े से हॉल में उन्हें एकत्र होने के लिए कहा
गया । हॉल में कुछ और भी यज़ीदी स्त्रियाँ पहले से मौज़ूद थीं । उन्हें भी इसी तरह
उनके परिवार से अलग कर लाया गया था, वे भी
अपने घर के कई सदस्यों को हमेशा के लिए खो चुकी थीं । ज़िहादी लड़ाकों में से कुछ की
उम्र तो महज़ तेरह-चौदह साल ही थी किंतु क़त्ल कर देना उनके लिये एक रोमांचक खेल सा
बन चुका था ।
मोसुल के उस हॉल में उन्हें क़ैद हुये बीस
दिन हो चुके थे । वहाँ सभी स्त्रियों को ज़मीन पर सोना पड़ता और जीने के लिए एक दिन
और एक रात में मिलाकर सिर्फ़ एक बार भोजन दिया जाता था । थोड़ी-थोड़ी देर पर वहाँ कोई
न कोई आता रहता था जो सिर्फ़ और सिर्फ़ इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने के बारे में कहा
करता । अपने घर के मर्दों और बच्चों को खो चुकी औरतें अधिकांश समय सुबकती रहतीं और
एक-दूसरे से अपने दुःखों का बयान किया करतीं ।
एक दिन
उस क़ैदखाने के एक सुरक्षाकर्मी ने आकर शादीशुदा स्त्रियों और कुमारी लड़कियों को
अलग-अलग कर दो समूहों में बांट दिया । नैरिन और उसकी बचपन की सहेली शायमा को
फ़ल्लुज़ाह निवासी ऊँची रसूख़ वाले इस्लामिक स्टेट के समर्थक दो मुसलमानों की ख़िदमत
में भेंट कर दिया गया । चौदह साल की नैरिन एक थुलथुल शरीर और काली घनी दाढ़ी वाले
पचास साल के अबू अहमद के हिस्से में आयी जबकि शायमा एक अधेड़ मौलवी अबू हुसैन के
हिस्से में पड़ी । अबू अहमद और अबू हुसैन अपने एक ख़िदमतगार के साथ फ़ल्लुज़ाह के जिस
घर में रहते थे वह एक आलीशान महल जैसा था । उस आलीशान महल में नैरिन और शायमा को
धर्म परिवर्तन और बलात्कार के लिए बुरी तरह पीटा जाता और सिर्फ़ एक बार ख़ाना दिया
जाता । यह उनका रोज का सिलसिला बन गया था, ज़िन्दग़ी नर्क से भी बदतर बन चुकी थी और
जीने का अब कोई मक़सद नहीं रहा था । निराश होकर दोनों ने आत्महत्या के लिए योजना
बनानी शुरू कर दी । वे जब भी अकेली होतीं तो ख़ुदकुशी के बारे में बातें किया करतीं
या फिर अपने घर वालों को याद कर कर के रोती रहतीं ।
फ़ल्लुज़ाह के आलीशान महल में नर्क़
भोगते हुये पाँच दिन गुज़र चुके थे । छठे दिन सुबह जब अबू अहमद अपने ख़िदमतगार के
साथ व्यापार के सिलसिले में मोसुल चला गया और सातवें दिन शाम को सूरज डूबने के समय
अबू हुसैन भी शाम की नमाज़ के लिए मस्ज़िद चला गया तो दोनों लड़कियों ने फ़ोन करके
फ़ल्लुज़ाह के अपने एक परिचित सुन्नी महमूद से मदद की गुहार की । महमूद ने बताया कि उस
महल से उन्हें निकाल पाना बहुत ही ख़तरनाक है लेकिन अगर वे किसी तरह ख़ुद ही महल से
बाहर आ सकें तो वह उन्हें उनके घर तक पहुँचाने में मदद कर सकेगा । वक़्त बहुत कम था
और लड़कियों को किसी भी तरह उस नर्क़ से बाहर आना था । अपनी सूझ-बूझ और चतुरायी से
वे दोनों महल से बाहर आने में क़ामयाब हुयीं और पैदल ही उस दिशा में चल दीं जहाँ
महमूद ने उनसे मिलने का वादा किया था । महमूद की हिदायत पर महल से आते वक़्त
उन्होंने आबाया पहनने में भूल नहीं की इसलिए ख़ुद को छिपा कर भागने में सहूलियत
हुयी । जब वे महल से भाग कर बाहर आयीं तो शाम का वक़्त था और नमाज़ की वज़ह से गलियाँ
लगभग सूनी थीं । लगभग पन्द्रह मिनट चलने के बाद उन्हें महमूद दिखायी दिया तो जैसे
दोनों को एक नयी ज़िन्दग़ी मिल गयी । उस रात
दोनों लड़कियों को भरपेट खाना भी मिला और सोने के लिए एक बिस्तर भी ।
सुबह होते ही महमूद ने बगदाद के लिए
एक टैक्सी तय की । ड्रायवर आइसिस के लड़ाकों से भयभीत था किंतु ख़ुदा के नाम पर मदद
के लिए सम्भावित ख़तरे मोल लेने के लिए तैयार हो गया । दोनों लड़कियों को फ़ल्लुज़ाह
की स्त्रियों जैसे कपड़े और निक़ाब दिये गये । महमूद ने कहीं से दो छात्राओं के नकली
परिचय पत्र भी जुगाड़ लिये थे ताकि चेक पोस्ट पर उन्हें दिखाया जा सके । हर चेक
