मंगलवार, 21 मार्च 2017

झुकते-झुकते



हमने जल बिन मेघ घनेरे इधर-उधर देखे हैं फिरते ।
घिर कर चक्रव्यूह में सबने अभिमन्यु अनेकों देखे मरते ॥
संदेहों के मेघ विषैले लिये पोटली में सब फिरते ।
कुछ चमकीले लोग न जानें कितने दाग छिपाये फिरते ॥ 
पल-पल मरते वे जीते-जीते, हम जीते हैं मरते-मरते ।
बीत गया कलियों का जीवन ऋतुओं का ऋण भरते-भरते ॥
शीतल ऋतु में उष्ण हवायें, सच कहते हम डरते-डरते ।
कोई मिले ऐसा तो बताना, पोंछ सके जो आँसू झरते ॥
कब डूबा कोई खारे जल में, अश्रु बहा दो चाहे जितने ।
मधुर प्रेम में डूब गये हम, जीत लिया जग झुकते-झुकते ॥
किरण खोजने निकला हूँ मैं, रात बितायी चलते-चलते ।
दृढ़ संकल्प अगर कर लो तो, बात बनेगी बनते-बनते ॥

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