गुरुवार, 16 मार्च 2017

आलोचना का सिद्धांत (The theory of Criticism)...



आलोचना (Criticism) एक सामान्य एवं स्वाभाविक बौद्धिक प्रतिक्रिया (Cognitive reaction) है जो बौद्धिक एवं आचरणजन्य विकारों से मुक्ति (emancipation from the intellectual morbidity and moral deviation) की दिशा में परिमार्जन (Ablution) का प्रथम चरण होती है । यह वह प्रक्रिया है जो समाज को गतिशील बनाये रखती है । संकीर्ण अर्थों में की गयी आलोचना नकारात्मक एवं उदार अर्थों में की गयी सकारात्मक होती है, दोनों का अंतर आलोचक की दृष्टि और उद्देश्यों पर निर्भर करता है । भारतीय परम्परा में सम्भाषा परिषदों के माध्यम से स्वस्थ विमर्श को प्रशस्त माना जाता रहा है । भारत में आलोचना की नहीं, समालोचना की परम्परा रही है जो गुण-दोष के आधार पर एक संतुलन की स्थिति की माँग करती है । संतुलन का अभाव आलोचना को अतिवाद की ओर ले जाता है । 
इतिहास बताता है कि उत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था भी कभी स्थायी नहीं हो पाती, उसमें विकार आना स्वाभाविक है । भारत में इन विकारों की रोकथाम (Prevention of morbidity and deviation) एवं आचरण (personal as well as social conducts) में निरंतर परिमार्जन के लिये एक मान्य एवं व्यावहारिक सनातन व्यवस्था (eternal laws of the nature in the perspective of human nature) सुस्थापित की गयी जिसे सनातनधर्म के नाम से लोक प्रसिद्धि प्राप्त हुयी । कालांतर में उसके अनुयायियों में भी विकार आते चले गये और उस व्यवस्था के सिद्धांत मात्र उपदेश भर बनकर रह गये । किसी सिद्धांत की उपादेयता तभी तक है जब तक वह व्यावहारिक और प्रामाणिक है । पश्चिम भी जब कई प्रकार के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, औद्योगिक आदि विकारों से ग्रस्त हुआ तो उन विकारों के विरुद्ध स्वर उठने प्रारम्भ हुये । कार्ल-मार्क्स ने शोषणमुक्त (Free of exploitation) समाज व्यवस्था की कल्पना की और नये सिद्धांत गढ़ने प्रारम्भ किये । वे एक विराट वैश्विक समाज (Global society) की सुदृढ़ संरचना (supper structure) के बारे में स्वप्न देख रहे थे । मार्क्स का स्वप्न यथास्थिति के विरुद्ध था जिसने वर्जनाओं के विरुद्ध जनमानस, विशेषकर युवा शक्ति को आकर्षित ही नहीं किया बल्कि उन्हें आक्रामक भी बना दिया । प्रचण्ड आलोचना को सैद्धांतिक मान्यता देने के सफल प्रयास किये गये और मार्क्स का स्वप्न आलोचना के बौद्धिक धरातल पर आकार लेने लगा जिससे पहले पश्चिम में एवं उसके पश्चात् पूरे विश्व में एक बौद्धिक क्रांति का सूत्रपात हुआ जिसने शीघ्र ही अतिवाद को धारण कर लिया । भारत के नव-आलोचकों ने इसे बौद्धिक एवं वैचारिक क्रांति (Cognitive and Conceptual revolution) के रूप में स्वीकार किया । 
मार्क्स ने तत्कालीन संस्थाओं, यथा – समाज, परिवार, विवाह, धर्म आदि को स्वतंत्रता के लिए बाधक तत्व मानते हुये मनुष्य के लिए अनावश्यक बताया । वे समाज, परिवार, विवाह, परम्परा, धर्म, सत्तातंत्र, औद्योगिक पूँजीवाद जन्य शोषण, असमानता और लिंगभेद आदि के विरुद्ध उठ खड़े हुये । उत्तरमार्क्स युग में स्त्रीमुक्ति एवं लिंगभेदमुक्ति (Gender discrimination free society) के साथ-साथ हर प्रकार के बन्धनों (Socio-ethical regulations and moral limitations) से मुक्ति के लिये अतिवादी सिद्धांतों का विकास होने लगा । राज्य और संस्था के विरुद्ध मार्क्सवाद का अतिवादी स्वरूप उसी प्रकार था जैसे किसी रोग से मुक्ति पाने के लिए रोगी को ही समाप्त कर दिया जाय । मार्क्स के शिष्यों ने इसी सिद्धांत को निरंतर आगे बढ़ाया और 1923 में ज़र्मनी के फ़्रेंकफ़र्त में सामाजिक-वैचारिक क्रांति (Socio-Conceptual revolution) के लिए एक संस्था की स्थापना की जिसे पूरी दुनिया में फ़्रेंकफर्त स्कूल के नाम से जाना गया ।   
फ़्रेंकफ़र्त स्कूल की विचारधारा आलोचना का सिद्धांत(Theory of criticism) का उद्देश्य एक ऐसा सामाजिक परिवर्तन करना है जिसमें तर्क और वैचारिक क्रांति के माध्यम से सामाजिक बन्धनों एवं विकारों से मुक्ति पायी जा सके एवं आधुनिक पूंजीवाद का विरोध किया जा सके । वास्तव में यह संस्था अतिवाद के एक अनंत भटकाव की वैश्विक नींव के रूप में स्थापित हुयी । फ़्रेंकफ़र्त स्कूल ने 22 अप्रैल 1969 को भारत में एक बेटे को जन्म दिया जिसका नाम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय रखा गया । “आलोचना का सिद्धांत” एवं “बन्धनों-मर्यादाओं से मुक्ति” की आकर्षक एवं चुम्बकीय शक्ति के साथ सभी सामाजिक मर्यादाओं और नैतिक वर्जनाओं को ध्वस्त करते हुये राष्ट्र के स्थान पर सत्ताविहीन वैश्विक समाज की स्थापना के लिये इस विश्वविद्यालय के विद्वान निरंतर सक्रिय बने हुये हैं, यह जानते हुये भी कि अपनी सैद्धांतिक अवधारणा के अनुरूप आज तक कोई भी कम्युनिस्ट देश न तो पूर्ण शोषणमुक्त हो सका, न सीमाविहीन हो सका और न संस्थामुक्त ।   

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