पोस्ट पर दोनों लड़कियों के साथ-साथ ड्रायवर की भी धड़कन तेज़ हो जाती । और जैसे ही चेक
पोस्ट पार होता कि उन्हें फिर एक नयी ज़िन्दग़ी मिल जाती । लगभग दो घण्टे बाद दोनों
बगदाद पहुँच गयीं जहाँ उन्होंने अपने यज़ीदी परिचितों से फ़ोन पर सम्पर्क किया ।
अपने परिचितों के घर में दाख़िल होते ही वे निढाल सी हो गयीं । ये ख़ुशी के ऐसे क्षण
थे जिनका वर्णन कर पाना उन दोनों के लिए सम्भव नहीं था ।
उस दिन उन दोनों ने अच्छी तरह स्नान
किया, जैसे कि इतने दिनों के नर्क को धो देना चाहती हों । पहनने के लिए उन्हें साफ़
कपड़े दिये गये और खाने के लिये लज़ीज़ खाना । इतने दिनों बाद दोनों लड़कियाँ चैन की
नींद सो सकीं । सुबह हुयी तो दोनों ने बड़े आत्मविश्वास के साथ घर के बुज़ुर्गों के
साथ बैठकर आगे की यात्रा की योजना पर चर्चा की । शायमा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी,
वह परिन्दों की तरह उड़कर तेल उज़र पहुँचने के लिए बेताब हुयी जा रही थी, ज़ल्दी नैरिन
को भी थी किंतु फ़ल्लुज़ाह के नर्क़ की यादें अभी तक उसका पीछा नहीं छोड़ पा रही थीं
जबकि वह उन यादों को किसी निक़ाब की तरह नोच कर फ़ेक देना चाहती थी । वह बारबार अपने
विचारों को झटकने की कोशिश करती किंतु घनी काली दाढ़ी वाले घिनौने से लगने वाले
थुलथुल आदमी की सूरत उसे बारबार दबोच लेती ।
बगदाद में उनके लिए एक बार फिर दो नये
नकली परिचयपत्रों की व्यवस्था की गयी । योजना यह थी कि लड़कियों को हवाई यात्रा से कुर्दिस्तान
की राजधानी इरबिल तक पहुँचाया जाना था । परिचितों ने आनन-फ़ानन में उनके लिए फ़्लाइट
की व्यवस्था की । बगदाद की हवाई पट्टी को छोड़ते ही दोनों ने राहत की साँस ली ।
सारे दुःस्वप्न पीछे छूटने लगे थे, ज़िन्दग़ी जैसे फिर से खिलखिलाने को तैयार होने
लगी थी ।
इरबिल में ईराक़ी पार्लियामेण्ट के
यज़ीदी सदस्य वियान दाख़िल के यहाँ उन्होंने एक रात और गुज़ारी । नैरिन और शायमा को
यक़ीन नहीं हो रहा था कि वे आज़ाद हो चुकी हैं, वे पागलों की तरह ख़ुशी से चीखना
चाहती थीं । अगले दिन वे यज़ीदी धर्म गुरु बाबा शेख़ से मिलने के लिए शेख़ान गयीं और
फिर वहाँ से ख़ानके जहाँ नैरिन की अम्मी आइसिस के चंगुल से किसी तरह बचकर अपने एक
रिश्तेदार के यहाँ पहुँच गयीं थीं और दिन-रात अपने बेटे, बेटी और जवान बहू के लिये
रोती रहती थीं ।
अम्मी ने जैसे ही नैरिन को देखा तो वे
चीख पड़ीं, उन्हें
जैसे अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं हो रहा था । उन्होंने दौड़ कर नैरिन को सीने से लगाकर
दोनों बाहों में दबोच लिया । रोती हुयी अम्मी ने थोड़ी देर बाद जब नैरिन को चूमने
के लिए पकड़ ढीली की तो वे अचानक जैसे होश में आ गयीं, नैरिन उनकी
बाहों में बेहोश हो चुकी थी । वहीं ज़मीन पर बैठी शायमा रोये जा रही थी ।
होश में आने के बाद नैरिन ने सबसे पहले अपनी भाभी
नादिरा के बारे में पूछा । नादिरा गज़ब की ख़ूबसूरत थी, इसीलिये फ़ल्लुज़ाह के नर्क़ को
भोग चुकने के बाद नैरिन उसके लिए बेहद चिंतित हो रही थी । जब उसे बताया गया कि
आइसिस के ज़िहादियों ने उसे मोसुल में यौनदासी बनाकर क़ैद में रखा है तो दोनों
लड़कियाँ चीख मार कर रो उठीं । बाद में नैरिन ने रोते हुये अम्मी को बताया कि आइसिस
के लड़ाकों ने उसी दिन भाई को गोली मार दी थी । ख़बर सुनकर अम्मी जैसे पत्थर की हो
गयीं । उनका मस्तिष्क शून्य सा हो गया । शायमा रोती हुयी चीख रही थी – ये इस्लाम वाले
दुनिया को ख़त्म कर देने पर क्यों उतारू है ? आख़िर हमने किया क्या है ?
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "ट्रेन में पढ़ी जाने वाली किताबें “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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